Sunday, March 2, 2008

न्याय में देर से अंधेर

प्रशासन यदि पारदर्शी तरीके से बिना पूर्वागह के फैसले करे तो लोगों को अदालत में जाने की जरूरत ही नहीं पड़े। ऐसे मामलों की संख्या पचास पतिशत से अधिक है जहाँ सरकार मुकदमें में एक पार्टी है।
देश के प्रथम नागरिक और आम नागरिक के बीच फासला हमेशा से बना रहा है और कुछ अपवादों को छोड़ कर आजादी के साठ साल बाद भी इस फासलें में कोई कमी नहीं आई है। लेकिन जब भी किसी राष्ट्रपति ने रायसीना हिल से उतरकर आम आदमी से जुड़े मुद्दों को उठाया है यानी कि वह राजपथ से जनपथ पर आए तो कई बार वह टकराव का सबब बना है। वह तत्कालीन सरकारों को रास नहीं आयाहै और कंई बार इसने टकराव का स्वरूप ले लिया है।
शनिवार को न्यायिक सुधारों पर हुई एक महत्वपूर्ण संगोष्ठी में देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आम आदमी में कानून अपने हाथ में लेने की बढ़ती पवृत्ति पर गहरी चिंता जताई।
यह एक ऐसा विषय है जिसने आम जनमानस को तो झकझोर कर रख दिया है लेकिन सरकारी हुक्मरानों के कानों पर कोई जूं नहीं रेंगी है और न ही राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को उठाने में कोई खास दिलचस्पी दिखाई है। हाँ, यह जरूर हुआ है कि जिस प्रदेश में यह घटना हुई वहाँ दलों ने इसे कानून व्यवस्था के ठप्प होने का मामला बता और सरकार का इस्तीफा मांग कर रस्म अदायगी जरूर कर ली।
आम आदमी की इन्हीं चिन्ताओं से स्वयं राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपने को जोड़ा है जिससे इस मामले की गंभीरता और बढ जाती है।
राष्ट्रपति ने शनिवार को न्यायिक सुधारों पर हुई एक गोष्ठी में साफ-साफ शब्दों में कहा कि हमऐसी स्थिती की कतई इजाजत नहीं दे सकते जहाँ आम आदमी कानून अपने हाथ में ले और भीड़ हिंसा पर उतारू होकर स्वयं न्याय करने की कोशिश करे।
यह एक संयोग ही था कि जहां दिल्ली में श्रीमति पाटिल इस बारे में अपने विचार व्यक्त कर रहीं थीं वहीं बिहार के हाजीपुर में एक गुस्सायी भीड़ ने एक संदिग्ध अपराधी को मार-मार कर अधमरा कर दिया। यह अपराधी अब अस्पताल में जिंदगी और मौंत से संघर्ष कर रहा है। इस तरह की घटनाएं किसी एक राज्य या क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं लेकिन बिहार में यह अन्य राज्यों से कुछ ज्यादा ही हो रही हैं।
एक बात और जो सोचने को मजबूर करती है वह यह है कि जो लोग कानून को अपने हाथ में लेकर दोषी को दंड दे रहे हैं वे कोई रूआबदार या अपराधी प्रवृत्ति के लोग नहीं सीधे-सादे आम आदमी हैं। यह हो सकता है कि इस भीड़ में अपराधी मानसिकता वाले तत्व भी शामिल हों। लेकिन ऐसी कौन सी बात है जो आम आदमी को एक संवेदनहीन हत्यारा बना देती है।
क्या यह पुलिस प्रशासन या न्यायिक व्यवस्था से उठता अविश्वाश है या उसकी बढ़ती कुंठाएँ या व्यवस्था के प्रति गुस्सा। यह एक ऐसा विषय है जिस पर सरकार के साथ ही समाजशास्त्रियों को भी गहराई से विचार करना होगा।
राष्ट्रपति ने अपने भाषण में न्याय मिलने में हो रही देरी को कम करने के लिए न्यायिक प्रकिया को आसान बनाने की वकालत की। उन्होनें सीधे-सीधे तो नहीं कहा लेकिन उनका संकेत यही था कि न्याय मिलने में विलंब होना ऐसा ही है जैसे न्याय नहीं मिलना। उन्होनें अदालतों में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या को कम करने के लिए अभियान चलाए जाने की वकालत की।
प्रतिभा पाटिल की यह टिप्पणी शायद न्यायपालिका को अखरी हो कि हमें ये देखना होगा कि क्या न्यायिक मशीनरी आम नागरिक की उम्मीदों पर खरी उतरी है या नहीं। उन्होनें साथ ही जोड़ा कि किस मशीनरी में खामियाँ हैं जिन्हें न्यायिक सुधारों से दूर किया जा सकताहै।
राष्ट्रपति की यह टिप्पणी थोड़ी तल्ख जरूर है लेकिन ऐसी है जिस पर सरकार और न्यायपालिका दोनों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है इसी समाहरोहमें मुख्य मंत्री न्यायधीश के जी बालाकृष्णन का यह कहना कि अपने-आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि न्याय मिलने में देरी के लिए न्यायिक पकिया नहीं वरन पुलिस की अधकचरी और पुरानी पड़ गई जांच पकिया दोषी है।
पशासन यदि पारदर्शी तरीके से बिना पूर्वागह के फैसले करें तो लोगों को अदालत में जाने की जरीरत ही नहीं पड़े। ऐसे मामलों की संख्या पचास प्रतिशत से अधिक है जहां सरकार मुकदमें में एक पार्टी है। मुख्य न्यायधीश ने यह कहकर एक तरह से गेंद पूरी तरह सरकार के पाले में फेंक दी कि पुलिस और प्रशासन दोनों ही सरकार के मातहत हैं।
जरूरत इस बात की है कि एक दूसरे को दोष देने की सरकार विचार कर कुछ ठोस कदम उठाए तो स्थिति को बिगड़ने से रोका जा सकता है। महामहिम द्वारा केवलन्यायिक व्यवस्था को इस स्थिति के लिए जिम्मेंदार ठहराए जाने पर न्यायपालिका खुश नहीं है जो स्वाभाविक है। अच्छा होता कि राष्ट्रपति पूरी व्यवस्था को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराती। समय का तकाजा तो यही है कि इस बारे में राष्ट्रपति बहस हो कि आकाक्षांओं को पूरी करने में कामयाब रही भी है या नहीं और उसकी खामियों को पूरा करने के लिए क्या किया जा सकता है।

राजीव पांडे

2 comments:

लोकेश Lokesh said...

हमारी शासन प्रणाली मुकदमेबाजी को बढ़ावा देती है। मामले को हल करने के बजाय इसको टालने पर ज्यादा जोर रहता है। इसी टालू नीति के चलते अदालतों में मुकदमों का अंबार लग गया है। देश में ठीक से शासन नहीं चलने का खामियाजा न्यायपालिका भुगत रही है।" यह कहना है सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन का ...

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप का बहुत बहुत आभार, इस नीरस विषय पर कलम चलाने के लिए। विगत अक्टूबर से तीसरा खंबा http://teesarakhamba.blogspot.com/ ने इसी विषय पर अपना अभियान चला रखा है। आप उसके पूर्वालेखों में जाएंगे तो अनेक प्रश्नों के उत्तर आप को मिल जाएंगे।
न्याय में देरी में न्याय पालिका का दोष 2 प्रतिशत से अधिक का नहीं है, 80 प्रतिशत दोष सरकारों का है जो कि पर्याप्त मात्रा में अदालतें खोलने में रुचि नहीं ले रही है क्यों कि इस मामले में न तो कोई आंदोलन है और न ही कोई दबाव समूह। पुराने कानूनों को बदलने में भी कोई रुचि नहीं है जिस से मुकदमों की गति तीव्र हो सके। शेष 18 प्रतिशत दोष मेरी वकील बिरादरी का है जो कि अपने सेवार्थी के दबाव में मुकदमों को लम्बा करने के टोटके आजमाता रहता है, हालाँकि इस से उसे खुद को ही हानि हो रही है और इसे मेरी बिरादरी नहीं समझ पा रही है। तीसरा खंबा का मुख्य उद्देश्य भी इस बिरादरी को चेतन बनाना है।
आशा है आप तीसरा खंबा के अभियान से जुड़ेंगे। यह अभियान शीघ्र ही एक देश व्यापी आंदोलन को जन्म दे सकता है।