Thursday, December 18, 2008

दलाई युग का अर्द्ध अवकाश

मृगेंद्र पांडेय

तिब्बत की स्वायत्तता के संघर्ष को एक मुकाम तक पहुंचाने वाले दलाई लामा ने अर्द्ध अवकाश पर जाने का फैसला किया है। दलाई, जिनके प्रयासों ने विश्व का ध्यान तिब्बत की ओर आकर्षित किया, उन्होंने यह फैसला ढलती उम्र के कारण लिया। ऐसा नहीं है कि अवकाश पर जाने के बाद दलाई तिब्बत की स्वयत्तता के लिए चलने वाले आंदोलन में अपना सहयोग देना बंद कर देंगे, लेकिन यह सवाल सभी के मन में उठने लगा है कि आखिर दलाई के बाद इस आंदोलन की अगुवाई कौन करेगा। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि अब तक किसी भी तिब्बती नेता ने दलाई जसी तो अंर्तराष्ट्रीय स्तर लोकप्रियता प्राप्त की है और ही स्थानीय लोगों का सर्वमान्य समर्थन मिला है।

 

 

तिब्बत की निर्वासित सरकार जो धर्मशाला में रह रही है, उसके प्रधानमंत्री सैमदोंग रिंगपोंछे काफी सक्रिय हैं। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात रखने में सक्षम हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता दलाई की लोकप्रियता के आगे नहीं टिक पाती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी बातों को उतनी तव्वजो नहीं दिये जाने का डर लोगों के मन में है, जितनी दलाई की बातों को मिलती थी। दलाई के साथ अपने संबंधों को भारत ने जितनी बखुबी से निभाया, वह आने वाले समय में जारी रहेगी, यह कह पाना मुश्किल नजर रहा है।

ओलंपिक खेलों के दौरान जब तिब्बतियों का आंदोलन पूरे विश्व में जोरों पर था, भारत में आंदोलन को हिंसक नहीं होने दिया गया। जबकि विश्व के कई देशों में तिब्बत के समर्थन में हिंसक प्रदर्शन हुए और कई लोगों ने अपनी जान भी गंवाई। भारत में हिंसक प्रदर्शन नहीं होने के कारण चीन ने बधाई भी दी थी। यह एक बदलते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का सूचक है।

 

 

तिब्बत के लिए दलाई का आंदोलन अहिंसा पर आधारित था। वह नहीं चाहते थे कि स्वयत्तता प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार की हिंसा की जरूरत है। यही कारण है कि यूरोपीय संघ दलाई की बातों को खासा महत्व देता था। दलाई की फ्रांस यात्रा के दौरान राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी से जो बातचीत हुई वह काफी सकारात्मक थी और उन्होंने आश्वासन भी दिया था कि वह तिब्बतियों की भावनाओं को यूरोपीय संघ में पहुंचाएंगे। 

 

लेकिन हाल के कुछ वर्षो में तिब्बत में एक ऐसा वर्ग तेजी से उभरा है, जो स्वायत्तता नहीं पूर्ण आजादी का पक्षधर है। ऐसे में लोगों के मन में यह डर घर करने लगा है कि अंहिसा को मूल में लेकर तिब्बत की स्वयत्तता के लिए शुरू किया गया दलाई का यह आंदोलन कहीं भटक जाए और हिंसक रूप अख्तियार कर ले। आंदोलन के हिंसक रूप लेने के बाद इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में तिब्बत को लेकर जो सहानुभूति है, उसे बदलते देर लगे। इसका खामियाजा तिब्बत और वहां के लोगों को ही उठाना पड़ेगा। वह समय ऐसा होगा जब तिब्बत के पास तो कोई सर्वमान्य नेता होगा और ही दलाई लामा। क्योंकि दलाई लामा तो सदियों में एक बार ही पैदा होते हैं।

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