Wednesday, February 6, 2008

अर्थनीति बनाम राजनीतिः कैसे सधे दोऊ..!

बजट का संबंध आर्थिक नीति से होता है या राजनीति से? आप आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं तो कहेंगे कि राजनीति बाद में, आर्थिक नीति पहले और, अगर नेता हैं तो कहेंगे आर्थिक नीति बाद में देख लेंगे, पहले देखो कि इससे हमारी राजनीति न बिगड़ जाए.

गलती से कहीं आप मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम हैं तो दोनों में संतुलन साधने की चुनौती आपके सामने है. कहते हैं कि अच्छी अर्थनीति अच्छी राजनीति भी हो यह जरूरी नहीं है. लेकिन जनतंत्र में जो यह नहीं पर पाएगा उसकी अर्थनीति और राजनीति दोनों बिगड़ जाएगी. इस बात का एहसास मनमोहन सिंह से ज्यादा और किसे होगा.

भारत में मनमोहन सिंह और पीवी नरसिंहराव की जोड़ी, आर्थिक उदारीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण के जनक हैं. 1991-92 में शुरू की गई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को घोर संकट से उबार लिया बल्कि उसे विकास के हाईवे पर डाल दिया.

पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की इस कामयाबी ने देश और दुनिया में खूब झंडे गाड़े. पांच साल बाद आम चुनाव हुए तो कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर लोकसभा का चुनाव नहीं जीत पाए.

कांग्रेस की हार में सबसे बड़ा योगदान आर्थिक नीतियों का था. वह भी ऐसे हालात में जब इन नीतियों को लेकर वामदलों के अलावा किसी का विरोध नहीं था. वामदलों का विरोध भी दिल्ली में सुनाई देता है और कोलकाता पहुंचत-पहुंचते उसकी दिशा बदल जाती है.

पिछले डेढ़ दशक में आर्थिक उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को विससित देशों के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की है. इसके बावजूद जो भी उदारीकरण का चैंपियन बना, उसे जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

कर्नाटक में एसएम कृष्णा, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और केंद्र में इंडिया शाईनिंग का नारा लगाकर भारतीय जनता पार्टी अब तक पछता रही है. पर यह भी सच है कि न तो भाजपा ने कांग्रेस की दुर्दशा से सबक सीखा और न ही कांग्रेस ने भाजपा की हार से.

हालांकि सत्ता में आने से पहले कांग्रेस ने जब राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाया उस समय लग रहा था कि कांग्रेस इस बार पुरानी गलती नहीं दोहराएगी. करीब चार साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी फिर वहीं खड़ी है जहां 1996 में थी.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कह रही हैं कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ठीक से लागू नहीं हुई. राहुल गांधी कह रहे हैं कि योजनाओं के एक रुपए का केवल पांच पैसा जरूरतमंद तक पहुंच रहा है.

मनमोहन सिंह सरकार के इस कार्यकाल का यह आखिरी बजट होगा. वित्तमंत्री पी चिदंबरम जब बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे तो उनके सामने अपने पहले ड्रीम बजट की यादें होंगी या आम आदमी के सपने.

साढ़े आठ फीसदी की विकास दर, तरक्की करता सेवा क्षेत्र, उत्पादन बढ़ाता औद्योगिक क्षेत्र और प्रत्यक्ष कर से लबालब वित्तमंत्री की झोली, ये सब तथ्य क्या देश के 44 फीसदी ग्रामीणों के घरों को रौशन कर सकते हैं.

भारतीय नमून सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 74 फीसद ग्रामीण घरों में अब भी उपले और लकड़ी पर खाना बनता है. वित्तमंत्री पेट्रोल और डीजल पर कितनी सब्सिडी दे रहे हैं, इससे इनलोगों को क्या मतलब..?

बात केवल गांव की नहीं, शहर में भी गरीब के हालात बहुत अलग नहीं हैं. शहरों में 22 फीसदी लोग रोजाना 19 रुपए प्रतिव्यक्ति ही खर्च करने की हैसियत रखते हैं.

प्रधानमंत्री के तमाम आश्वासनों और पैकेज के बावजूद किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही. बुंदेलखंड में पानी से बेहाल लोग पलायन कर रहे हैं फिर भी अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की रफ्तार से दौड़ रही है.

विकास के इन आंकड़ों का हाल मुद्रास्फीति की दर की तरह है जो आंकड़ों में घटती है तो वास्तविकता में महंगाई बढ़ती है.

आर्थिक नीतियां हों या बजट घोषणाएं, कोई सरकार आज तक इनके बूते चुनाव नहीं जीती है. हां, चुनाव हारने वालों की लंबी फेहरिस्त है. इंदिरा गांधी 1971 में आर्थिक नीतियों के कारण नहीं गरीबी हटाओ के नारे पर जीती थीं. महंगाई कम करके भी जनता पार्टी चुनाव हार गई थी.

मनमोहन सिंह, चिदंबरम और कांग्रेस पार्टी को यह सब पता है. अच्छी आर्थिक नीति को अच्छी राजनीति बनाने की दिशा में ग्रामीण रोजगार गारंटी और भारत उदय योजना शुरू की गई थी.

पर योजना बनाना और उसे लागू करना दोनों अलग बातें हैं. ऐसी सारी योजनाएं भ्रष्ट तंत्र के लिए कमाई के नए अवसर लाती है. अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही कांग्रेस भी शायद बजट के सहारे चुनाव जीतना चाहती है और उसके विरोधी इसी के आधार पर उसे मात देना चाहते हैं.

इसलिए बजट पर सरकार के घटक दलों की नजर है तो विरोधियों की भी.

इन चार सालों में कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वामदल चिदंबरम की बलि लेकर ही मानेंगे. बजट बनाते समय वित्तमंत्री को अर्थव्यवस्था की विकास दर, बजट घाटे, वामदलों की इच्छा, विरोधियों की आलोचना और अपनी पार्टी की चुनावी सभाओं का ध्यान रखना होगा.

अर्थशास्त्री भविष्य की सोचता है तो राजनेता अगले चुनाव की. मनमोहन सिंह जब चिदंबरम के बजट प्रस्ताव को मंजूर करेंगे तो उनके अंदर का अर्थशास्त्री हावी होगा या पिछले चार सालों की राजनीति का अनुभव.

क्योंकि अच्छा बजट बनाना और चुनाव जीतना, दोनों अलग-अलग विधाएं हैं. यह बजट देश की अर्थव्यवस्था की दिशा ही तय नहीं करेगा, कांग्रेस की राजनीतिक दशा भी तय करेगा.




प्रदीप सिंह

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

अर्थ नीति ही प्रमुख है। बस वोट की खातिर थोड़ी राजनीति तो दिखानी ही पड़ती है. और वर्ड वेरीफिकेशन क्या है। मशीनें तो आप के ब्लॉग को पढ़ने और टिप्पणी करने से रही। बाकी लोग भी नहीं करेंगे। कम से कम इस के हट ने तक तो नहीं।