मृगेंद्र पांडेय
जनता सब जानती है। विकास और विकास के दावों में अंतर भी उसे बखूबी पता है। यही कारण है कि पांच राज्यों में जिन नेताओं ने विकास को तरजीह दी, उन्हें जनता ने एक बार फिर कमान सौंपी। उन नेताओं को जो सिर्फ आक्रामक प्रचार और बयानबाजी में उलङो रहे उनके परिणामों को भी जनता ने उलझन में डाल दिया। यह मतदाताओं के बदलते मिजाज का संकेत है।
शांत सौम्य माने जाने वाली शीला दीक्षित हों या फिर छत्तीसगढ़ के रमण सिंह, दोनों को ही जनता ने एक बार फिर कमान सौंपी है। शीला को लेकर तो भाजपा इस कदर आश्वस्त थी कि अब वह दिल्ली की गद्दी पर विराजमान नहीं होंगी, लेकिन शीला के विकास और जनता के विश्वास के सहारे वह एक बार फिर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गईं।
छत्तीसगढ़ में विकास पुरुष की छवि बनाए रखने वाले रमन सिंह का अजीत जोगी का आक्रामक प्रचार भी नुकसान नहीं कर पाया। पांच साल सरकार में रहने के बावजूद किसी प्रकार के भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त रहना उनकी सबसे बड़ी कामयाबी रही। मध्यप्रदेश में घोटालों के आरोपों में घिरे शिवराज ने भी कभी आक्रामकता को तरजीह नहीं दी। संघ का समर्थन और समर्थकों के लगातार संपर्क में रहने का परिणाम है कि वे एक बार फिर सरकार बनाने वाले हैं। पिछले चुनाव में भाजपा को सत्ता में पहुंचाने वाली उमा भारती का नगाड़ा भी नहीं बजा। शिवराज सरकार पर लगाए गए उनके आरोपों को जनता ने नकार दिया। इसका परिणाम रहा कि वे अपनी सीट भी नहीं बचा पाईं।
राजस्थान में गुर्जर-मीणा संघर्ष, पानी के लिए किसानों का आंदोलन, महलों को बेचने का मामला और विरोधी दलों के ‘एट पीएम नो सीएमज् के नारे ने वसुंधरा राजे को बाहर कर दिया। यहां भी वसुंधरा ने आक्रामक प्रचार किया, लेकिन जब उनके विरोध की कमान पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने संभाली तो मामला एकदम पलट गया। गहलोत ने बिजली, पानी, शराब की दुकानों के साथ स्थानीय मामले को जिस बेबाकी से रखा, उससे वसुंधरा की हवा निकल गई।
परिणाम आने से पहले माना जा रहा था कि भाजपा को इस गढ़ से बाहर निकालना काफी मुश्किल होगा, लेकिन नतीजों ने सभी को एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाले चुनावों में बड़ी संख्या में आ रहे अपराधियों और बहुबलियों का सफाया भी हो सकता है। यही लोकतंत्र को और मजबूत करने में कारगर भी होगा।
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