Sunday, February 3, 2008

कितना आसान होता है...

कितना आसान होता है
एसी कमरों में बैठकर
सोचना
भूख,
गरीबी,
बेकारी
को दूर करने की।
क्या घिनौना नहीं लगता
ये सब?
चबाते हुए चिप्स
पीते हुए
क‍ाफी
क्या इन्हें ध्यान नहीं आते
वे बच्चे
जो तड़पते हैं भूख से
कालाहांडी, सीतामढ़ी
और पलामू में
जिनके भूखे चेहरे
तड़पती आंते
टिकी होती हैं सिफॆ रोटी पर
और
रोटियां,
खड़ा कर देती हैं इन्हें,
मौत के द्वार पर
छीन लेती है
उनसे
उनकी सांसें
खत्म कर देती है
उनकी भूख
क्योंकि वे
मर चुके होते हैं
और इसके बाद
कितना आसान होता है
एसी कमरों में बैठकर
चर्चा करना
उन मौतों पर
जो होती हैं भूख से
क्या घिनौना नहीं लगता
ये सब?
मखमली बिस्तरों में
खर्राटें भरते
लोग
क्यों नहीं सुन पाते हैं
सिसकियां
कंपकपाहट
उन लोगों की,
जो फटा चद्दर या कंबल लपेटे
सोते हैं
सदॆ रातों में
फुटपाथ पर
और
अक्सर कुचले जाते हैं
चमचमाती गाडि़यों से
और फिर
उनकी मौत को ढका जाता है
रुपयों के बोझ तले
जान और रुपए की जंग में
जब जीतता है रुपया
तो
क्या
घिनौना नहीं लगता ये सब?


प्यारे दोस्त दुष्यंत को समपित जिसकी कटु आलोचनाएं हमें हमेशा कुछ नया करने की सीख देती रहेंगी


विष्णु सोनी

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