सुभाष धूलिया
अफगानिस्तान में भारत पर हमले क्यों हो रहे हैं ? भारतीय दूतावास पर आत्मघाती हमला अगर उतना सफल हो गया होता जितनी योजना बनाई गई थी तो पूरे परिसर में तबाही मच गई होती. पंद्रह महीने पहले हुए हमले में 60 लोग मारे गए थे जिसमें 2 वरिष्ठ भारतीय राजनयिक शामिल थे. इससे पहले समय-समय पर अनेक विकास कार्यों में लगे भारतीय इंजीनियरों के अपहरण और हत्या की घटनाएं होती रही हैं.
भारत पर ये हमले तब हो रहे हैं जबकि यही एकमात्र ऐसा देश है जो अफगानिस्तान में चल रहे सैनिय अभियान में शामिल नहीं है और सड़क, स्कूल, अस्पताल, बिजली, बांध के निर्माण जैसे कार्यों में लगा हुआ है. 1989 में सोवियत संघ की पराजय के उपरांत उभरे सत्ता समीकरण में भारत का लगभग अफगानिस्तान से पलायन हो गया था और भारत-अफगान संबंध उत्तरी गठजोड़ को भारतीय मदद तक ही सीमित हो गया था. काबुल में मुजाहिदीनों और बाद में तालिबानों की सत्ता कायम हो चुकी थी जिन्हें भारत मान्यता तक नहीं देता था. लेकिन इस अपवाद को छोड़कर अफगानिस्तान के साथ हमेशा ही बहु-आयामी संबंध रहे हैं और दोनों देशों के बीच गहरा सांस्कृतिक लगाव है. 1950 में दोनों देशों के बीच मैत्री और सहयोग की संधि हुई थी. इसके विपरीत अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान के संबंध मुजाहिदीन और तालिबानी शासनकाल को छोड़कर कभी भी अच्छे नहीं रहे हैं. यहां तक कि 1947 में देश के बंटवारे के वक्त बलूच बहुत सहरदी सूबे और पख्तूनों में पाकिस्तान में शामिल होने के सवाल पर विरोध था.
9/11 के बाद अमेरिका ने सैनिक हस्तक्षेप से तालिबान सरकार को ध्वस्त कर दिया और एक बार फिर भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में साझीदार बनकर अफगानिस्तान में प्रवेश किया. अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध को 8 साल पूरे हो गए हैं और अमेरिका केवल पाकिस्तान के साथ मिलकर सैन्य अभियान के बूते पर इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने पर केन्द्रित रहा है. वहीं भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. अफगानिस्तान की मौजूदा सत्ता भले ही कितनी ही कमजोर और प्रभावहीन हो लेकिन भारत के साथ संबंधों को लेकर इसका वृहत सकारात्मक रुख रहा है और अफगानिस्तान में उग्रवादी हिंसा को लेकर इसने समय-समय पर पाकिस्तान को आड़े हाथों लिया है. भारतीय दूतावास पर हमले को लेकर भी अफगान सरकार ने भी लगभग स्पष्ट रूप से कहा है कि इसके पीछे पाकिस्तान स्थिति उन उग्रवादियों का हाथ है जिन्हें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है.
हांलाकि पिछले सप्ताह भारतीय दूतावास पर हमले के अलावा पाकिस्तान में पेशावर में एक आतंकवादी हमले में 80 लोग मारे गए; रावलपिंडी में पाकिस्तान के सैनिक मुख्यालय पर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ है; और, अमेरिकी सेना पर एक हमले में 8 सैनिक मारे गए. लेकिन इन तमाम आतंकवादी हमलों को एक ही तराजू पर नहीं तौला जा सकता और भारतीय दूतावास पर हुए हमलों में आईएसआई का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होने के तार्किक कारण हैं. अनेक कारणों से हाल के वर्षों में अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव बढ़ रहा है. अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को लेकर पाकिस्तान हमेशा ही चिंतित रहा है. अमेरिकी युद्ध में पाकिस्तानी सेना की भूमिका के कारण अमेरिकी प्रशासन का एक हिस्सा भी भारत को अफगानिस्तान से दूर रखना चाहता है.
यह आश्चर्य की बात है कि अमेरिका एक ओर तो हमेशा यह कहता आया है कि अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने में पाकिस्तान के अलावा भारत, ईरान, रूस और चीन सबके हित जुड़े हुए हैं. लेकिन पिछले आठ वर्षों में अमेरिका पाकिस्तान के साथ मिलकर सैनिक ताकत के बल पर ही समाधान ढूंढ़ रहा है और इस संकट के क्षेत्रीय समाधान की निरंतर उपेक्षा करता रहा है. यह और भी आश्चर्य की बात है कि अमेरिका इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने के अपने अभियान में भारत को संबद्ध करने से बचता ही नहीं रहा है बल्कि इससे दूरी बनाकर पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान को रिझाने की कोशिश करता रहा है. भारत पर हो रहे हमलों का मकसद अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारतीय प्रयासों को सीमित करना है. यह आश्चर्य की बात है कि भारतीय प्रभाव में पाकिस्तान और इस्लामी उग्रवादियों को जो खतरे दिख रहे हैं उनके प्रति अमेरिका उदासीन ही नहीं बल्कि नकारात्मक रहा है.
आठ वर्ष युद्ध के बाद भी अमेरिका अफगानिस्तान को समझने में विफल दिखाई प्रतीत होता है. यह वही अफगानिस्तान है जहां सोवियत महाशक्ति को 10 वर्ष के युद्ध के बाद पराजय झेलनी पड़ी थी. यह वही अफगानिस्तान है जिस पर कब्जा करने के ब्रिटिश साम्राज्य के तीन प्रयास विफल रहे थे. इसलिए इस देश को, ‘साम्राज्यों का कब्रिस्तान’ भी कहा जाता है. ओबामा प्रशासन अफगानिस्तान-पाकिस्तान को लेकर नई रणनीति बनाने पर जुटा हुआ है और इस मसले पर तीखे मतभेद उभर रहे हैं. विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि अमेरिका कुछ तालिबानी तत्वों के साथ सहयोग का अध्ययन कर रहा है. काफी समय से ‘उदार’ तालिबान के साथ सहयोग की बातें चल रही हैं.
निश्चय ही अफगानिस्तान की समस्या के किसी भी राजनीतिक समाधान के लिए करजई सरकार एकदम अपर्याप्त है और अफगानिस्तान में ऐसी राजनीतिक शक्तियों का उभरना जरूरी है जो तालिबान जैसे इस्लामी उग्रवादियों से लड़ सके. निश्चय ही तालिबानी का एक धड़ा इस तरह की राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर सकता है क्योंकि यह कहना सही नहीं होगा कि विदेशी सैनिक आधिपत्य से लड़ने वाला हर अफगानी उग्रवादी है. इन अफगान लड़ाकों में राष्ट्रवादी भी शामिल हैं. लेकिन इस तरह की राजनीतिक शक्तियां शून्य में पैदा नहीं हो सकती हैं. इस तरह की शक्तियों के उभरने के लिए एक सामाजिक आधार को विकसित करना आवश्यक है और यह तभी हो पाएगा जब बंदूकों की नालें थोड़ी नीची कर दी जाएं और भारत जैसे देशों को लेकर एक स्थानीय समाधान की तरफ ध्यान दिया जाए. नई अफगान रणनीति को लेकर ओबामा प्रशासन के सैनिक धड़े और राजनीतिक नेतृत्व के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई है. अफगानिस्तान में अमेरिकी कमांडर जनरल स्टेनली मेक्रिस्टर ने 40 हजार और सैनिकों की तैनाती की मांग की है और कहा है कि अगर ऐसा नहीं होता तो अफगानिस्तान में अमेरिका का मिशन एक साल में विफल हो जाएगा यानी अमेरिका पराजित हो जाएगा. मेक्रिस्टर अफगानिस्तान के चप्पे-चप्पे में जमीनी सैनिक अभियान चलाकर तालिबान को ध्वस्त करना चाहते हैं. दूसरी ओर यह तर्क दिया जा रहा है कि अफगानिस्तान में अल कायदा का लगभग सफाया हो चुका है और केवल पाकिस्तान में ही अल कायदा के गढ़ बचे हुए हैं. यह तर्क दिया जा रहा है कि तालिबान अमेरिका के लिए अल कायदा जैसा खतरा नहीं है इसलिए अमेरिकी रणनीति पाकिस्तान में अल कायदा के अड्डों को ध्वस्त करने पर केन्द्रित होनी चाहिए. उप-राष्ट्रपति जो बिदेन जमीनी सैनिक अभियान की बजाय पाकिस्तान में स्थित आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले और पाकिस्तानी जमीन पर विशेष सैनिक दस्तों के हमले की पैरवी कर रहे हैं. जनरल मेक्रिस्टर द्वारा सुझाई जा रही रणनीति भले ही एक जटिल समस्या को सैनिक विजय तक सीमित करती हो लेकिन उनके इस तर्क में काफी दम है कि मौजूदा स्थिति के चलते एक वर्ष में अमेरिका यह युद्ध हार जाएगा और अल कायदा और तालिबान को अलग करके नहीं देखा जा सकता. जनरल मिक्रेस्टर तालिबान का सफाया कर देना चाहते हैं तो बिदेन अल कायदा पर केन्द्रित होने के पक्षधर हैं.
अमेरिकी रणनीति का हर विकल्प युद्ध के विस्तार की ओर उन्मुख है और अफगान समस्या के वास्तविक समाधान से भटक रही है. पाकिस्तानी जमीन पर हमलों से पाकिस्तान में तूफान खड़ा हो जाएगा और जमीनी सैनिक अभियान से बड़े पैमाने पर आम लोग मारे जाएंगे.
शांति का नोबेल पुरस्कार पाने के बाद ओबामा व्हाईट हाउस में अपने सभाकारों और सैनिक जनरलों के साथ मिलकर एक नए युद्ध की रणनीति तैयार कर रहे हैं. लेकिन अब भी उस सब से बच रहे हैं जिसके रास्ते अफगान युद्ध में विजय के साथ-साथ इस देश में किसी तरह का कोई स्थायित्व पैदा हो सकता है. कोई ऐसी सत्ता उभर सकती है जो सीमित अर्थों में ही सही अफगान लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हो. अमेरिका को अपनी विजय को परिभाषित करना होगा. मौजूदा परिस्थिति में इस उम्मीद से परहेज क्यों किया जाए कि नोबेल शांति विजेता सैनिक विजय के बाद के अफगानिस्तान को भी देख सकेगा जिसे शांति और स्थायित्व की बेहद दरकार होगी और यह भी पहचान कर पाएगा कि इस तरह के अफगानिस्तान के निर्माण में उसके सहयोगी कौन हो सकते हैं ? युद्ध सिर्फ युद्ध के लिए नहीं लड़े जाते, इनका मकसद शांति भी होता है.
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