अनुज शुक्ला
पिछले कई दिनों से छत्तीसगढ़ राज्य डा.विनायक सेन को लेकर राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय बहसों के केंद्र में रहा है। राज्य की मौजूदा
प्रवृत्तियों के आधार पर वहां लोकतंत्र को लेकर तमाम तरीके की आशंकाएँ
व्यक्त की जा रही हैं। दस साल पहले कुछ बुनियादी जरूरतों में सुधार को
लेकर राज्य गठन की प्रक्रिया को बल दिया गया था और यह माना गया था कि
अनुसूचित जातियों और जनजातियों की लगभग आधी आबादी वाले इस राज्य में नए
राज्य बनने के बाद, वर्षों-पर्यंत चली आ रही समस्याओं का समाधान कर लिया
जाएगा। समाधान तो संभव नहीं हुआ लेकिन वैश्वीकरण की प्रक्रिया में विकास
के नाम पर एक राज्य के शैशवी सपनों और कौमार्य का गला घोट दिया गया।
उनकी आँखों के सामने ही कार्पोरेटीय पिट्ठुओं के माध्यम से पूरी की पूरी
सभ्यता को नष्ट करने का दुस्साहसी उपक्रम किया जाने लगा। यह निश्चित ही
सत्य माना जाएगा कि पिछले कई दिनों से राज्य नक्सलवाद को लेकर
समस्याग्रस्त रहा है। लेकिन क्या नक्सली हिंसा के इस सत्र में सारा
दोषारोपण पक्ष विशेष पर किया जाना न्यायसंगत होगा, जबकि ऐसे कोई आधार
नहीं मिलते कि राज्य के ऊपर लगे आरोपों को भी बेबुनियाद साबित किया जा
सके? बहरहाल एक राज्य का यह अपना राजनीतिक मामला हो सकता है। लेकिन देश
के अन्य हिस्सों की हजारो-हजार जनता यह अवश्य जानना चाहेगी कि वाकई वहां
हो क्या रहा है? छत्तीसगढ़ की स्थिति और पुलिसिया आतंक का अंदाजा एक
पत्रकार के इस बयान से लगाया जा सकता है कि ‘वहां जाकर सारी जिंदगी जेल
में नहीं गुजारनी है’।
अभी हाल के दिनों में राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने एक प्रेस कान्फ्रेंस और बीबीसी को दिए साक्षात्कार में यह बयान
दिया कि ‘ मैं हर हाल में राज्य में शांति का पक्षधर हूँ’। छत्तीसगढ़ एक विपन्न राज्य की भयावह कहानी है जहां आंकडों के गोलमाल के द्वारा देश-विदेश के दूसरे हिस्सों में भ्रामक सूचनाओं का
सरकारी प्रसार किया जा रहा है। उदाहरण स्वरूप रमन सिंह का यह विज्ञापन
देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपवाया गया कि ‘छत्तीसगढ़ में पाँच सालों
में विकास दर 10.5 फीसदी दर्ज की गई जो मोदी के अतुल्य गुजरात से भी
ज्यादा है’ और एक अनुमान में कहा गया है कि यह 2011 में 11.47 फीसदी तक
पहुँच जाएगा। कृषि दर भी 2.3 के राष्ट्रीय दर की अपेक्षा 4.7 फीसदी है जो
अगले साल छः फीसदी के जादुई आंकड़े को पार कर जायेगी। इन आंकडों पर दूसरी
अन्य सरकारी और गैर सरकारी सांख्यिकीय संस्थाएं अट्ठहास कर रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड व्यूरों के अनुसार 2009 में छत्तीसगढ़ में 18011
पात्र किसान आत्महत्याएँ हुई हैं, जो विदर्भ के पात्र किसान आत्महत्याओं
से भी ज्यादा हैं। इन आंकडों को लेकर राज्य सरकार और राष्ट्रीय अपराध
रिकार्ड व्यूरो के बीच मतभेद भी व्याप्त है। जहां विशेषज्ञों का यह मानना
है कि राज्य में आत्महत्याओं को दर्ज करने की पुलिसिया तकनीकी के कारण
ये काफी कम मात्रा में दर्ज की जा सकी हैं जबकि राज्य में इससे कहीं
ज्यादा आत्महत्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर छत्तीसगढ़
प्रशासन अपने बयानों के द्वारा यह आरोप चस्पा कर रहा है कि ये आंकड़े भी
पूर्वाग्रही हैं।
मानो बहस का यह मुद्दा नहीं है कि समस्या का समाधान
कैसे किया जाय बल्कि यह साबित करने का प्रयास हो रहा है कि तुम्हारे यहां
के मुक़ाबले हमारे यहां समस्या कम है। ठीक वैसे ही जैसे महिला उत्पीड़न के
मामलों को लेकर दिल्ली और उत्तर प्रदेश परस्पर एक दूसरे को बढ़ा-चढ़ा कर
पेश करते हैं। चलिए एक क्षण के लिए यह मान लिया जाय कि ये आंकड़े
विरोधाभास लिए हुए हैं लेकिन काबिलेगौर है कि जब राज्य में कृषि विकास की
राष्ट्रीय दर 4.7 फीसदी है तो आखिर वे कौन से कारण हैं जिनसे 18011 किसान
आत्महत्याएं हुई हैं? यह राज्य के कृषि विकास दर की बेबुनियाद बढ़त की पोल
खोलता है। छत्तीस गढ़ का एक कटु सत्य है कि वहाँ के खेतिहर किसान आर्थिक
विपन्नता के कारण देश के अन्य हिस्सों में मजदूरी के लिए पलायन कर रहे
हैं। दूसरी ओर जिस 65 फीसदी बजट को राज्य स्वयं जुटाने की बात कर रहा है
उसकी भी सच्चाई उजागर की जानी चाहिए। क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि
इस 65 फीसदी हिस्सेदारी में एक बड़ा हिस्सा राज्य के निगमीकरण के कारण
प्राप्त हो रहा है। राज्यों के खनिजों के दोहन के लिए निगमों द्वारा
प्रदान किया जा रहा है। आखिर जब राज्य अपने बजट का 45 फीसदी हिस्सा
आदिवासियों और अनुसूचित जन जातियों पर खर्च कर रहा है तो फिर क्यों आज
बिहार और उत्तर प्रदेश की बजाय छत्तीसगढ़ की आबादी रोजगार के लिए
पर-प्रान्तों की ओर पलायन कर रही है।
रमन सिंह का पूरा इशारा शांति और तथाकथित विकास के आलाप की ओर है। लेकिन
शांति का आधार क्या? राज्य के आलोकतांत्रिक रवैये की तरफ ध्यान न दिया
जाना या हर हाल में सिर्फ और सिर्फ चुप रहना। राज्य के नागरिकों में रमन
सिंह सरकार को लेकर जैसा लोकतान्त्रिक भय बना हुआ है क्या वह किसी भी ढंग
से जनतंत्र के लिए शुभ कदम माना जाएगा। क्योंकि असहमति को राज्य सीधे
तौर पर देशद्रोह की कृत्यों के साथ जोड़ कर देख रही है। सरकार का
नक्सलियों पर यह आरोप कि वह राज्य में आदिवासी बच्चों को 12 साल की उम्र
में बंदूक पकड़ा देती है तो रमन सरकार भी इस आरोप से नहीं उबर सकती कि
उसने सलवा जुड़ूम के नाम पर हजारों नाबालिक आदिवासियों को कलम और किताबें
देने की बजाय बंदूके पकड़ाकर कभी न थमने वाले हिंसा के रसातल में धकेला
है। पिछले सात सालों में गतिरोध को कम करने की बजाय दमनकारी और
ध्वंसात्मक तरीके से इसे बढ़ाने का ही काम किया। दरअसल राज्य में जन
विरोधी विचारधारा के प्रति संवेदना रखना, राज्य की असंवैधानिक
कार्रवाइयों के खिलाफ असहमति व्यक्त करना छत्तीसगढ़ी होने का राजकीय
अभिशाप है ।
अनुज शुक्ला.(स्वतंत्र पत्रकार)
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