नेपाल में संविधान सभा के चुनाव में अब कुछ ही दिन रह गए हैं लेकिन उस पर मंडरा रहे संशय के बादल अभी तक पूरी तरह से छंटे नहीं हैं. नेपाल में शांति स्थापना के

पहले तो इसी पर शक है कि संविधान सभा के लिए 10 अपैल को होने वाले चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हो पाएंगे. यदि हो भी गए तो परिणाम के बाद माओवादियों का क्या रुख होगा, क्योंकि माओवादी तो हर कीमत पर सत्तासीन होने पर आमादा हैं.
वह तो एक नया नेपाल बनाना चाहते हैं. यदि माओवादी नेताओं के बयानों पर जाएं तो इस नए नेपाल की कल्पना काफी चिंता पैदा करने वाली है. इनके बयानो से लगता है कि कहीं नेपाल जहां हाल तक राजतंत्र था गणतंत्र के रास्ते पर चलते-चलते कहीं गनतंत्र का शिकार न बन जाए.
नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग तथा काठमांडू सिथत संयुक्त राष्ट्र मिशन ने माओवादी लड़ाको द्वारा संयुक्त राष्ट्र शिविरों से बाहर निकलकर चुनाव प्रचार में जाने को शांति समझौते तथा चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करार देते हुए उस पर गहरी चिंता व्यक्त की है. ये लड़ाके अपनी कमांडो वर्दी में प्रचंड की चुनाव सभाओं की कमान संभाल रहे हैं.
आयोग ने मिशन के प्रमुख इयान मार्टिन से सफाई मांगी कि ये लड़ाके शिविर के बाहर कैसे जा रहे हैं. मार्टिन ने इस मामले को प्रचंड के साथ उठाया है. नेपाली कांग्रेस भी इससे काफी खफा है. माओवादियों की इस हरकत से नाराज मुख्य चुनाव आयुक्त डा. भोजराज पोखरेल ने तो चेतावनी दे दी है कि अगर आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन इसी तरह जारी रहा तो उन्हें संविधान सभा के चुनाव रद्द करने पर बाध्य होना पड़ सकता है.
राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब चल रही है. पिछले साल आर्थिक विकास की दर ढाई प्रतिशत रही और महंगाई आसमान छू रही है. इसके साथ ही वहां के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षति पहुंचाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. नेपाल में यह पहली बार हुआ है कि अल्पसंख्यकों के पूजा स्थल पर बम फेकें गए.
राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब चल रही है. पिछले साल आर्थिक विकास की दर ढाई प्रतिशत रही और महंगाई आसमान छू रही है. इसके साथ ही वहां के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षति पहुंचाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. नेपाल में यह पहली बार हुआ है कि अल्पसंख्यकों के पूजा स्थल पर बम फेकें गए.
यह सब तो यही बता रहा है कि नेपाल जिस रास्ते पर जा रहा है वह केवल अराजकता की ओर ही जाता है. नेपाल के लोग अभी तक माओवादियों द्वारा चलाए गए हिंसा के दौर को भुला नहीं पाए हैं, जिसमें करीब तेरह हजार लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
सबसे ज्यादा चिंताजनक माओवादियों के नेता प्रचंड का वह बयान है जिसमें उन्होनें मतदाताओं को एक तरह से खुली धमकी दी है कि वे या तो उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता सौंप दे, नहीं तो वे खून-खराबे के जरिए इसे हासिल करेंगे. इस बयान से प्रचंड की सोच का पता चल जाता है कि उनका लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में कोई विश्वाश नहीं है.
माओवादियों के मुखपत्र "जनदिशा" ने उनके इस बयान को उद्धृत करते हुए कहा है कि माओवादी जनशक्ति की मदद से एक नया नेपाल बनाना चाहते हैं. प्रचंड चुनावी सभाओं में चेतावनी दे रहे हैं कि जनता उन्हें नेपाल गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति के रूप में मान चुकी है और अगर ऐसा नहीं होता है तो देश में खून-खराबा होगा.
माओवादियों के अन्य नेता इसे दूसरी क्रांति का नाम देते हैं. प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला सहित सात दलों के गठबंधन के किसी भी नेता ने इसकी निंदा नहीं की है. यह माओवादियों का भय ही है कि गठबंधन उनके गलत बयानों पर भी किसी टिप्पणी से बचता है.
लेकिन इस सबके बावजूद माओवादी अपनी जीत के प्रति अभी भी आश्वस्त नहीं हैं. वहां से आ रही खबरों के अनुसार उसका कैडर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में मतदाताओं को डराने और धमकाने में लगा हुआ है. प्रचंड के बयान के बाद वैसे भी उन चुनावों की कोई मर्यादा बचती नहीं है.
यही नहीं माओवादी तो प्रचंड को अभी से देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में पेश करने लगे हैं जबकि ये चुनाव संविधान सभा के हैं जिसे देश के लिए एक नया संविधान बनाना है और उसके साथ यह तय करना कि देश किस तरह की सत्ता व्यवस्था को स्वीकार करे.
माओवादी पहली बार गंभीरता से अपनी राजनीतिक ताकत को आंक रहें हैं और उनके ये बयान लोकतंत्र तथा चुनाव प्रणाली को लेकर उनकी प्रतिबद्धता पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगा देते हैं.
राजीव पांडे
2 comments:
बिल्कुल सही कहा. अब "गनतंत्र" ही आता दीखता है वहाँ. जिस तरह की प्रचंड बातें हो रही हैं, उस से तो यही लग रहा है.
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