Saturday, October 25, 2008

मजबूत गढ़ में मजबूर

मृगेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक स्थिति की बात करें तो यह समझ लेना जरूरी है कि भाजपा के किसी भी मुख्यमंत्री से नरेंद्र मोदी जसे प्रदर्शन की उम्मीद बेमानी है। रमन सिंह सीधे-साधे लोगों में माने जाते हैं और उनके मुख्यमंत्री चुने जाने का कारण भी यही था, नहीं तो दिलीप सिंह जूदेव उनसे कहीं बड़े नेता हुआ करते थे। पांच साल पहले जब कांग्रेस की अजीत जोगी सरकार को लोगों ने बाहर का रास्ता दिखाया तो वह सरकार से परेशान लोगों की प्रतिक्रिया थी।

राज्य में लोग इस समय भी परेशान हैं, लेकिन उनमें बौखलाहट नहीं है। परिवर्तन करने की कोई बेचैनी नहीं है, इसलिए भाजपा नेतृत्व को यह साहस मिल रहा है कि वह कई मौजूदा विधायकों का टिकट काट रही है। संकेत यह है कि भाजपा को वोटरों पर भरोसा है, लेकिन उसे लगता है कि लोग विधायकों से नाराज हैं। इसलिए कई सीटों पर नए चेहरे देकर सीट कायम रखने की रणनीति है।

जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं जम्मू-कश्मीर और मिजोरम को छोड़ दें तो वहां कोई स्थानीय मुद्दा चुनावी फिजां में सबसे ऊपर नहीं है। सवाल आतंकवाद का हो, महंगाई का हो या आर्थिक संकट का। छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ा स्थानीय मुद्दा सलवा जुडूम है, जिसे भाजपा और कांग्रेस दोनों का समर्थन था। नक्सली इसके खिलाफ हैं और उनके प्रभाव वाले इलाकों में जो आदिवासी लड़ना नहीं चाहते वो भी इस आंदोलन के कारण सरकार और माओवादियों के बीच पिस रहे हैं। पिछली कांग्रेस सरकार ने आदिवासियों को अपनी उपेक्षा के कारण नकार दिया था, लेकिन इस सरकार पर आदिवासियों का एक बड़ा तबका सलवा जुडूम के कारण कुपित है। इस मुद्दे का अगर भाजपा को नुकसान होगा तो कांग्रेस को भी फायदा नहीं होने वाला है।

बस्तर संभाग के बस्तर, दांतेवाड़ा, कांकेर, बीजापुर और नारायणपुर की 12 सीटों में से 11 सीटें नक्सल प्रभावित हैं। यहां सलवा जुडूम का असर देखने को मिलेगा। नक्सलियों के लिए चलाए गए इस अभियान ने दक्षिण बस्तर के लोगों में राजनीति का जज्बा भर दिया है। वहीं नक्सली चुनाव बहिष्कार का फरमान देने के बाद सरकार को अपनी ताकत दिखाने का प्रयास करेंगे।

कांग्रेस और भाजपा दोनों में गुटबाजी तो है लेकिन भाजपा में यह अंदरुनी तौर पर, तो कांग्रेम में जगजाहिर है। गुटों में बंटी कांग्रेस में सबसे ताकतवर खेमा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का है। दूसरा खेमा विद्याचरण शुक्ल का है जो पिछले चुनाव में कांग्रेस का दामन छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में चले गए थे। राकांपा ने तब सात फीसदी वोट मिले थे। विद्याचरण के वापस आने से एक हजार से पांच हजार के अंतर वाली 20 से ज्यादा सीटों पर सबसे ज्यादा असर पड़ने की संभावना है। चरणदास महंत, मोतीलाल वोरा और महेंद्र कर्मा भी अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं।

भाजपा में लखीराम अग्रवाल का खेमा सबसे ताकतवर है। इसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री रमन सिंह, कद्दावर नेता बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत है। दूसरा खेमा फायरब्रांड नेता दिलीप सिंह जूदेव का है। हालांकि वे रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद से शांत बैठे हैं, लेकिन जशपुर, रायगढ़ और आसपास के इलाकों में पार्टी उनको नजर अंदाज नहीं कर सकती। बस्तर के सांसद बलीराम कश्यप कुछ दिक्कतें पैदा कर सकते हैं, यदि आदिवासी मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग तेज होती है।

प्रदेश में मायावती की नजर अपना आधार बढ़ाने की है। बसपा ने बस्तर क्षेत्र में 1999 के विधानसभा चुनाव में पहली बार एक सीट पर कब्जा किया था। पिछले चुनाव में भी एक सीट पाई थी। बसपा अगर सीटें जीतने में कामयाब नहीं भी होती है तो भी नुकसान कांग्रेस को ही होगा। भ्रष्टाचार भी प्रदेश की जनता के लिए बड़ा मुद्दा होगा।

प्रदेश के मुखिया रमन सिंह पर भले ही किसी प्रकार का आरोप न लगा हो लेकिन उनके मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों में लगातार घिरे रहे। आदिवासी बाहुल राज्य में युवाओं के लिए रोजगार भी एक बड़ा मुद्दा है। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा संकट मुख्यमंत्री के लिए किसी को उम्मीदवार नहीं बनाना है। कांग्रेस को इससे फायदा होगा या नुकसान यह तो समय बताएगा लेकिन रमन सिंह के काट के रूप में किसी नेता को पेश नहीं करना उसके लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। अगर वोटर रमन सिंह से छुटकारा चाहते हैं तो उनके पास एक मजबूत विकल्प होना चाहिए और कांग्रेस इसे पेश करने में नाकाम रही है। गुजरात में पार्टी की हार का यही कारण था और छत्तीसगढ़ में भी इसका खतरा बना हुआ है।

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