नवनीत गुर्जर
शरद जोशी ने लिखा था- देश में नदियां होती हैं। नदियों पर पुल बने होते हैं। पुल इसलिए होते हैं, कि नदियां उनके नीचे से निकल सकें। कहा जा सकता है कि राजस्थान में लोग होते हैं। लोगों की एक सरकार होती है। सरकार इसलिए होती है कि कुछ लोग आंदोलन कर सकें और वे आंदोलनकारी बाकी लोगों के जीवन की तमाम पटरियां उखाड़ सकें।
दरअसल, आंदोलन तेज होने पर जो सरकार शांति की अपील और वार्ताओं के दौर चलाने में जितनी मुस्तैदी दिखाती है, वही सरकार आंदोलन खत्म होने पर उतनी ही सुस्त हो जाती है। कहते हैं- बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है। सरकारें ही आंदोलनकारियों के क्रोध को बैर में तब्दील करती हैं। बैर भी इस हद तक, कि एक गुर्जर मंत्री अपना इस्तीफा सौंपकर उन्हें मनाता है, वे तब भी नहीं मानते।
गुर्जरों का कहना है कि उनके साथ अन्याय, घोर अन्याय हुआ है। अगर गुर्जरों की ही मानें, तो क्या पूरे भारत या पूरे राजस्थान की, समूची व्यवस्था ही अन्यायपूर्ण है? गुर्जरों के संदर्भ में यह तर्क हो सकता है। ...लेकिन पूरे राजस्थान के संदर्भ में यह कुतर्क है।
राज्य सरकार का कहना है कि वह गुर्जरों की पीड़ा से सहमत है और जल्द ही इसका हल करने को तत्पर। हकीकत यह है कि एक सरकार गई। दूसरी आ गई। लेकिन दोनों की तत्परता पांच साल से बेपरवाही की किसी सूखी बावड़ी से पानी भरती रही।
...तो क्या राजस्थान के गुर्जरों की समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर की तरह है?...और क्या बैसला, बैसला नहीं, अमानुल्ला खां हैं, जो आधे कश्मीर पर राज करने को स्वतंत्र हैं? और हम सब किंकर्तव्यविमूढ़?
नहीं। ऐसा नहीं है। कतई नहीं। सरकारें वादे करती रहीं। पूरे किसी ने नहीं किए। न उस सरकार ने। न इस सरकार ने। पूरे राज्य की सांस अटकाने के लिए दोषी बैसला हैं, तो सरकार भी है। हम राजस्थानियों का न्यू ईयर बिगाडऩे के दोषी बैसला हैं तो उतनी ही जिम्मेदार सरकार भी है। ये सरकार भी। वो सरकार भी। बैसला को शायद इसलिए ज्यादा जिम्मेदार कहा जा सकता है कि आंदोलन से पाई प्रसिद्धि को उन्होंने एक राजनीतिक दल के टिकट के रूप में भुनाना चाहा। हैरत इस बात की है कि ऐसे आंदोलनों में भी सत्ता में बैठे दल आम आदमी के बारे में सोचने के बजाय आंदोलन से उभरते नेताओं में अपनी पार्टी की एक लोकसभा सीट ढूंढ़ते नजर आते हैं।
बड़ी हैरत इस बात की है कि छोटे से लेकर शीर्ष पदों तक जातीय गणित देखने वाली सरकार के पास किसी जातीय आंदोलन से दो-चार होने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। दरअसल, ऐसी स्थितियां तब होती हैं जब सरकार खुद कोई निर्णय लेने के बजाय हर स्थिति में व्यवस्था के किसी और तंत्र के आदेश के लिए उतावली लगती है। निश्चित तौर पर वह तंत्र सर्वमान्य है। लेकिन सरकार भी तो कुछ करे! अगर नहीं करना चाहती, तो उसकी जरूरत ही क्या? वह है ही क्यों?
लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर हैं
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