Saturday, April 16, 2011

अन्ना के आंदोलन के मायने

संदीप पांडे

अन्ना हजारे ने देश में भूचाल-सा ला दिया। उन्होंने स्थापित राजनीति को ऐसी चुनौती दे डाली कि राजनीतिज्ञों की बिरादरी थोड़ी-सी घबराई है। उनके ऊपर आरोप लग रहा है कि उन्होंने संविधान से परे जाकर व्यवस्था में बदलाव लाने हेतु दबाव बनाने का अनुचित तरीका अपनाया। लालकृष्ण आडवाणी को लगता है कि नेताओं के प्रति नफरत पैदा करना लोकतंत्र के लिए खतरा है।

हकीकत तो यह है कि जनता आजिज आ चुकी है। वह देखती है कि जनप्रतिनिधि चुने जाने के थोड़े ही दिनों बाद नेता अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा धन जुटा लेता है। उसके रहन-सहन का तरीका ही बदल जाता है। संसद में जनप्रतिनिधि अपने लिए सुविधाएं बढ़ाते चले जाते हैं, जबकि बहुसंख्यक जनता अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी न्यूनतम ढंग से पूरा कर पाने में नाकाम है। इससे भी उनका काम नहीं चलता तो वे भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके खोजते हैं। अपनी निधि बढ़वाने से लेकर तमाम परियोजनाओं, विकास व कल्याणकारी योजनाओं में बंदरबांट हेतु प्रतिस्पर्धा तो चलती ही रहती है। इसमें नौकरशाह भी पूरी तरह लिप्त होते हैं। इसीलिए उनको भी आसानी से छठा वेतन आयोग मिल जाता है। हद तो यहां तक हो गई कि संसद में सवाल पूछने के भी पैसे लिए जाने लगे। आधे से अधिक लोकसभा सदस्य करोड़पति हैं तो एक-तिहाई के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इससे मालूम होता है कि किस तरह के लोग, किस तरह से संसद में पहुंचते हैं। भ्रष्टाचार के पैसे से दलों की राजनीति पोषित होती है। ऐसे सांसद ढूंढ़ने से ही मिलेंगे, जो चुनाव आयोग द्वारा तय की गई चुनाव प्रचार पर 25 लाख रुपए की सीमा के अंदर खर्च कर चुनाव जीतकर आए हों। सारे नियम-कानून ताक पर रखकर निहित स्वार्थ के लिए राजनीतिक प्रक्रिया को बंधक बनाए रखने वाले राजनीतिज्ञ नहीं चाहते कि उनकी कार्यशैली पर कोई सवाल उठाए। खासकर उनकी बिरादरी के बाहर का कोई व्यक्ति। वर्तमान राजनीति के आधार हैं भ्रष्टाचार व हिंसा। वाम से लेकर दक्षिणपंथ तक की विचारधाराओं को मानने वाले दल इन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। बाबरी मस्जिद गिराकर इस देश में आतंकवाद की राजनीति की नींव रखने वाले तथा जिनके मातृ संगठन पर पांच बम विस्फोट अंजाम देने का आरोप हो और जिसकी राजनीति का आधार ही मुसलमानों के खिलाफ नफरत का ध्रुवीकरण हो, ऐसे आडवाणी को नेताओं के प्रति नफरत की बड़ी चिंता है।

अन्ना हजारे के आंदोलन में जबर्दस्त जनउभार देखने को मिला, क्योंकि जनता के बीच राजनेता अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। मुख्यधारा के किसी दल की लोकतंत्र को मजबूत करने में रुचि नहीं है। ज्यादातर तो परिवारवाद का शिकार हो चुके हैं। देश के दूसरे सबसे बड़े दल की विचारधारा ही लोकतंत्र से मेल नहीं खाती। पश्चिम बंगाल व केरल में जिस तरह वाम दलों ने सरकारें चलाई हैं, उससे उनमें भी कोई विशेष विश्वास नहीं बनता। जिन दलों में आंतरिक लोकतंत्र न हो, क्या हम उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे लोकतांत्रिक ढंग से सरकारें चलाएंगे? सभी येन-केन-प्रकारेण जीतने की रणनीति बनाते हैं। इनके अल्पकालिक उद्देश्य होते हैं। जनता का भरोसा इनसे उठने लगा है।

इसीलिए जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के अनशन स्थल पर जो राजनेता आया, उसे काफी जलालत झेलनी पड़ी। यह जनता का भ्रष्टाचार को लेकर आक्रोश है, जो फूटा। यह आक्रोश सिर्फ नेताओं को नहीं, बल्कि उन पत्रकारों को भी झेलना पड़ा, जिनका नाम नीरा राडिया प्रकरण में आया है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि 2जी स्पेक्ट्रम पर लीपापोती का प्रयास करने वाले कपिल सिब्बल का किसी किस्म का विरोध नहीं हुआ। बल्कि वे तो विधेयक का मसौदा बनाने वाली समिति में शामिल हैं। कपिल सिब्बल ने इस समिति के गठन के बाद बयान दे दिया कि लोकपाल कानून से कुछ नहीं होने वाला। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या लोकपाल कानून से सभी को शिक्षा या पेयजल मिल जाएगा? दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह ने बयान दिया है कि अन्ना हजारे के अनशन पर हुए खर्च की जांच होनी चाहिए व उद्योगपतियों और गैर-सरकारी संस्थाओं को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए। अब कपिल सिब्बल से पूछा जाना चाहिए कि मानव संसाधन मंत्री के रूप में इसी सरकार में उन्होंने शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो बनवाया, लेकिन समान शिक्षा प्रणाली को न लागू कर उन्होंने ही तो देश के अधिकांश बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित कर रखा है। इसी तरह दिग्विजय सिंह सत्ता दल से जुड़े हुए हैं और जो सुझाव दे रहे हैं, उसे क्रियान्वित क्यों नहीं करवाते हैं? इन नेताओं की बयानबाजी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में राजनीतिज्ञों के खिलाफ उभरे आक्रोश से उपजी तिलमिलाहट है।

जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के परिपक्व होने के आसार दिख रहे हैं। जनता मताधिकार से संतुष्ट नहीं थी तो उसने सूचना के अधिकार हेतु मुहिम चलाई। अब वह निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी चाहती है। इसमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं है कि जनता के नुमाइंदे किसी विधेयक का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल हों। बल्कि अन्ना के आंदोलन के निहितार्थ ये हैं कि प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र में विश्वास समाप्त हो जाने के कारण जनता लोकतंत्र के संचालन हेतु निर्णय प्रक्रिया में सीधा हस्तक्षेप चाह रही है। उसे भरोसा नहीं रह गया है कि विधायिका व कार्यपालिका उसके हित में ही फैसले करेंगी। इसलिए, जैसाकि लोकतंत्र में होना ही चाहिए, वह सरकार पर नियंत्रण कायम करना चाहती है। इसमें नेताओं को अपना अपमान नहीं समझना चाहिए। यदि नेता और नौकरशाह ठीक तरीके से व्यवस्था चला रहे होते तो ऐसी नौबत नहीं आती। न्यायपालिका ने भी अपनी जिम्मेदारी ठीक तरीके से नहीं निभाई। वह भी शासक वर्ग के भ्रष्टाचार के पक्ष में ही खड़ी दिखाई पड़ी। एक अच्छा उदाहरण है भोपाल गैस कांड का। ऐसे में जनता के पास दो ही विकल्प थे। अन्याय बर्दाश्त करते हुए जीना या सड़क पर निकल आना। अन्ना बहाना बन गए और जनता का गुबार फूट पड़ा। यदि व्यवस्था का संचालन करने वाले अब भी सबक लें तो बेहतर है। गनीमत मानिए कि अन्ना के केंद्र में रहने की वजह से यह आंदोलन पूरी तरह अनुशासित व शांतिपूर्ण रहा है।

No comments: