मृगेंद्र पांडेय
छत्तीसगढ कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल ने अपनी कार्यकारिणी घोशित कर दी। इस कार्यकारिणी 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की नैया पार कराने का जिम्मा है। हो भी क्यों ना। पिछले दो चुनाव में भाजपा ने विधानसभा में कांग्रेस को इस लायक भी नहीं छोडा कि वे अपने मुददों पर बहस करा सके। इसके पीछे एक बडा कारण भापा कांग्रेस का आपसी समझौता हो सकता है, लेकिन नंदकुमार से प्रदेश के आम आदमी को भी उम्मीद थी। इस उम्मीद पर वे खरे नहीं उतरे हैं। उनकी टीम में एक भी ऐसा चेहरा नहीं है, जो पार्टी का कददावर पालिटिकल फेस हो। जो कोई बडा आंदोलन करके जनाधार में परिवर्तन लाने का माददा रखता हो। जो भाजपा सरकार की ओर से बांटे जा रहे दो रुपए किलो चावल और पांच रुपए किलो चना की काट ला सके। तो फिर क्या विजन 2013 के ये महारथी कांग्रेस के रथ को डूबो देंगे।
छत्तीसगढ कांग्रेस में संक्रमण काल का दौर है। एक पीढी कांग्रेस से दूर हो रही है। मोतीलाल वोरा, विद्याचरण शुक्ला, अजीत जोगी और सत्यनारायण शुक्ला अब सक्रिय राजनीति के लिए पूरी तरह फिट नहीं रह गए। अब नए सिरे से कांग्रेस की राजनीति तय करने की जरुरत थी। नंदकुमार पटेल पर अगले 20 साल को देखते हुए कार्यकारिणी का गठन करने की जिम्मेदारी थी। जिन लोगों को पटेल ने अपनी कार्यकारिणी में तवज्जो दिया है, वह इस कार्यकारिणी में तो पटेल के साथ चल सकते हैं, लेकिन कांग्रेस की नैया पार करने में कारगर नहीं होंगे। पटेल ने सात उपाध्यक्ष को अपनी टीम में शामिल किया है, इसमें से हंसराज भारद्वाज, केके गुप्ता, प्रदीप चौबे, पुश्पा देवी सिंह, टीएस सिंहदेव वरिश्ठ तो हैं, लेकिन अपने क्षेत्र के बाहर कोई खासा जनाधार नहीं है। प्रदीप चौबे तो कई चुनाव भी हार चुके हैं। इनसे कांग्रेस अगर कोई उम्मीद करती है, तो वह अपने साथ ही धोखा करेगी।
पटेल ने 11 महासचिव बनाए। इसमें से देवव्रत सिंह को छोडकर कोई भी नेता प्रदेशस्तरीय जनाधार वाला नहीं है। देवव्रत इससे पहले युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं, इसलिए उनकी प्रदेश के युवा नेताओं में ठीक-ठाक पकड है। रायपुर से रमेश वल्यानी, सुभाश शर्मा और विधान मिश्रा को महासचिव बनाया गया है। ये तीनों नेता राजधानी की किसी भी विधानसभा सीट से चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है। सुभाश शर्मा और विधान मिश्रा पर दूसरे तरह के भी कई आरोप हैं। अरुण वोरा, भूपेश बघेल, फुलोदेवी नेताम, पदमा मनहर और चंद्रभान बरुमते भी प्रदेश स्तर पर कोई खास पकड नहीं रखते हैं। अरुण वोरा दो बार चुनाव हार चुके हैं। मोतीलाल वोरा के बेटे होने के अलावा उनमें राजनीतिक पकड कोई खास नहीं है। शिव डहरिया आदिवासी नेता हैं और अजीत जोगी के करीबी हैं। इसके कारण इनको जगह मिली है। कुल मिलाकर कांग्रेस की यह भविश्य की टीम कुछ खास करामात दिखा पाएगी, यह कहपाना मुश्किल है। राजनीतिक पंडित भी यह कह रहे है कि कांग्रेस में कोई चमत्कार ही रमन के रणबांकुरो को धूल चटा पाएगा।
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