Wednesday, February 13, 2008

एक निर्माणाधीन राष्ट्र के ये अल्ग्योझी भूमिकुपुत्र !!- भाग-1

बंबई में हाल के घटनाक्रमों ने जो चिंता देश के बुद्धिजीवियों और समझदार नागरिकों के मन में पैदा की है उससे उबरने के लिए कोरी राजनीतिक टीका-टिप्पणियों या तात्कालिक स्वार्थ के लिए आरोप-प्रत्यारोपों की नहीं बल्कि इन निंदनीय स्वार्थों से ऊपर उठकर कुछ ड़े साहसिक कदम और कुछ दूरगामी स्वस्थ राजनीतिक समाजीकरण के प्रयासों की ज़रूरत है.

वक्त आ गया है कि देश की एकता-अखंडता अक्षुण्ण रखने की शपथ लेने वाले हमारे राजनीतिक नेता राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का मतलब समझें वरना आने वाली पीढ़ियाँ जब भारत नाम के इस निर्माणाधीन राष्ट्र की निर्माण यात्रा का इतिहास लिखेंगी तो इनमें इनकी भूमिका किस रूप में दर्ज़ होगी इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं.

एक अंतर्राष्ट्रीय अंग्रेजी जर्नल में भारत के दूसरे विभाजन की आशंका जताई गई है. चूँकि यह मसला बेहद संवेदनशील है इसलिए यहाँ केवल इस बात का ज़िक्र करना उचित होगा कि इस सशक्त लेख में लेखक ने भारतीय समाज और राजनीति के सांप्रदायिक चरित्र को इसका आधार बनाया है. लेकिन प्रांतीयतावाद, संजातीय भाषिकतावाद (एथनोलिंग्विज़्म) और देसीवाद या मूलवाद (नेटिविज़्म) की जो लहर पिछले कुछ दशकों से सामने आ रही है और इससे निपट पाने में जिस तरह से हमारी तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ नाकाम रही हैं वह दिन दूर नहीं जब इस आधार पर भी देश में नई विभाजनकारी ताकतें सक्रिय हो जाएँ और हमारे संघीय ढाँचे का ही अस्तित्व खतरे में पड़ जाए.

राज्य पुनर्गठन का भाषिक आधार: ज़हर वही, शीशी नई

कई बार अपने निजी जीवन के अतीत को गुलाबी शीशे से देखने की प्रवृत्ति हमारे राजनीतिक विकासक्रम को देखने की प्रक्रिया में भी हम पर हावी रहती है. जैसे कि भारत नाम के इस भौगोलिक इकाई के राष्ट्र बनने की कहानी में 1947 के विभाजन को ही एक मात्र गहरे जख़्म के रूप में परोसने की प्रवृत्ति आम तौर पर राजनीतिक टिप्पणीकारों में पाई जाती है. इसे हमारी अज्ञानता कहें या अपने परिवार की बुराइयों पर पर्दा डालने की प्रवृत्ति कि हमने भाषा, संस्कृति, और जन्म और संजातीयता के आधार पर बाँटनेवाली प्रवृत्तियों को भी हमारी राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थापित होने दिया. और आज जब यह भस्मासुर अपने फासीवादी रंग-ढंग से हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही भस्म करने की ओर अग्रसर है तो हमें भागने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा.

ऊपर की पंक्तियों से यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि भाषा या जनजाति के आधार पर राज्य के पुनर्गठन के मांगों को सख़्ती से कुचल दिया जाना चाहिए था. कोई भी राष्ट्र अपने शुरुआती दौर में इन दुविधाओं से गुजरता है और यह जिम्मेदारी उस देश के नेतृत्व की होती है कि वह सभी वर्गों और क्षेत्रों का विश्वाश जीतकर उसे मुख्यधारा में लाने का प्रयास करें. हम संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह 'मेल्टिंग पॉट' नहीं हो सकते थे. इस बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में होमोजिनीटी या एसिमिलेटरी तरीकों पर बल दिए जाने की बजाए 'विविधता में एकता' का मार्ग ही सही हो सकता था और ज़ुमलों में ही सही हमने इसे अपनाया भी. भारतीय राज्य का यह सांस्कृतिक एजेंडा सफल हो भी सकता था यदि राजनेताओं ने विज़नरी स्टेट्समैन की भाँति अपनी भूमिका अदा की होती. सरदार पटेल की तुलना हम बिस्मार्क से करके खुश हो लें या जॉर्ज वाशिंगटन जैसे किसी नेतृत्व की कमी का रोना रो लें, पाठक जानते हैं हमारी एतिहासिक परिस्थितियाँ अलग थीं, आज़ादी हासिल करने का हमारा तरीका अलग था. राज्यों के एक संघ को खड़ा करने में पेश आनेवाली हमारी चुनौतियाँ भी कई मायनों में अलग थीं.

एक हिस्टोरिकल एजेंट के रूप में सरदार पटेल और नेहरू हमारे आज के राजनेताओं से कहीं अधिक दूरदर्शी थे. भिन्नताओं और उपराष्ट्रवादी उभारों से आशंकित एक राष्ट्र और समाज को एकता के सूत्र में पिरोने और इसे मज़बूत बनाने के एक दीर्घावधि के लक्ष्य का उन्हें एहसास था. हालाँकि यह दौर इतना उथल-पुथल भरा था कि कई एतिहासिक भूलें भी हुईं.

कुछ एतिहासिक तथ्यों पर निगाह डालने से बातें और स्पष्ट होंगी. बंगाल विभाजन के तीव्र भावनात्मक प्रतिरोध को ज़्यादा दिन नहीं हुए थे जब भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने 1920 के दशक से ही भाषा के आधार पर अपने काँग्रेस सर्कल का गठन करना शुरु कर दिया था. तीस के दशक के आखिर में देशी राज्यों में सक्रिय "प्रजा मंडल" तो वास्तव में कांग्रेस का ही छद्म संगठन था. इसलिए एक संघीय भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर होने के तर्क को मानने के लिए वह बाध्य थी. लेकिन ऐसे पुनर्गठन के प्रति विरोध के स्वर और उनमें छिपी आशंकाओं का जायजा लेना अभी ज्यादा प्रासंगिक है.

1947 के बाद दक्षिण भारत में मचे कोहराम ने राष्ट्रीय नेताओं की नींद हराम कर रखी थी. मद्रास का द्रविड़ियन आंदोलन केवल तमिलों के अलग होमलैंड की मांग नहीं थी वह समस्त दक्षिण भारत को ही भारतीय यूनियन से अलग करने की मांग थी. भाषायी राज्यों के प्रति आशंका का यह एक बड़ा कारण था. भाषाएँ भी कम संख्या में तो थी नहीं. राष्ट्रीय नेताओं को विभाजन के बाद के और भी कई बल्कनाइजेशन के खतरे दिखने शुरु हो गए थे. उत्तर-पूर्व में भी अलगाववाद जोरों पर था. ऐसे में 'भाषायी प्रांत' का विचार इतना जोख़िम भरा जान पड़ा कि कई उच्च-स्तरीय कमिटियाँ बिठाई गईं. सरकार द्वारा गठित कमीशन के मुखिया न्यायाधीश एस. के. डार ने कहा था- "राष्ट्रवाद और उप-राष्ट्रवाद दो ऐसे भावनात्मक अनुभव होते हैं जो एक-दूसरे की कीमत पर ही फलते-फूलते हैं."

कांग्रेस पार्टी द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति के दो सदस्य सरदार पटेल और नेहरू ने भी "सांप्रदायिकतावाद, प्रांतीयतावाद और दूसरे अलगाववादी और अशांतिकारक प्रवृत्तियों को कड़ाई से हतोत्साहित करने" की बात कही थी. दोनों ही समितियों की सिफारिश "भाषायी राज्यों" के गठन के खिलाफ थी. आशंकाएँ केवल राजनेताओं के ज़ेहन में नहीं थीं बल्कि समाज विज्ञानी और राजनीति के पंडित भी इसे भारतीय राष्ट्र के खंड-खंड में बँटने के बीज के रूप में देखते थे. हालाँकि आनेवाले समय में यह आशंका निर्मूल सिद्ध हुई. कम से कम भारतीय राष्ट्र के डिस्मेम्बरमेंट या विघटन की आशंका.

ऐसा न होने के कई कारण थे. ज्यादातर डेमोग्राफिक या जनांकिकीय. भाषायी समूहों के विस्तार और वितरण की 1971 की जनगणना में जो तस्वीर उभरती है उसके मुताबिक मातृभाषाओं की कुल संख्या थी 1652 और एक लाख से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या थी 82. 1992 के आँकड़े को लें तो संविधान में अधिसूचित राष्ट्रीय भाषाओं की संख्या थी 18. 22 राज्यों और 8 केन्द्रशासित प्रदेशों सबकी अपनी-अपनी आधिकारिक भाषा थी. लेकिन इनमें से प्रत्येक प्रदेश में इन सभी भाषाओं के बोलने वाले लोग पर्याप्त संख्या में मौजूद थे.

हालाँकि भारतीय राष्ट्र ने इन दबावों से निपटने के लिए समय-समय पर समझौते किए. ये समझौते केवल भाषायी राज्यों के मांग के समक्ष ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर में जनजातीय आधार पर भी राज्यों के बनने का सिलसिला जारी रहा. छोटी-छोटी आबादी वाले इन राज्यों में जनजातीय पहचान और अस्मिता की मांगे इतनी प्रबल है कि आज भी गोरखा और बोडोलैंड जैसी आवाजें उठती रहती हैं. पूर्वोत्तर में तो जनसंख्या के असमान वितरण की वजह से कुछेक जिलों पर दावे-प्रतिदावे को लेकर राज्यों के संबंधित जनजातियों के बीच खूनी संघर्ष तक की स्थिति पैदा होती रही है. जो जनजातियाँ जिन राज्यों में अल्पसंख्यक हैं उनपर पिछले कुछ वर्षों में हमले भी तेजी से बढ़े हैं.

बाँटो और राज करो का देसी संस्करण : दलहित सर्वोपरि

पंजाब और बंबई के विभाजन में उस समय की एकमात्र प्रभावशाली राष्ट्रीय पार्टी ने अपने राजनीतिक नफे नुकसान के आधार पर जो निर्णय लेना शुरु किया उसने एक अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति का बीज बो दिया.

उदाहरण के तौर पर बंबई राज्य के विभाजन की कहानी को ही समझने की कोशिश करते हैं. बंबई राज्य के बँटवारे या पुनर्समायोजन के शुरुआती द्वंद्व आर्थिक ज्यादा थे. बंबई शहर न सिर्फ एक महान बंदरगाह बल्कि एक बहुत बड़ा औद्योगिक केंद्र भी था. शहर के आम नागरिकों में से ज्यादातर महाराष्ट्रियन थे जबकि ज्यादातर पूँजीपति गुजराती, पारसी और मारवाड़ी (मूल रूप से राजस्थानी). गुजराती उपनिवेशवाद के खिलाफ महाराष्ट्रियन राजनेताओं की एकजुटता से कांग्रेस भयभीत थी. आम भावना एक मराठी भाषा वाला राज्य बनाए जाने के पक्ष में थी और बंबई को इसकी राजधानी बनाए जाने के पक्ष मे. बंबई भारत की वित्तीय राजधानी जैसी थी और थोड़े ठेठ आर्थिक शब्दों में कहें तो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी भी. इसका चरित्र भी पूरा मराठी नहीं था. दक्षिण भारतीय भी भारी तादाद में थे. खासकर तमिल. इस बारे में विस्तार से चर्चा लेख के अगले हिस्से में करेंगे.

बंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाए जाने के बाद इसका स्वरूप क्या वैसा ही बना रहेगा, इसके प्रति कांग्रेसी नेताओं के मन में आशंकाएँ अवश्य थी. लेकिन इसमें कोई शक नहीं था कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो महाराष्ट्र में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाएगा क्योंकि सारी विपक्षी पार्टियाँ पहले से लामबंद थीं. कुछ ऐसी ही स्थिति गुजरात में थी. कांग्रेस के गढ़ इस क्षेत्र में भी अलग राज्य गुजरात के बंबई से अलग किए जाने की मांग जोरों पर थी. पश्चिम भारत के इस बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र दल के रूप में अपनी प्रभुता कायम रखने के लिए कांग्रेस के पास इन दो राज्यों के बनाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था. नेहरू ने 1960 में अपने सामने इन दो राज्यों को बनते देखा.

पंजाब

पंजाब की कहानी थोड़ी अलग है. 1964 में नेहरू के निधन तक भाषायी आधार पर राज्यों की स्थापना की ज़्यादातर बड़ी मांगें मानी जा चुकी थीं. इसका एकमात्र अपवाद था पंजाबी सूबा. पंजाब सूबे को अलग करने की दुविधा बड़ी दिलचस्प थी. यहाँ आवरण भाषा का था लेकिन सिख सांप्रदायिकतावादी इसे धर्म से जोड़कर खालसा यानि सिख समुदाय द्वारा शासित राज्य की स्थापना करना चाहते थे. नेहरू को इस बात का भान था. सेकुलरवाद की उनकी समझ में किसी पंथ या धर्म के आधार पर किसी राज्य की स्थापना का कोई स्थान नहीं था. मुस्लिम सांप्रदायिकता पहले ही देश का विभाजन करा चुकी थी और सिख सांप्रदायिकता को मान्यता भी ऐसी ही किसी अप्रिय स्थिति को जन्म दे सकती थी.

हालाँकि 1966 तक चीन और पाकिस्तान के साथ युद्धों में सिख सैनिकों की बहादुरी इस राज्य को अलग पहचान देने में कितनी सहायक हुई यह तो नहीं मालूम लेकिन 1967 के भावी चुनाव में कांग्रेस पार्टी को पहली बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा था. इंदिरा गांधी द्वारा पंजाब का "सिख बहुल पंजाब" और "हिंदी भाषी हरियाणा" में विभाजन चुनाव की तैयारी का ही एक हिस्सा थी. हालाँकि इस विभाजन का विचारात्मक आधार 'भाषा' ही रहा. यानि धार्मिक आधार पर किसी राज्य की स्थापना को वैधता दिए जाने से परहेज किया गया. अस्सी के दशक में अलग खालिस्तान की मांग के बाद आंतरिक आतंकवाद और राजनीतिक हत्याओं का जो दौर इस प्रांत में देखने को मिला उसे लोग नहीं भूल सकते क्योंकि इंदिरा गाँधी की हत्या और बाद के दंगों को इसी के आलोक में देखे जाने की प्रवृत्ति पाई जाती रही है.

राजनीति चमकाने की दवा जो बन गई मर्ज़

यह इस देश के राजनीतिक इतिहास का एक ऐसा चरण है जिसमें राष्ट्र निर्माण का भार और इसकी निर्माण यात्रा का मार्ग तैयार करने का बीड़ा एक पार्टीविशेष का विशेषाधिकार जैसा बन कर रह गया. अब भाषा के आधार पर राज्यों की मांग की ही बात करें तो इसपर विचार कांग्रेस पार्टी के भीतर ही होता रहा और इस पर फैसला कांग्रेस के 'सिंडिकेट' में आनेवाले लोग ही करते रहे. सिंडिकेट रूपी इस अल्पतंत्री समूह में आसीन नेतागण वही थे जो किसी समय अपने-अपने प्रांतों की राजनीति के धुरंधर थे और इसी वजह से केंद्र में इनकी पैठ बनी थी. एकदलीय प्रभुत्व वाले इस दौर में यह कोई अजूबी बात भी नहीं थी. लेकिन राजनीति चमकाने की दवा राष्ट्र निर्माण के नेहरूवियन सपने के लिए लाइलेज रोग बन जाएगा ऐसा सोच-समझ पाने की दूरदर्शिता इस पीढ़ी के नेता खो चुके थे.

अब देखिए ना, भाषायी राज्यों के लिए उठने वाली मांगों या इनसे जुड़े आंदोलनों में आवश्यक रूप से हिंसा हुईं. कुछेक मामलों में हिंसा के गंभीर मामले भी सामने आए जिनमें जानें गईं और संपत्ति का भी नुकसान हुआ. लेकिन कुल मिलाकर सभी मांगे इतनी गंभीर भी नहीं थीं. गंभीरता की कसौटी केवल राजनीतिक नफा-नुकसान ही था. यानि यदि हिंसा इतनी गंभीर है कि इससे कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी एकजुट हो सकते हैं या उनको फायदा हो सकता है और कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व पर संकट आ सकता है तो समझौते का रास्ता अपनाया गया. जहाँ ऐसा नहीं पाया गया उन्हें सख्ती से दबा दिया गया. एक राष्ट्रीय पार्टी सत्तासीन रहने के लिए इतना कमजोर हो जाए कि उसके लिए राष्ट्रीय निर्माण का दीर्घावधि का एजेंडा बेमानी लगने लगे, इसका असर एक न एक दिन तो दिखना ही था.

(इस लेख के दूसरे भाग में हम प्रांतीयतावाद की दूसरी लहर और भाषा और संस्कृति से आगे जाकर "भूमिपुत्र" के अपेक्षाकृत ज्यादा आर्थिक विचारधारात्मक आधार औऱ इसके प्रति राष्ट्रीय पार्टियों के ढ़ुलमुल रवैये को परत-दर-परत जानने की कोशिश करेंगे. केंद्रीकृत योजनाओं की विफलता के चलते क्षेत्रीय असुंतलन, प्रांतीय स्वायत्तता, और उपराष्ट्रवादी उभारों पर भी चर्चा करेंगे. संकीर्ण राजनीतिक लिप्सा से प्रेरित छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा पैरोकिअल उभारों को हवा देने और लामबंदीकरण में सफल रहने पर केंद्रीकारी ताकतों से सौदेबाजी के ज़रिए मुख्यधारा की राजनीति में मान्यता हासिल करने की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालेंगे जिसका सीधा संबंध बंबई के ताज़ा घटनाक्रमों से है.)



अव्यक्त शशि

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