मतदान का चौथा दौर दर असल कांग्रेस की बढ़त बनाने वाला दौर था, तो पंजाब और बंगाल में सत्तारूढ़ गठजोड़ों के लिये अपनी सीटें बचाने वाला।
मनोहर नायक
पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में अब तीन ही चीज बाकी हैं। पांचवां दौर, सोलह मई और जोड़-तोड़, विश्वासघात व दुरभिसंधियों वाला छठा दौर। चौथे और पांचवें दौर के बीच के इस समय भी राजनीतिक तस्वीर उतनी ही धुंधली है जितनी इस अभूतपूर्व चुनाव के शुरू होते समय थी। सभी दल और सभी मोर्चे अपने-अपने रुख पर डटे हुये हैं। वैसे यह स्थिति भी एक कच्ची-पक्की सी तस्वीर बनाने के लिए काफी हो सकती थी, अगर भरोसेमंद होती। दिलचस्प यह है कि सभी पार्टियों और नेताओं के बयानों की रंगते बदलतीं हुई और अगर-मगर से भरी हुईं हैं।
काबिलेगौर यह है कि जिस मुद्दे पर यानी अमेरिका से एटमी करार पर कांग्रेस और वामदल अलग हुए उसका इस चुनाव में कोई नामलेवा नहीं है। न तो उसके समर्थन में, न उसके विरोध में कहीं कोई आवाज सुनाई दे रही है। दरअसल साम्प्रदायिकता आज भी एक बड़ा मुद्दा है। कांग्रेस-भाजपा दो दलीय लोकतंत्र का सपना भले देखें लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों का बढ़ता वर्चस्व और गठबंधन की राजनीति आज का सच है। हो सकता है उसमें अभी दबाव की, ब्लैकमेलिंग की बुराइयां हों पर राजनीति का यह स्वरूप देश में रहने वाला है। कांग्रेस और वामदल इन दोनों मामलों में, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील सरकार देने तथा गठबंधन की राजनीति को कालांतर में अधिक रचनात्मक, उपयोगी और कारगर बनाने में सहयोगी हो सकते थे। इस लिहाज से उन्हें स्वाभाविक मित्र होना और दिखना चाहिये था। दुर्भाग्य से इस पूरे चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में तो कटु बयानबाजी हुई ही उसके बाद वह सबसे ज्यादा कांग्रेस और वामदलों के बीच हुई। इस चुनाव से उभरने वाली तस्वीर इस कदर धुंधली भी मुख्यत: इसी कारण से है। फिर उसमें भारतीय राजनीति की स्वार्थपरता और अवसरवादिता का हाथ है। साथ ही उस अहमन्यता का भी जिसके बारे में एक बार पत्रकार एमजे अकबर ने लिखा था कि भारतीय राजनेताओं में यह इस कदर व्याप्त है कि ऐसप की कहानी के उस मेंढक की याद आती है जिसने मिथ्याभिमान में इतना पेट फुलाया कि वह फूट ही गया। इस चुनाव में वाम ही नहीं कई क्षेत्रीय दलों की यह गत होने की बात कही जा रही है।
यह चुनाव अपने इसी राजनीतिक धुंधलके और कुहासे के कारण विचित्र और अपूर्व है। इसी कारण हर घर में कलह है। हर कुनबे में फूट है। यूपीए-एनडीए में बिखराव और आगामी को लेकर संदेह हैं। अमर-आजम की अजब कथा है। दावों की गर्वोक्तियों के पीछे अपने यथार्थ की करुण विकलाताएं हैं। ऐन चौथे चरण के पहले एक और खास बात हो गयी। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी की बहुचर्चित प्रेस कांफ्रेंस, जिसमें उन्होंने वाम को पुचकारा और नीतीश-नायडू को फुसलाया। इसके अनिवार्य परिणाम जो होने थे सो हुये और अब तक जारी हैं। ममता रूठीं, लालू-पासवान भनभनाये, करुणनिधि कसमसाकर रह गये। अब सिर्फ सात राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 86 सीटों के लिये अंतिम दौर में वोट पड़ने हैं।
चौथे चरण में पंजाब की चार सीटें थीं। पंजाब वह राज्य है जहां कांग्रेस कुछ पा सकती है। सत्तारूढ़ गठजोड़ को हानि कम से कम हो इसकी ही कोशिश करनी है। चौथा चरण वैसे भी इस चुनाव का वह दौर था जिसमें कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा बढ़त बनानी थी और हरियाणा-दिल्ली में अपनी क्रमश: नौ और छह सीट बचानी थी। दो-दो सीट का घाटा भी वे दोनों जगह सहने की स्थिति में हैं लेकिन ज्यादा नुकसान मंहगा पड़ेगा। राजस्थान में चार सीटों वाली कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीटें पाकर ही फायदे में रहेगी। उसकी सीटें 13-14 हो सकती हैं लेकिन सवाल उससे ज्यादा कितनी का है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को चौथे चरण से काफी उम्मीद है। रालोद से उसका गठबंधन यहां कसौटी पर था। लगभग संपूर्ण पश्चिमी और कुछ मध्य क्षेत्र के हिस्सों वाली 18 सीटों में 2004 में नौ सपा, तीन-तीन कांग्रेस-भाजपा, दो रालौद और एक बसपा ने जीती थी। मुलायम सिंह के यादवी वोट 17 फीसद यहां थे तो उनकी भी यह परीक्षा का दौर था। सवाल यह है कि कल्याण कितना कबाड़ा करेंगे! भाजपा जरूर कुछ फायदे में रहेगी।
नंद्रीग्राम और सिंगूर वाले दक्षिण बंगाल की जिन 17 सीटों पर इस दौर में वोट पड़े वह माकपा का गढ़ रहा है, जहां उसके पास 14 सीटें थीं। इस दौर में सबसे अधिक मतदान (75%) पश्चिम बंगाल में हुआ। यह देखना दिलचस्प होगा कि ये वोटर तृणमूल-कांग्रेस गठजोड़ के असर से वाममोचरे के खिलाफ निकले या कैडर के निडर प्रोत्साहन से। चौथा चरण मतदान के प्रतिशत (57) के हिसाब से ठीकठाक था। इसमें दांव पर की 85 सीटों में ज्यादा से ज्यादा कांग्रेस को जीतनी थी और बाकियों को बचानी थीं।
पांचवा दौर तेरह को है। फिर सोलह और फिर छठा दौर। इसमें सबको नानी याद आयेगी। इसकी तैयारी शुरू हैं। अड़चनें दूर की जा रही हैं। मसलन कांग्रेस के मीडिया प्रभारी वीरप्पा मोइली और अश्विनी कुमार हटा दिये गये। लालू और नीतीश के खिलाफ उनका बड़बोलापन पार्टी को रास नहीं आया। आखिर सभी दलों की तरह कांग्रेस को भी अभी सभी को खुश रखना है।
1 comment:
हमने तो सोचना और देखना ही बंद कर दिया.. पता नहीं कल कौन किसके साथ हो... देखेगेम १६-१७ को.. असली खेळ..
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