अफरातफरी और अनिश्चितता के माहौल का फायदा उठाकर पार्टी के कई नेताओं ने अपने ही साथियों को नीचा दिखाने तथा पुरानी खुन्नसें निकालने का काम शुरू कर दिया।
राजीव पांडे
लोकसभा चुनावों में पराजय का मुंह देखने के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी में कुछ ठीक नहीं होता दिखाई दे रहा है। होना तो यह चाहिए था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता एक साथ बैठकर आत्मविश्लेषण करते और हार के कारणों का पता लगाते तथा उसके बाद उन कारणों को दूर करने और पार्टी को मजबूत बनाने में जुट जाते। यह सही है कि पार्टी सत्ता से दूर रह गई और लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं हो पाया। पार्टी की इतनी दुर्गति भी नहीं हुई थी कि उसके नेता सिर पकड़ कर बैठ जाते। पार्टीजनों में तो इतनी हताशा छा गई, जसे कि सब कुछ खत्म हो गया।
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से अलग होने का ऐलान किया था तो सब जानते थे कि अब पार्टी के नेता आडवाणी ही होंगे। लेकिन अब आडवाणी के बाद कौन? जब यह सवाल सामने आया तो सबके स्वार्थ सामने आने लगे। बहुत मनाने के बाद आडवाणी फिलहाल विपक्ष के नेता बने रहने को तैयार हो गए हैं, लेकिन उन्होंने जब अपने ही गुट के माने जाने वाले अरुण जेटली को राज्यसभा में पार्टी का नेता और सुषमा स्वराज को लोकसभा में उपनेता नियुक्त किया तो उसने आग में घी डालने जसा काम किया। आडवाणी की पीढ़ी के नेता इस बात से इतने नाराज हुए कि उन्होंने इन नियुक्यिों को एक तरह से साफ चुनौती दे डाली। यह सीधे आडवाणी की सर्वोच्चता को चुनौती देना था। इससे यह भी साफ हो गया कि आडवाणी अब उतने मजबूत नहीं रहे। उनकी मौजूदगी मे जब यह कलह शुरू हो गई है तो उनके पद से हट जाने के बाद तो पार्टी में बाकायदा युद्ध ही छिड़ जाएगा।
इस अफरातफरी और अनिश्चितता के माहौल का फायदा उठाकर पार्टी के कई नेताओं ने अपने ही साथियों को नीचा दिखाने तथा पुरानी खुन्नसें निकालने का काम शुरू कर दिया। कुछ ने पार्टी को अपने पुराने एजेंडा में वापस चलने की वकालत की तो कुछ उसे समय के अनुसार बदलने की बात कह कर विकास को एजेंडा बनाने की बात करने लगे। इन नेताओं को लगा कि उन्हें इससे अच्छा अवसर मिल नहीं सकता। वह एक तीर से दो निशाने साधना चाहते थे। उन्हें लगा कि वह अपने दुश्मनों पर हार का ठीकरा फोड़ उन्हें पार्टी में किनारे लगाने के साथ ही अपना स्वार्थ सिद्ध करने में सफल हो जाएंगे। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं था कि उनका यह अभियान पार्टी को कहां ले जाएगा।
इस अंदरूनी कलह का कार्यकर्ताओं के मनोबल पर कितना खराब असर पड़ेगा। ये नेता पार्टी के हितों को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे थे लेकिन नेतृत्व ने चुप्पी साधी हुई थी। यह सिलसिला पार्टी के सर्वमान्य नेता लालकृष्ण आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की नाक के नीचे शुरू हुआ लेकिन उन्होंने इस पर तुरंत रोक लगाने के लिए कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की। जब यह मामला गर्म होने लगा तो हाईकमान ने हाथ-पैर मारने शुरू किए लेकिन तब तक इसकी आंच राज्यों में भी फैल गई थी।
उत्तराखंड, कर्नाटक और हरियाणा उन राज्यों में से थे, जहां असंतुष्ट खुल कर सक्रिय हो गए। असंतुष्टों की इस मुहिम को अपनी पहली सफलता मिल भी गई, जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अब इनके मुंह में खून लग गया है और ये भविष्य में और सक्रिय ही होंगे और न तो अन्य राज्य और न ही केंद्रीय हाईकमान ही इससे बच पाएगा।
इन असंतुष्टों की सक्रियता का एक और कारण यह भी है कि इन्हें पार्टी का कोई न कोई दिग्गज नेता हवा दे रहा है। पार्टी अध्यक्ष स्वयं इस स्थिति में नहीं हैं कि वह किसी बड़े नेता को नाराज कर सकें क्योंकि उनके अध्यक्ष पद के इस कार्यकाल के कुछ ही महीने रह गए हैं। यह भी एक वजह है कि असंतुष्टों में हाईकमान का उतना डर नहीं रह गया दिखता है।
दो साल पहले जब आडवाणी ने खंडूरी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया तो, उस समय राज्य के अनेक पार्टी नेताओं ने उनकी मुखालफत की। लेकिन तब उनकी एक नहीं चली क्योंकि पार्टी का केंद्रीय नेतत्व मजबूत था। इन चुनावों में पार्टी को राज्य की पांच सीटों में से एक भी सीट नही मिली तो ये नेता, जो उनकी कार्यशैली से भी प्रसन्न नहीं थे, उनके पीछे पड़ गए।
प्रदेश से राज्यसभा के सांसद ने तो अपने पद से ही त्यागपत्र दे दिया। लेकिन उस सांसद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। उनसे केवल अपना इस्तीफा वापस लेने को कह दिया गया। उत्तराखंड की घटना महज एक शुरुआत है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पार्टी के भविष्य को लेकर आशंकाएं ही पैदा होती हैं क्योंकि आडवाणी के बाद कोई ऐसा नेता नहीं है, जो सबको एक साथ लेकर चल सके। पंक्ति के जो नेता हैं उनमें अहं का जबरदस्त टकराव है, जो बिखराव का कारण भी बन सकता है।
1 comment:
असल मे हार की हताशा के कारण यह सब हो रहा है।यदि पार्टी जीत जाती तो यह सब कभी उभर कर सामने नही आ पाता।
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