Thursday, November 12, 2009

सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में पिछड़ने के मायने

आनंद प्रधान

पिछले सप्ताह जब से ’द टाइम्स-क्यूएस’ की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है। यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी,मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी, दिल्ली को जगह मिल सकी है जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नही माना जाता है।

यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नही हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नही है। ऐसा नही है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षों से जारी हो रही इस वैश्विक रैकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।

सवाल है कि इस वैश्विक रैकिंग को कितना महत्त्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि ’द टाइम्स-क्यूएस’ की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टों की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्यांकन की छाप को साफ देखा जा सकता है। लेकिन इस सबके बावजूद दुनिया भर के ‘शैक्षणिक समुदाय में ’ द टाइम्स-क्यूएस ’ की वैश्विक विश्वविद्यालय रैकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गयी है।

दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का एक जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैकिंग एक अनिवार्य ‘शर्त है। यह रैकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैकिंग को ध्यान में रखते हैं। निश्चय ही, इस तरह की रैकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आक्रर्षित करने में कामयाब होते हैं।

इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है। आश्चर्य नही कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों का रूख कर रहे हैं। यही नहीं, ’ब्रेन ड्रेन’ रोकने और ’ब्रेन गेन’ के दावों के बीच अभी भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और ‘शोधकर्ता विदेशों का रूख कर रहे हैं।

इस मायने में, वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है बल्कि एक तरह से चेतावनी की घंटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है। इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।

लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है? क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में ढकेलना नही होगा? क्या इससे देशी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?

निश्चय ही, इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। हालांकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं।

हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए जिनके कारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है। आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतांत्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है। इसके बिना विश्वविद्यालयों का कायाकल्प मुश्किल है।

असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतियां हैं-उच्च शिक्षा के विस्तार की , उसमें देश के सभी वर्गों के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गये।

एक अंतर्राष्ट्रीय ‘शोध रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक (ब्राजील,रूस,भारत और चीन) देशों में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नही कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नही बना पाए। उपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जु गाड़ने के लिए कह रही है।

यही नही, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11 वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्त्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 0।39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।

असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं जबकि विकसित पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नही कि मानव विकास सूचकांक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है। आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में जगह कैसे बना सकता है?

1 comment:

संगीता पुरी said...

वैश्विक रैंकिंग को आप न भी महत्‍व दें .. यह मान लें कि भारत के दो आई आई टी को भी उन्‍होने सिर्फ पहले से रहे नाम की वजह से ही रख लिया है .. पर भारत में आई आई टी में भी हर वर्ष इतनी संख्‍या में टेस्‍ट में फेल होने वाले बच्‍चों और इसके कई कैम्‍पसों के अंदर होने आत्‍म हत्‍याओं को देखते हुए कॉलेजों की विश्‍वसनीयता पर शक तो हो ही जाता है .. आखिर वैसी मानसिकता वाले बच्‍चे वहां प्रवेश कैसे कर जाते हैं .. जो पढाई के इस दबाब को नहीं सह सकते !!