Sunday, November 16, 2008

चावल चले तो दाल गले

छत्तीसगढ़ में चावल इस समय तीन रुपए किलो बिक रहा है। कांग्रेस ने जीतने पर इसे दो रुपए करने का दांव चला। भाजपा ने जो घोषणा-पत्र जारी किया उसमें इसे एक रुपए करने की बात कही। नक्सली हिंसा, बेरोजगारी, महंगाई और जन-जीवन से जुड़ी ढेरों समस्याओं को भूलकर प्रदेश में प्रमुख पार्टियां चावल की राजनीति कर
रही हैं।


मृगेंद्र पांडेय

धान के कटोरे में इस बार चावल की जंग चल रही है। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में सभी बड़े राजनीतिक दल जनता को सस्ता चावल देने की बात करके उन्हें लुभाने की फिराक में हैं। धान के कटोरे में सस्ते चावल की जंग अचानक कैसे शुरू हुई यह तो लोगों की समझ से परे है, लेकिन इतना तय है कि बेरोजगारी, गरीबी और शिक्षा को राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाए जाने से एक बड़ा वर्ग दोनों ही राजनीतिक दलों से खासा नाराज है। बहरहाल जिस भी राजनीतिक दल की चावल की चाल चल गई, समझो प्रदेश में उसकी दाल गल गई।

प्रदेश में भाजपा सरकार ने गरीबों को तीन रुपए किलो चावल देकर जनता में एक ऐसा संदेश देने की कोशिश की है कि वह उनकी सच्ची रहनुमा है, लेकिन प्रदेश में दाल, तेल, शक्कर और अन्य उपयोग की वस्तुओं की कीमतों को कम करने के लिए सरकार की ओर से कोई खास पहल नहीं की गई। इसके कारण एक बड़े वर्ग में खासा असंतोष है। प्रदेश में लोगों का यह मानना है कि क्या केवल चावल खाकर ही जिंदगी गुजारी जा सकती है। चुनाव में कांग्रेस जब भाजपा के तीन रुपए किलो चावल की काट नहीं खोज पाई, तो वह भी घिसी-पिटी राह पर चल पड़ी और दावा कर दिया कि अगर सरकार में आते हैं तो जनता को दो रुपए किलो चावल देंगे। भाजपा ने इससे एक कदम आगे बढ़कर अपने घोषणा पत्र में ही कह डाला कि प्रदेश की जनता ने उनको दोबारा सरकार बनाने का मौका दिया तो वे एक रुपए में चावल दिलाएंगे।

मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ को नया राज्य बने आठ साल हो गए हैं। इसमें तीन साल कांग्रेस का शासन रहा और बाकी पांच साल भाजपा ने राज किया। पहले चरण के चुनाव में आदिवासी बहुल सीटों से निपटने के बाद अब दोनों ही दलों का मुकाबला ग्रामीण वोटरों से होगा। यहां कांग्रेस और भाजपा दोनों की स्थिति लगभग बराबर है। ऐसे में चावल जसे मुद्दों से जनता को कौन सी पार्टी लुभाती है, यह कहना कठिन है। यहां के मतदाताओं के लिए चावल के अलावा भी कई ऐसे मामले हैं, जिन्हें रमन सरकार पूरा करने में असफल रही है। लोगों को शिक्षा देने के लिए हजारों स्कूल लोगों के सहयोग से खोल तो दिए गए हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी से निपटने के लिए कोई कारगर उपाय सरकार ने नहीं किया है। संविदा के आधार पर शिक्षकों को रखा गया है लेकिन उनमें भी खासा रोष है। वे नियमित करने की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस अगर उनके रोष को भुनाने में सफल हो जाती है तो उसके साथ पढ़े-लिखे लोगों का एक ऐसा वर्ग जुड़ जाएगा जो कांग्रेस की नैया को पार कराने में कारगर हो सकता है।

प्रदेश में बेरोजागरों की एक लंबी फौज है, लेकिन सरकार के पास इन लोगों के लिए कोई कारगर योजना नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों से भरे इस प्रदेश के युवा रोजगार न मिलने के कारण बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं। सरकार को इनको रोकने के लिए भी कोई योजना नहीं है। असंगठित क्षेत्र में छत्तीसगढ़ के लाखों मजदूर दूसरे प्रदेशों में काम कर रहे हैं, लेकिन सरकार को उनकी सुध नहीं है। कांग्रेस और भाजपा दोनों इन लोगों के लिए लोक-लुभावन वादे तो करती हैं लेकिन बाद में वह भूल जाती हैं।

प्रदेश में मुद्दे तो बहुत हैं, लेकिन न तो राजनीतिक दल और न ही कोई नेता इसके बारे में बात करने को तैयार है। ऐसा लगता है कि मानो लोगों को एक अच्छा समाज, एक अच्छी शिक्षा, एक बेहतर जीवन देने के बारे में कोई सोचने को तैयार नहीं है। अगर ऐसा ही रहा तो सरकार किसी की भी बने, जनता का भला होने वाला नहीं है।

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