Monday, October 26, 2009

दौसा में पायलट की पहचान का संकट


अखर गई सचिन पायलट की गैरमौजूदगी

मृगेंद्र पांडेय

आमतौर पर दौसा का नाम राजनीतिक गलियारों में पायलट परिवार के कारण जाना जाता है। चाहे राजेश पायलट हों या उनके बेटे सचिन। दोनों वहां से सांसद तो बने ही, उनकी पहचान भी वहीं से है। भले ही यह उनकी जन्मभूमि न हो, लेकिन दौसा की राजनीतिक वारिस तो वही हैं। सवाल पहचान का है। पायलट की पहचान। कांग्रेस की पहचान। सरकार की पहचान। युवा चेहरे की पहचान। गुम होती पहचान और पहचान का संकट। दरअसल पहचान ही सबकुछ है, या ये कहें कि पहचान के लिए ही सबकुछ है।

दौसा एक क्षेत्र नहीं है। यहां संस्कृतियां बसतीं हैं। पत्थर पर नक्काशी का अनूठा नमूना। सिकंदरा की खास पहचान। अमर सिंह के घर के बाहर भी उसकी झलक देखने को मिल जाती है। चाहे वह गणेश जी हों या फिर गोल गोला, जो उनके बाग की रौनक बढ़ा रहे हैं। दो पिछड़ी जातियां भी रहती है यहां। एक आदिवासी है और एक आदिवासी बनाने की मांग कर रही है। जो कभी आपस में संघर्ष करतीं है, तो कहीं पर एक थाली में खाती नजर आती है। मीणा और गुर्जर। सचिन या किरोणीलाल। दोनों एक से हैं। दोनों की पहचान एक सी है। भले वह मीणा या गुर्जर हैं। जीत पहचान देती है। राजेश पायलट से लेकर सचिन तक, लगातार जीत होती रही। यहां न तो जनता ने सवाल पूछा, न किसी नेता ने। हमने जवाब देने की जहमत भी नहीं उठाई। हम बात सिर्फ लोकसभा चुनाव की नहीं कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव के बाद के समीकरणों की कर रहे हैं। यहां रहते तो मीणा ज्यादा हैं, लेकिन बरसो से इनका सांसद गुर्जर था। संघर्ष के बाद भी गुर्जर ही थी। सचिन पायलट। लेकिन अब बदलाव आ गया है। मीणा का सांसद मीणा होगा। किरोणी लाल मीणा। मीणा समाज का सबसे बड़ा नेता। या ये कहें कि नेता कोई भी हो उसे बनाएगा किरोणीलाल मीणा ने ही।

अब टोडभीम में उपचुनाव होने हैं। उम्मीदवार किरोणीलाल ही तय कर रहे हैं। जिसे तय कर दिया उसकी जीत तय। चाहे वह कांग्रेस का हो, भाजपा का या फिर निर्दलीय। अब सवाल यह उठता है कि बरसों की विरासत कहां खो गई। क्या चुनाव लड़ने से ही इलाका अपना होता। नेता का चुनाव क्षेत्र बदल जाए तो क्या समर्थक भी क्षेत्र छोड़ देते हैं। अगर नहीं तो कहां हैं दौसा में सचिन पायलट। कहां खो गए हैं सचिन के समर्थक। क्या वह पलायान कर गए। यह सवाल अनायास ही नहीं खड़े हो रहे हैं। दरअसल कुछ दिनों पहले जब मैं दौसा गया था तो वहां न तो सचिन का पोस्टर नजर आया। न ही किसी दिवाल पर सचिन जिंदाबाद। न ही पान की दुकान, चौराहों पर सचिन की बात करने वाले। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव क्षेत्र बदलने के बाद सचिन वहां गए ही नहीं। मानों उनका दौसा के लोगों से संबंध ही टूट गया हो।

क्या इसी दिन के लिए बाहर से राजेश पायलट को दौसा की जनता ने चुना था। या सचिन को छोटी उमर में ही संसद में राहुल के बगल में बैठाया था। अगर आपका जवाब हां है तो मेरा सवाल खड़ा करना जायज नहीं है। लेकिन अगर सवाल का जवाब ना में है तो सचिन कब नजर आएंगे दौसा की दिवारों पर। कब पोस्टर और फ्लैक्स में लगे सचिन की फोटो में लगी पगड़ी, दौसा की पगड़ी होगी।