आनंद प्रधान
समाचार चैनलों में अपराध की खबरों को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ता है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अपराध की खबरों को काफी जगह मिलती है. हिंदी के अधिकांश समाचार चैनलों पर अपराध के विशेष कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं. लेकिन अगर अपराध की वह खबर शहरी-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है. चैनलों के मौजूदा ढांचे में यह काफी हद तक स्वाभाविक भी है. अपराध की खबरों के प्रति चैनलों के अतिरिक्त आकर्षण को देखते हुए ऐसी खबरों में अतिरिक्त दिलचस्पी में कोई बुराई नहीं है बशर्ते चैनल उसे रिपोर्ट करते हुए पत्रकारिता और रिपोर्टिंग के बुनियादी उसूलों और नियमों का ईमानदारी से पालन करें.
लेकिन दिक्कत तब शुरू होती है जब चैनल ऐसी खबरों को ना सिर्फ अतिरिक्त रूप से मसालेदार और सनसनीखेज बनाकर बल्कि खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में वे रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते हैं. इस प्रक्रिया में उनके अपराध संवाददाता पुलिस के प्रवक्ता बन जाते हैं. वे पुलिस की आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग के आधार पर ऐसी-ऐसी बे-सिरपैर की कहानियां गढ़ने लगते हैं कि तथ्य और गल्प के बीच का भेद मिट जाता है. क्राईम स्टोरीज खबर कम और ‘स्टोरी’ अधिक लगने लगती हैं. चैनलों और उनके रिपोर्टरों का सारा जोर तथ्यों से अधिक कहानी गढ़ने पर लगने लगता है.
सचमुच, इस मायने में चैनलों का कोई जवाब नहीं है. सबसे ताजा मामला दिल्ली की युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की मौत का है. निरुपमा अपने एक सहपाठी और युवा पत्रकार प्रियभांशु रंजन से प्रेम करती थीं और दोनों शादी करना चाहते थे. लेकिन निरुपमा के घरवालों को यह मंजूर नहीं था. निरुपमा की २९ अप्रैल को अपने गृहनगर तिलैया (झारखण्ड) में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी जो बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘हत्या’ निकली. इसे स्वाभाविक तौर पर “आनर किलिंग” का मामला माना गया जिसने निरुपमा के सहपाठियों, सहकर्मियों, शिक्षकों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महिला-छात्र संगठनों को आंदोलित कर दिया.
हालांकि उसके बाद पूरे मामले में कोडरमा पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक दबावों में काम करने के कारण पुलिस जांच ना सिर्फ सुस्त गति से चल रही है बल्कि पूरी जांच को भटकाने/बिगाडने की कोशिश की जा रही है. ऊपर से हत्या के आरोप में जेल में बंद निरुपमा की माँ के परिवाद पर स्थानीय कोर्ट के इस निर्देश के कारण मामला और पेचीदा हो गया है कि पुलिस निरुपमा के दोस्त प्रियभांशु पर रेप, धोखा, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे संगीन आरोपों में मामला दर्ज करके जांच करे.
स्वाभाविक तौर पर अधिकांश चैनलों ने निरुपमा मामले को जोरशोर से उठाया. हालांकि अधिकांश चैनलों की नींद निरुपमा की मौत के चार दिन बाद तब खुली जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हत्या की बात सामने आने के बाद एन.डी.टी.वी और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता से उठाया. ऐसा नहीं है कि चैनलों के रिपोर्टरों को घटना की जानकारी नहीं थी. निरुपमा देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की छात्रा रही थी. इस संस्थान के छात्र सभी चैनलों और अखबारों में हैं. निरुपमा और प्रियाभांशु के दोस्तों ने बहुतेरे चैनलों/अखबारों को निरुपमा की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत के बारे में बताया था लेकिन किसी ने कोई खास दिलचस्पी नहीं ली.
असल में, चैनलों के साथ एक अजीब बात यह भी है कि जब तक किसी खबर को उसके पूरे पर्सपेक्टिव के साथ दिल्ली का कोई बड़ा अंग्रेजी अखबार जैसे इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आफ इंडिया, एच.टी या हिंदू अपने पहले पन्ने की स्टोरी नहीं बनाते हैं, चैनल आमतौर पर उस खबर को छूते नहीं हैं या आम रूटीन की खबर की तरह ट्रीट करते हैं. लेकिन जैसे ही वह खबर इन अंग्रेजी अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाती है, चैनल बिलकुल हाइपर हो जाते हैं. चैनलों में एक और प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश समाचार चैनल किसी खबर को पूरा महत्व तब देते हैं, जब कोई बड़ा और टी.आर.पी की दौड़ में आगे चैनल उसे उछालने लग जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि चैनलों की यह भेड़चाल अब किसी से छुपी नहीं राह गई है.
निरुपमा के मामले भी यह भेड़चाल साफ दिखाई दी. पहले तो चैनलों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट, निरुपमा के पिता की चिट्ठी, निरुपमा के एस.एम.एस और प्रियाभांशु के बयानों के आधार पर इसे ‘आनर किलिंग’ के मामले के बतौर ही उठाया लेकिन जल्दी ही कई चैनलों के संपादकों/रिपोर्टरों की नैतिकता और कई तरह की भावनाएं जोर मारने लगीं. खासकर प्रियाभांशु के खिलाफ स्थानीय कोर्ट के निर्देश और पुलिस की आफ द रिकार्ड और सेलेक्टिव ब्रीफिंग ने इन्हें खुलकर खेलने और कहानियां गढ़ने का मौका दे दिया. अपराध संवाददाताओं को और क्या चाहिए? पूरी एकनिष्ठता के साथ वे प्रियाभांशु के खिलाफ पुलिस द्वारा प्रचारित आधे-अधूरे तथ्यों और गढ़ी हुई कहानियों को बिना किसी और स्वतन्त्र स्रोत या कई स्रोतों से पुष्टि किए या क्रास चेक किए तथ्य की तरह पेश करने लगे.
दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. क्राईम रिपोर्टर पुलिस के अलावा और कुछ नहीं देखता है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलता है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनता है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.
इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है.
यह ठीक है कि क्राईम रिपोर्टिंग में पुलिस एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन उसी पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने का मतलब है कि रिपोर्टर ने अपनी स्वतंत्रता पुलिस के पास गिरवी रख दी है. दूसरे, यह पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत यानी हर खबर की कई स्रोतों से पुष्टि या क्रास चेकिंग का भी उल्लंघन है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.
3 comments:
ये पीत पत्रकारिता तो जाने कब तक चलेगी ............
लेकिन आम जनता तो इनका बहिष्कार कर सकती है न
आखिर इन गपोड़ियों को हवा कहाँ से मिलती है ?
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
मिडिया के प्रति आपके विचारों से सहमत |
मेरे विचार में भी मिडिया को सिर्फ खबर देने तक ही सीमित रहना चाहिए पर मिडिया तो हर मामले में पुलिस की भूमिका में नजर आने लगता है जो गलत है निंदनीय है |
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