Saturday, December 13, 2008

रमन की छवि सब पर भारी

मृगेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार नहीं, यह रमन सिंह की जीत है। उनके पांच साल के कार्यकाल की जीत है। उनकी स्वच्छ छवि और कल्याणकारी योजनाओं की जीत है। प्रदेश में कांग्रेस मुकाबले में तो थी, लेकिन प्रत्याशियों के चयन में हुई बंदरबांट ने लुटिया डूबाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

अजीत जोगी को छोड़कर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष, युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और उन सभी बड़े नेताओं को हार का सामना करना पड़ा, जिन पर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनवाने का दारोमदार था। सलवा जुडूम से आदिवासियों की नाराजगी को भी कांग्रेस वोट में बदलने में सफल नहीं हो पाई।


भाजपा अपने किसी भी मुख्यमंत्री से नरेंद्र मोदी जसी जीत की उम्मीद तो नहीं करती लेकिन छत्तीसगढ़ में पार्टी की लगातार दूसरी जीत से रमन सिंह का कद जरूर ऊंचा हुआ है। भाजपा के रमन सिंह ही हैं, जिन्होंने लगातार पांच साल न सिर्फ सरकार चलाई, बल्कि प्रदेश में कांग्रेस के हाथ कोई बड़ा मुद्दा भी नहीं लगने दिया, जिससे की सरकार को कोई संकट आए। पूरे पांच साल कांग्रेस मुद्दों के लिए भटकती रही। कांग्रेस के कमजोर संगठन ने भी इसमें सहयोग किया। कांग्रेस में गुटबाजी इस कदर थी कि चरणदास महंत को प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिया गया था, लेकिन उनकी कार्यकारिणी का गठन भी अंत तक नहीं हो पाया।

चुनाव से ऐन पहले पार्टी ने दूसरी पंक्ति के नेता धनेंद्र साहू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर रही सही कसर पूरी कर दी। प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू और कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनाराण शर्मा अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। सलवा जुडूम के समर्थक महेंद्र कर्मा को आदिवासी जनता ने सबक सिखा दिया है। वह दांतेवाड़ा सीट पर तीसरे पायदान पर चले गए।


युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष योगेश तिवारी तो लगभग 25 हजार से ज्यादों वोटों से हारे। कांग्रेस ने परिवारवार के आधार पर जितने भी लोगों को टिकट बांटे थे उसमें पिछला चुनाव हारने वाले श्यामाचरण शुक्ल के बेट अमितेश ही जीत दर्ज कराने में सफल हो पाए। कांकेर से प्रीति नेताम, दुर्ग ग्रामीण से अरुण वोरा, डुंगरगांव से गीतादेवी सिंह सहित बड़ी संख्या में लोग हारे। भाजपा ने भी बड़ी संख्या में परिवारवाद के आधार पर टिकट बांटे, लेकिन उनमें से अधिकांश ने जीत दर्ज की। लखीराम अग्रवाल के बेटे अमर अग्रवाल, बलीराम कश्यप के बेटे केदार कश्यप की जीत ने पार्टी को उस आरोप से मुक्त कर दिया, जिसमें यह कहां जा सकता है कि परिवारवाद नहीं जीत के आधार पर उम्मीदवारों को टिकट बांटे।


प्रदेश में राजनीतिक अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे अजीत जोगी के लिए यह हार काफी मायने रखती है। वह खुद और रेणू जोगी को जिताने में सफल तो हुए लेकिन कांग्रेस की हार उनके सामने मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। एक बार फिर विरोधी हार के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी ने भले ही उनको मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया हो लेकिन लड़ तो वहीं रहे थे। वहीं कांग्रेस में एक बार फिर वापस आए विद्याचरण शुक्ल के लिए भी यह चुनाव उतना ही महत्वपूर्ण था, जितना अजीत जोगी के लिए। ऐसा माना जा रहा था कि प्रदेश चुनाव में उनके तीन उम्मीदवारों को पार्टी ने टिकट दिया है। इसमें से कुलदीप जुनेजा को छोड़कर बाकी दो को हार का सामना करना पड़ा है। प्रदेश में कांग्रेस की हार से उनके राजनीतिक भविष्य पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं।

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