Monday, November 10, 2008

स्वतंत्र विदेश नीति पर संकट

सुभाष धूलिया

भारत अमेरिका से काफी बड़े पैमाने पर सैनिक साजो-सामान की खरीद कर रहा है। आए दिन भारत और अमेरिका के संयुक्त सैनिक अभ्यास होते रहते हैं। अमेरिका भारत के सैनिक नाभिकीय कार्यक्रम में भी अप्रत्यक्ष रूप से मदद कर रहा है। दोनों देशों के बीच अरबों-खरबों का नाभिकीय व्यापार होने जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत के लिए स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष नीति पर चलना संभव रह पाएगा ? भारत को वैश्विक नाभिकीय समुदाय में शामिल करने के लिए अमेरिका ने असाधारण प्रयास किए और इन प्रयासों असाधारणा से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों देशों के बीच नाभिकीय सहयोग का दायरा सिर्फ भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना और अमेरिकी कंपनियों के लिए एक बड़ा नाभिकीय बाजार खोलने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह एक व्यापक और गहरी सामरिक रणनीति का हिस्सा है।

कुछ समय पहले तक ही ईरान और जार्जिया को एक बड़े युद्ध के कगार पर खड़ा देखा जा रहा था लेकिन हाल ही में अफगानिस्तान-पाकिस्तान को लेकर अमेरिका ने जो आक्रमक रुख अपनाया है उससे तो यही लगता है कि अब दक्षिण एशिया एक बड़े और खतरनाक युद्ध के कगार पर खड़ा है। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ राजनीतिक युद्ध हारता चला जा रहा है और इस हार की भरपाई अधिकाधिक सैनिक हस्तक्षेप से करना चाहता है। अमेरिका में इस बात को लेकर राजनीतिक सहमति बन गयी है कि इराक के बजाय अफगानिस्तान पर ध्यान केन्द्रित करना होगा और अफगान युद्ध तबतक नहीं जीता जा सकता जब तक पाकिस्तानी जमीन पर सैनिक कार्रवाई कर सीमा से लगे कबाइली इलाकों से आतंकवादी गढ़ों को ध्वस्त नहीं कर दिया जाता।

पाकिस्तान की जमीन पर अमेरिका की सैनिक कार्रवाई एक बहुत बड़े टकराव की शुरुआत होगी। इस तरह के टकराव के उपरांत पाकिस्तान का जो राजनीतिक,सामाजिक और सैनिक मानचित्र उभरेगा उसकी सहज कल्पना की जा सकती है। पिछले काफी समय से भारत की पूरी विदेश नीति का ध्यान केवल अमेरिका के साथ नाभिकीय समझौते पर ही केन्द्रित रहा है और ऐसा आभास होता है कि पड़ोस में पनप रही खतरनाक स्थिति को लेकर कोई परिपक्व सोच विकसित नहीं की गयी है। पाकिस्तान की जमीन पर अमेरिका की सैनिक कार्रवाई में भारत की भूमिका क्या होगी ?

इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका ऐसे युद्ध लड़ रहा है जिन्हें जीता ही नहीं जा सकता। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका का वैश्विक युद्ध की अवधारणा दिनोंदिन स्पष्ट होने के बजाय बोझिल होती जा रही है। आज अनेक हलकों में यह कहा जा रहा है कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के युद्ध में भले ही सैनिक रूप से आतंकवाद के गढ़ों को भारी नुकसान पहुंचाया गया है लेकिन राजनीतिक रूप से इस्लामी उग्रवाद आज इतना प्रबल हो गया है जितना इतिहास में कभी नहीं था। आतंकवाद के खिलाफ पांच सालों से अमेरिका युद्ध लड़ रहा है लेकिन आतंकवाद खत्म होना तो दूर और प्रबल हुआ है। अचरज की बात यह है कि अमेरिका में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का कोई व्यावहारिक मूल्यांकन नहीं किया गया है और इस्लामी दुनिया में अमेरिकी अवधारणाओं को रोपित करने की कोई जांच-परख नहीं की गयी है। इसी का परिणाम है कि केवल बुश प्रशासन ही नहीं समूचा अमेरिका सत्ता प्रतिष्ठान युद्ध को खत्म करने के बजाय युद्ध के विस्तार में ही अमेरिका के हित देख रहा है।

आज यह मानने के कारण लगभग क्षीण हो गए हैं कि पाकिस्तान की जमीन पर अमेरिका कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा और अगर ऐसा होता है कि एक राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाएंगे। अटलबिहारी वाजपेयी समेत भारत के हर प्रधानमंत्री ने हमेशा ही कहा है कि स्थिर और संपन्न पाकिस्तान ही भारत के हित में है। पाकिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के विनाशकारी परिणाम होंगे। पाकिस्तान में एक हलके का मानना है कि भारत दोनों का फायदा उठाकर पाकिस्तान के खिलाफ कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई कर सकता है। इस संदर्भ में इस बात को नहीं भूला जाना चाहिए कि दोनों ही देशों के पास नाभिकीय हथियार हैं। हालांकि एक अत्यंत नाजुक स्थिति में अमेरिका संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र के प्रावधान के तहत पाकिस्तान के नाभिकीय हथियारों को 'खतरनाक' घोषित करवा सकता है और इन पर नियंत्रण के लिए अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई भी की जा सकती है। अब सवाल यही उठते हैं कि इस तरह का परिदृश्य उभरने पर भारत कहां खड़ा होगा ?

आज बुश प्रशासन ने नाभिकीय समझौते के लिए असाधारण प्रयास किए हैं ऐसे में भारत से उसकी अपेक्षाएं बढ़ना स्वाभाविक ही है। इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि अमेरिका के साथ नाभिकीय सहयोग की प्रक्रिया शुरु होते ही ऊर्जा एजेंसी की बैठक में भारत ने दो बार ईरान के खिलाफ वोट दिया जबकि रूस और चीन जैसे देश कम से कम अनुपस्थित रहने में सक्षम रहे थे। इस नाभिकीय सहयोग के उपरांत ही अरबों डॉलर की ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। ईरान को लेकर भारत से अमेरिका ये अपेक्षाएं रखता है तो पाकिस्तान के संदर्भ में क्या होगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत ने अनेक मोर्चों पर महत्वपूर्ण पहलों का लगभग परित्याग सा कर दिया है। शीतयुद्ध के बाद उभरी एकध्रवीय दुनिया में अमेरिकी ताकत पर अंकुश लगाने के लिए किसी नए सत्ता समीकरण की अपेक्षा की गयी थी। इस संदर्भ में भारत, रूस और चीन के बीच गठजोड़ कायम करने के लिए पहल की गई थी । रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने यूरेशिया में अमेरिका के आक्रमक कूटनीति के जवाब में भारत, रूस, चीन और ब्राजील के गठजोड़ की वकालत की थी। रूस की सरहदों तक नाटो के विस्तार और जॉर्जिया पर रूस के आक्रमण से पहले ही नया शीतयुद्ध शुरु हो चुका है। चीन को लेकर अमेरिका हमेशा ही आतंकित रहा है और अब चीन की बढ़ती ताकत की वजह से आशंकाओं के बादल और घने होते जा रहे हैं।

मध्यपूर्व और मध्य एशिया पर नियत्रंण की अमेरिकी की रणनीति में भारत की क्या भूमिका होगी ? अगर ईरान के खिलाफ कोई सैनिक कार्रवाई होती है तो भारत किसके पक्ष में और कहां खड़ा होगा ? इन तमाम सवालों को मौजूदा सरकार संबोधित करती नजर नहीं आती और भारत की विदेश नीति एक शून्य में दिशाहीन सी प्रतीत होती है। विश्व राजनीति के इस अंतरिम दौर में भारत अपने आपको एक ऐसी महाशक्ति के साथ संबद्ध कर रहा है जो खुद ही ऐसे गहरे संकटों में फंसी है जिनके आसान तो दूर गूढ़ समाधान भी कहीं नजर नहीं आ रहे हैं।

नाभिकीय समझौते की आड़ में मनमोहन सरकार ने अमेरिका के साथ जिस तरह का सामरिक गठजोड़ कायम कर लिया है उससे अमेरिका पर भारत की निर्भरता इस हद तक बढ़ गयी है कि संदेह पैदा होता कि क्या आज भारत स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम है ? भारत की विदेश नीति कितनी स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष रह पाती है इसकी परीक्षा जल्द होने वाली है।

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