Friday, July 25, 2008

इस जीत के बाद!

विश्वास मत की बहस और विवाद की धूल जमने के साथ ही राजनीतिक दलों ने अब अपने घरों की सुध लेना शुरू कर दिया है। विपक्ष ने अपने बागी सांसदों को पार्टी से निकाल दिया। सरकार ने विश्वास मत के लिए समर्थन के समय किए वायदे पूरे करने का काम शुरू कर दिया है।

सबसे पहले सबसे अहम सहयोगी द्रविड़ मुनेत्र कषगम की मांग पूरा करने के लिए सेतु सम्रुम पर सुप्रीम कोर्ट में एक नई बात कही कि राम ने ही सेतु तोड़ दिया था। सरकार का यह दावा विश्वास मत के बाद से मूर्छित पड़ी भाजपा को ताजा हवा के झोंके के समान लगा होगा। संसद में बहस के समय जो राजनीतिक ध्रुवीकरण नजर आया मोटे तौर पर उसके अगले लोकसभा चुनाव तक जारी रहने की संभावना है। विश्वास मत में भले ही कांग्रेस और उसके सहयोगी दल जीते हों पर उसका परोक्ष लाभ विपक्ष को भी हुआ है।

सरकार के लिए इस जीत ने संभावना और संकट दोनों के द्वार खोल दिए हैं। एक बात तय मानना चाहिए कि अब चुनाव अपने नियत समय पर होंगे। सरकार के पास अगले नौ महीने मतदाता को लुभाने के लिए हैं। विधानसभा चुनावों में लगातार हार से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में आई निराशा इस जीत से छंटेगी। पार्टी नए उत्साह के साथ एक बार फिर जुटेगी।

कांग्रेस के लिए संकट उसके सहयोगी पैदा करेंगे। चुनाव के नजरिए से अब हर घटक अपनी जायज- नाजायज मांगे पूरी करवाने के लिए दबाव डालेगा। द्रमुक ने इसकी शुरुआत कर दी है। सरकार की नई सहयोगी समाजवादी पार्टी के लिए असली चुनावी रण क्षेत्र उत्तर प्रदेश है और लक्ष्य मायावती का राजनीतिक मानमर्दन है। जसे विश्वास मत में समाजवादी पार्टी ने हर तरह के हथकंडे अपनाने में कोई संकोच नहीं किया। वैसे ही वे चाहेंगे कि केंद्र सरकार की ताकत का हर तरह इस्तेमाल मायावती और बहुजन समाज पार्टी को घेरने में हो। इसके लिए समाजवादी पार्टी कुछ दिनों में केंद्रीय गृह मंत्रालय की मांग करे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

विश्वास मत में विपक्ष की हार ने मुख्य विपक्षी दल भाजपा को अपने घाव सहलाने का समय दे दिया है। सत्तारूढ़ गठबंधन ने सबसे ज्यादा सेंध भाजपा के ही घर में लगाई। कांग्रेस का विकल्प होने का दावा करने वाली भाजपा को पता ही नहीं था कि उसके अपने घर में क्या हो रहा है। कर्नाटक जहां अभी दो महीने पहले वह विधानसभा चुनाव जीती है वहां से भी तीन सांसद पार्टी का साथ छोड़ गए। मान लीजिए कि सरकार विश्वास मत हार जाती तो क्या होता। उस हालत में मायावती, वामदल यूएनपीए और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सबके निशाने पर भाजपा होती।

हार ने भाजपा को इस हमले से बचा लिया। पार्टी में एेसे लोगों की कमी नहीं है जो सरकार के जीतने से खुश हैं। उनका मानना है कि इससे आडवाणी कमजोर हुए हैं। अब जिस पार्टी में अंदर ही एेसी सोच हो वह क्या तो विकल्प बनेगी और क्या संघर्ष में उतरेगी। दरअसल भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की कमी से अभी तक उबर नहीं पाई है।

आडवाणी को पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार भले ही घोषित कर दिया हो पर वे पार्टी के स्वाभाविक और निर्विवाद नेता नहीं बन पाए हैं। भाजपा में एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से फायदे की बजाय नुक्सान हुआ है। ऐसे लोगों का मानना है कि वाजपेयी के लौटने का भ्रम बनाए रखना फायदेमंद होता। इस बात को हाल में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बड़ी शिद्दत से महसूस किया गया। पूरे प्रदेश से वाजपेयी के कार्यक्रम की मांग हो रही थी। पूरे विश्वास मत के दौरान भाजपा दरअसल कहीं भी कांग्रेस से लड़ती नजर नहीं आई तो इस वजह से कि अभी उसके अंदर ही संघर्ष चल रहा है।विश्वास मत के लिए चली राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा मिला है बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को।

राजनीतिक रूप से अछूत बनी मायावती और उनकी पार्टी न केवल राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गई बल्कि वे प्रधानमंत्री पद की दावेदार भी बन गईं। सत्रह सांसद लेकर सात दिन में उनका कद एक सौ तीस सांसदों की पार्टी के नेता आडवाणी से बड़ा नजर आने लगा। पिछले चार साल से जिस तीसरे मोर्चे की बात हो रही थी, वह आकार लेने लगा। मुलायम ¨सह यादव के इस मोर्चे में रहते वामदलों के बावजूद यह मोर्चा क्षेत्रीय ताकतों का मंच नजर आता था।

मायावती के आने से अचानक उसकी राष्ट्रीय छवि नजर आने लगी। इसलिए कि मुलायम सिंह यादव की बनिस्पत मायावती मोर्चे में शामिल सभी दलों के वोट बैंक में कुछ जोड़ने की हैसियत रखती हैं। इसलिए मायावती कांग्रेस के जनाधार के लिए खतरा हैं और भाजपा के नेतृत्व के लिए। प्रकाश करात को इन दोनों से लड़ना है। इसलिए वामदल मायावती के साथ हैं। यह सैद्धांतिक हठवादिता की राजनीति और व्यवहारिक राजनीति का गठजोड़ है।


प्रदीप सिंह

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