नवनीत गुर्जर
मौजूदा स्थिति भयावह है। सरकारी बयान। घोषणाएं। फैसले। इन सब को एक साथ देखें तो गुर्जरों का आरक्षण हिमालय से कम नहीं। ऊपर। बहुत ऊपर। चारों तरफ बर्फ है। ...और सबसे ऊंची चोटी पर पड़ी हैं नौकरियां। सरकार उनकी तरफ एक कल्पनातीत (नोशनल नहीं लिखने के लिए क्षमा सहित) इशारा तो कर रही है। ...लेकिन उस ऊंची चोटी, जहां आरक्षण चमचमा रहा है। हिमालय का वह शिखर जहां काल्पनिक नौकरियां पड़ी बर्फ फांक रही हैं, उसका रास्ता कोई सरकारी गोमती नहीं बताती।
हिमालय की अपनी मर्यादा है। वह झुक नहीं सकता। सरकार और उसके तंत्र की अपनी आदत है। वह राजनीति से बाज नहीं आ सकता। ऐसे में गुर्जरों के पास आरक्षण हासिल करने या नौकरियां पाने के लिए हिमालय पर चढऩे के अलावा चारा क्या है? यहां तमाम आंदोलनकारियों और इस आंदोलन से परेशानी उठा रहे लोगों के पास समाधान का एक ही रास्ता है। उस ऊंची चोटी से कोई गंगा निकले और आरक्षण या नौकरियां पिघलकर नीचे आ जाएं। गुर्जर तो पटरी से हटने को तैयार बैठे हैं। ...तो देर किस बात की। याद कीजिए-महान कवि दुष्यंत, और उनकी यह कविता...
‘हो गई है पीर पर्वत-सी
पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा
निकलनी चाहिए।’
लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर हैं
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