Saturday, July 12, 2008

बचे सरकार लेकिन कैसा है करार

अमेरिका के साथ हो रहा परमाणु करार देश हित में है या नहीं? इसके बारे में राजनीतिक दलों की राय जानकर आप किसी नतीजे पर पहुंचना चाहते हों तो निराशा हाथ लगेगी। हां, राजनीतिक दलों के बयानों से आप यह जरूर जान सकते हैं कि देश का कौन सा समुदाय या जाति करार से खुश होगी या नाराज। केंद्र की सरकार और सरकारी प्रतिष्ठानों के सारे वैज्ञानिक मिलकर वामदलों को नहीं समझा सके कि करार देश हित में है।


देश हित और धर्म निरपेक्षता की रक्षा में निकली समाजवादी पार्टी को अचानक इलहाम हुआ कि अभी तक तो वह करार को वामदलों के नजरिए से देख रही थी। सो उसने तय किया कि अब वह कांग्रेस के चश्मे से देखेगी कि करार में क्या है।


देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सपा नेताओं को समझाने गए कि करार क्यों ठीक है। सपा नेताओं ने कहा बात नहीं बनी। प्रधानमंत्री बताएं। प्रधानमंत्री ने आनन फानन में तीन पेज का बयान जारी कर दिया। तब समाजवादी पार्टी के नेताओं को याद आया कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कहा था कि देश का मुसलमान परमाणु करार के खिलाफ है। इसलिए यूएनपीए की बैठक में तय हुआ कि देश के सबसे बड़े वैज्ञानिक से पूछ कर तय करेंगे कि करार का समर्थन करें या नहीं।


वैज्ञानिक का मुसलमान होना जरूरी था इसलिए यूएनपीए के नेता पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के पास पहुंचे। सारा देश जानता है कि कलाम करार के पक्ष में हैं। सिर्फ यूएनपीए के नेताओं को पता नहीं था।


समाजवादी पार्टी कह रही है कि साम्प्रदायिकता करार से भी ज्यादा बुरी है। इससे आप क्या समझॊ? क्या दोनों बुरे हैं? अब जरा दूसरे दलों पर नजर डालिए।


वामदल करार के व्यवहारिक ही नहीं सैद्धांतिक रूप से भी खिलाफ हैं यह बात आप हम सब पहले दिन से जानते हैं पर कांग्रेस मानने को तैयार नहीं थी। इसी तरह सबको पता था और प्रधानमंत्री बार बार कह रहे थे कि हम करार पर आगे बढ़ेंगे। पर वामदलों को नहीं पता था कि सरकार ऐसा करेगी।


देश का विपक्षी दल यानी भाजपा करार के पक्ष में है भी और नहीं भी। पहले ऐसी भाषा उसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी बोलते थे अब पूरी पार्टी बोल रही है। कभी करार को देश हित के विरोध में बताते हैं कभी कहते हैं कि कांग्रेस ने हमसे बात की नहीं?
यानी बात करती तो करार का समर्थन करते?


भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी कहते हैं कि वे करार के खिलाफ नहीं उसमें मामूली संशोधन चाहते हैं। नवम्बर 2007 से यह राष्ट्रीय प्रहसन चल रहा है। राजनीतिक दलों ने मान लिया है कि जनता कुछ नहीं समझती। जो वे समझाएंगे वही मान लेगी। जनता हर चुनाव में राजनीतिक दलों को गलत साबित करती है। पर नेता हैं कि मानते नहीं।


प्रदीप सिंह

2 comments:

Prem said...

मतदाताओं को बेवकूफ समझना राजनेताओं का चरित्र बन गया है। लेकिन उनकी कलाबाजी अब और दिन नहीं चलने वाली। जनता समझ चुकी है। बस राजनेता ही नहीं समझे हैं। चुनाव सामने है। चुनाव परिणाम एक बार फिर उन्हें सोचने पर मजबूर करेंगे। अब भी समय है कि राजनीतिक दल आत्ममंथन करें।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

इसमें कोई हैरत की बात नहीं है बंधू. यह नौटंकी अभी आगे भी जारी रहेगी. देश राजनीतिक दलों की चिंता का विषय ही नहीं है.