Sunday, January 4, 2009

जोगी की सक्रियता ले डूबी

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। जनता ने एक बार फिर कांग्रेस को सत्ता में भागीदार नहीं बनाया। प्रदेश में कांग्रेस की करारी हार के पीछे टिकट के बंटवारे में हुई बंदरबांट, नेता पुत्रों की बड़ी संख्या में हार और भाजपा सरकार की नाकामियों को ठीक तरीके न भुना पाने को माना जा रहा है। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि इस हार के लिए अजीत जोगी की अतिसक्रियता भी उतनी ही जिम्मेदार है। प्रदेश के बड़े नेताओं को दरकिनार कर जोगी और आलाकमना ने जो भी निर्णय लिए वह कांग्रेस के लिए ही घातक रहे।

मृगेंद्र पांडेय

चुनाव से कुछ महीने पहले प्रदेश में चरण दास महंत को पार्टी ने धीरे से दरकिनार करने की कोशिश की। यही कारण है कि प्रदेश की कमान एक ऐसे नेता को सौंप दी गई, जिसका न तो प्रदेश में कोई खासा जनाधार था, न ही वह लोकप्रिय थे। यह तो चरण दास महंत और उन जसे कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने की महज एक बानगी थी। पार्टी के इस निर्णय की पोल खुलने में भी ज्यादा समय नहीं लगा। लोकतंत्र में तो जनता सभी को सच्चाई से अवगत करार ही देती है। यही धनेंद्र साहू के साथ भी हुआ। पार्टी ने प्रदेश में सरकार बनाने का उनको जो जिम्मा सौंपा था, वह तो दूर वे अपनी सीट बचाने में भी सफल नहीं हो पाए। यही हाल कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा का हुआ। जोगी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे सत्यनारायण भी इस बार रायपुर ग्रामीण से चुनाव हार गए।

चरणदास महंत के पास पार्टी की कमान लगभग ढाई साल रही, लेकिन अजीत जोगी की अड़गेबाजी के कारण न तो उनको कार्यकारिणी बनाने का मौका मिल पाया और न ही वह प्रदेश में पार्टी के लिए कुछ खास कर पाए। यही कारण है कि पांच साल प्रदेश में भाजपा की सरकार में रहने के बावजूद कांग्रेस को न तो उनके खिलाफ कोई मुद्दा मिला, न ही वह किसी भी मोर्चे पर भाजपा सरकार का विरोध ही कर पाई। सरकार के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे, लेकिन कमजोर संगठन के कारण कांग्रेस इसे भुनाने में सफल नहीं हो पाई। आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा के सलवा जुडूम को भी कांग्रेस भूनाने में सफल नहीं रही। अजीत जोगी ने विरोध किया, लेकिन आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा ने उसका समर्थन कर इस मुद्दे पर पार्टी को ही दो भागों में बांट दिया।

टिकटों के बंटवारे में भी आलाकमान के साथ मिलकर अजीत जोगी बड़ी संख्या में अपने समर्थकों को टिकट तो दिला दिया, लेकिन उसमें से अधिकांश को हार का सामना करना पड़ा। अजीत जोगी के खास माने जाने वाले युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर कई दिग्गजों को हार का मुंह देखना पड़ा। पार्टी ने भले ही अजीत जोगी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया हो, लेकिन मरवाही से उनको चुनाव मैदान में उतारना पार्टी के लिए घातक सिद्ध हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि चरण दास महंत हों या फिर विद्याचरण शुक्ल सभी को यह लगने लगा की पार्टी अगर सरकार बनाने की स्थिति में आती है, तो विधायक होने के नाते अजीत जोगी की दावेदारी सबसे मजबूत है। इसी का नतीजा रहा कि अंतिम समय में सभी आला नेता की सक्रियता कम हो गई।

प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं का तो यह भी मानना है कि अजीत जोगी के आक्रामक चुनाव प्रचार से भी पार्टी के प्रति जनता में नकारात्मक संकेत गया है। जनता ने विकास और विकास के दावों में बखुबी अंतर किया और अजीत जोगी के तीन साल के कार्यकाल की तुलना रमन सिंह के पांच साल से किया। दरअसल रमन सिंह को बढ़त तीन रुपए किलो चावल को करने से मिली। लेकिन जब चुनाव घोषणा पत्र की बात आई तो अजीत जोगी ने सरकार आने पर दो रुपए किलो चावल देने की बात कह डाली, जिसे भाजपा ने खुब भूनाया। उनका कहना था कि जोगी और कांग्रेस के पास अपनी कोई खासी सोच नहीं है। वह भाजपा की ही बातों को आगे बढ़ रही है। जोगी भले ही खुद और अपनी पत्नी रेणू जोगी को कोटा से चुनाव जीताने में सफल रहे हों लेकिन उन नेताओं के बेटे-बेटियों को करारी हार का सामना करना पड़ा, जो जीत का दंभ भरते नजर आ रहे थे। जनता ने मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा और अरविंद नेताम की बेटी प्रीति नेता को नकार दिया।

यही कारण है कि आलाकमान का विश्वास अब अजीत जोगी से उठता नजर आ रहा है। पार्टी ने इसकी पहल भी कर दी है। प्रदेश में कांग्रेस विधायक दल का नेता रविंद्र चौबे को बनाया गया है, जो जोगी सरकार में मंत्री थे। पार्टी जल्द ही अजीत जोगी के प्रभाव को और कम करने के लिए किसी युवा को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपने की भी फिराक में है। ऐसे में इस बार पार्टी वह गलती नहीं करेगी जो विधानसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे के दौरान की गई। यही कारण है कि प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं को पार्टी एकजुट करने के प्रयास में है और उनकी सहमति से ही अगला युवा प्रदेश अध्यक्ष चुनने की दिशा में आगे बढ़ेगी। दरअसल पार्टी भी यह सोचने लगी है कि प्रदेश में युवा नेतृत्व को आगे लाया जाए। यह कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की उस सोच का नतीजा है जो उन्होंने वर्ष 2009 में केंद्र में सरकार बनाने और सत्ता में युवाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए उठाया।

1 comment:

प्रशांत तिवारी said...

बहुत सही कहा है ... भाई जी आपने