Monday, April 18, 2011

बदल दो राजनीति के प्यादे

मृगेंद्र पांडेय

राजनीति के प्यादे हाथी कर तरह होते हैं। वह कभी भी, कहीं भी वार कर देते हैं। उनको इस बात का अंदाजा होता है कि उनके जाने या बचने का बडा असर नहीं होने वाला है। लेकिन राजनीति के मंझे खिलाडी की हमेशा कोशिश रहती है कि प्यादे बचे रहें। कई बार प्यादे वजीर बनने में भी सफल हो जाते हैं। इस पर सवाल खडा होता है कि क्या वजीर और प्यादे की दौड के बाद बना वजीर दोनों की ताकत समान होती है। जवाब अलग-अलग आते हैं, लेकिन यह जवाब अधिकांश लोग देेते हैं। दोनों की ताकत भले ही समान मान ली जाए, लेकिन दौड के बाद बना वजीर इतना कमजोर होता है कि वह अपनी पूरी ताकत विरोधी के वार से बचने में खर्च कर देते है। अंत में उसे या तो मरना पडता है या फिर हार का सामना करना पडता है।

छत्तीसगढ की राजनीति में भी कई प्यादे खुद को बचाकर वजीर तो बन गए, लेकिन काम प्यादे का ही किया। वो लगातार हारते रहे। खुद को बचाने की जुगत में पार्टी की लुटिया डूबाते रहे। अंत में एक दिन उनको पद से हटा दिया गया। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष धनेंद्र साहू खुद विधानसभा का चुनाव नहीं जीत पाए। आज जब वे अपनी कुर्सी कांग्रेस के नए वजीर नंद कुमार पटेल को दे रहे थे, तो कहा पार्टी कार्यकर्ताओं ने उन्हें पूरा सहयोग दिया। उनके सहयोग के कारण ही वे अपना तीन साल का कार्यकाल पूरा कर पाए। अध्यक्ष के रुप में दिए अंतिम भाषण में धनेंद्र की लाचारगी, बेचारगी, चेहरे पर कुछ न कर पाने की उदासी साफ नजर आ रही थी।

तीन साल में पार्टी ने विधानसभा, लोकसभा, नगरीय निकाय और पंचायत के चुनाव में करारी हार का सामना किया। विधानसभा में जीते अधिकतर विधायक अजीत जोगी खेमे के हैं। जिनको टिकट दिलाने से लेकर जीताने तक का काम खुद जोगी ने किया। धनेंद्र को तो यहां तक पता नहीं था कि उम्मीदवार को चुनाव लडने के लिए पैसे का इंतजाम कहां से किया जाए। हाल ही में दक्षिण बस्तर के ताडमेटला गए विधायकों के दल के साथ वापस लौट रहा था तो एक वरिष्ठ विधायक ने कहा कि संजारी बालोद में साहू जी ने चुनाव में डयूटी लगा दी। चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे तो बोले होटल में रुकने का इंतजाम पार्टी ने कर दिया गया है, बिल मत देना। बिलासपुर क्षेत्र से तीन बार के विधायक जब चुनाव प्रचार करके लौटने लगे तो होटल के मैनेजर ने चाय से लेकर खाने तक का बिल थमा दिया। उन्होंने पैसा दिया और बिल जेब में रख लिया।

कुछ दिनों बाद रायपुर की कांग्रेस कमेटी में हुई एक बैठक में चुनाव परिणामों की समीक्षा हुई। बात आई कि इतना पैसा खर्च करने के बावजूद पार्टी के लोगों ने ठीक से प्रचार नहीं किया। तब विधायक महोदय ने होटल का बिल धनेंद्र साहू को थमा दिया। बोला, ऐसे मैनेजमेंट करोगे तो उम्मीदवार हारेगा नहीं, तो क्या जीतेगा। यह तो महज एक बानगी है। ऐसे सैकडों वाकया हैं, जो प्यादे से वजीर बने की ताकत का एहसास कराते हैं। खैर, नए अध्यक्ष को वजीर माना जा रहा है। देखते हैं नई कार्यकारिणी में वे कितने प्यादे और कितने वजीर शामिल करते हैं।

Sunday, April 17, 2011

छत्तीसगढ में कांग्रेस की राहुल ब्रिगेड कब!

नए प्रदेश अध्यक्ष से काफी उम्मीद, चुनौतीपूर्ण होगा राहुल के सपनों की टीम चुनना

मृगेंद्र पांडेय

कांग्रेस की राजनीति में छत्तीसगढ के छत्रपों को बदलने का वक्त का गया है। एक दशक की राजनीति में छत्तीसगढ में छह छत्रपों का राज रहा। ये छत्रप पार्टी को वह दिशा नहीं दे सके, जिसकी इनसे उम्मीद की गई थी। नया राज्य बनने के बाद हुए दोनों विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पडा। इस दौरान इन छत्रपों की मनमानी के आगे आलाकमान लाचार था। कोई भी नया प्रयोग करने में पार्टी ने हमेशा अपने पैर पीछे ही रखे। इसका असर मतदाताओं की सोच पर भी पडा।

लोकतंत्र की नंबर वाली भीड में प्रयोग से बचती कांग्रेस के हाथ आम आदमी से दूर होते गए। अब लंबे समय बाद एक उम्मीद जगी है। कांग्रेस ने पार्टी अध्यक्ष के लिए एक ऐसे नेता का चयन किया है, जो तेज-तर्रार है। जिसके पास प्रदेश में बिखरी कांग्रेस को जोडने का माददा है। जो कांग्रेस के जोगी गुट के नजदीक भी है और दूर भी। नए अध्यक्ष पर नए सिरे से प्रदेश में पार्टी को खडा करने का दबाब है। ऐसी पार्टी जो अतीत की नींव पर भविष्य की नींव हो। मतलब साफ है प्रदेश की इंदिरा कांग्रेस में राहुल ब्रिगेड को मौका देना ही होगा।

राहुल गांधी में सक्रिय राजनीति में युवक कांग्रेस और भारतीय राष्टीय छात्र संगठन की जिम्मेदारी संभाल रखी है। इन दोनों संगठनों में राहुल आने वाली कांग्रेस में अपनी ब्रिगेड खडी करने की तैयारी में हैं। लोकसभा चुनाव में भी 80 से ज्याद युवाओं को और केरल, पश्चिम बंगाल और असम विधानसभा चुनाव में 20 फीसदी के करीब युवाओं को टिकट दिलाकर यह संकेत भी दे दिया है कि अब प्रदेशों में और विधानसभा में भी राहुल ब्रिगेड ही चलेगी। ऐसे में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के सामने उन सक्रिय युवाओं को खोजने और निखारने की जिम्मेदारी होगी, जो 35 से 45 की उम्र के हों। इन युवाओं को जिम्मेदारी देने से पार्टी में लंबे समय से जमे छत्रपों को आसानी से किनारे भी किया जा सकता है और शांत पडी पार्टी में नया जोश भी फूंका जा सकता है। अगर नंद कुमार पटेल अपनी टीम में 20 फीसदी युवाओं को मौका दे देते हैं, तो प्रदेश में भाजपा सरकार के लिए मुश्किलें जरुर खडी हो सकती है।

प्रदेश कार्यकारिणी में आए नए युवाओं पर खुद को साबित करने का दबाव तो रहेगा ही, साथ ही पटेल उनसे योजनाबदृध तरीके से काम भी ले सकते हैं। पिछले चुनावों में हार का बडा कारण छत्रपों के आगे कमजोर प्रदेश अध्यक्ष को माना गया है। ऐसे में छत्रपों को किनारे कर नंद कुमार युवाओं को मौका देने की सोचें तो पार्टी में नई पौध विकसित हो सकती है। लेकिन ऐसा करने में नंदकुमार को अपनी कुर्सी जाने का भी डर बना रहेगा। प्रदेश कांग्रेस भवन में तो इस बात की चर्चा है कि नए प्रदेश अध्यक्ष के साथ एक-दो महीने में कार्यकारी अध्यक्ष की भी घोषणा हो जाएगी। मतलब फिर कांग्रेस ढाक के तीन पात होगी। अगर ऐसा होता है तो एक बार फिर प्रदेश को कांग्रेस की राहुल ब्रिगेड के लिए इंतजार ही करना होगा।

रमन सिंह की शांति-पहल के निहितार्थ

अनुज शुक्ला
पिछले कई दिनों से छत्तीसगढ़ राज्य डा.विनायक सेन को लेकर राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय बहसों के केंद्र में रहा है। राज्य की मौजूदा
प्रवृत्तियों के आधार पर वहां लोकतंत्र को लेकर तमाम तरीके की आशंकाएँ
व्यक्त की जा रही हैं। दस साल पहले कुछ बुनियादी जरूरतों में सुधार को
लेकर राज्य गठन की प्रक्रिया को बल दिया गया था और यह माना गया था कि
अनुसूचित जातियों और जनजातियों की लगभग आधी आबादी वाले इस राज्य में नए
राज्य बनने के बाद, वर्षों-पर्यंत चली आ रही समस्याओं का समाधान कर लिया
जाएगा। समाधान तो संभव नहीं हुआ लेकिन वैश्वीकरण की प्रक्रिया में विकास
के नाम पर एक राज्य के शैशवी सपनों और कौमार्य का गला घोट दिया गया।

उनकी आँखों के सामने ही कार्पोरेटीय पिट्ठुओं के माध्यम से पूरी की पूरी
सभ्यता को नष्ट करने का दुस्साहसी उपक्रम किया जाने लगा। यह निश्चित ही
सत्य माना जाएगा कि पिछले कई दिनों से राज्य नक्सलवाद को लेकर
समस्याग्रस्त रहा है। लेकिन क्या नक्सली हिंसा के इस सत्र में सारा
दोषारोपण पक्ष विशेष पर किया जाना न्यायसंगत होगा, जबकि ऐसे कोई आधार
नहीं मिलते कि राज्य के ऊपर लगे आरोपों को भी बेबुनियाद साबित किया जा
सके? बहरहाल एक राज्य का यह अपना राजनीतिक मामला हो सकता है। लेकिन देश
के अन्य हिस्सों की हजारो-हजार जनता यह अवश्य जानना चाहेगी कि वाकई वहां
हो क्या रहा है? छत्तीसगढ़ की स्थिति और पुलिसिया आतंक का अंदाजा एक
पत्रकार के इस बयान से लगाया जा सकता है कि ‘वहां जाकर सारी जिंदगी जेल
में नहीं गुजारनी है’।

अभी हाल के दिनों में राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने एक प्रेस कान्फ्रेंस और बीबीसी को दिए साक्षात्कार में यह बयान
दिया कि ‘ मैं हर हाल में राज्य में शांति का पक्षधर हूँ’। छत्तीसगढ़ एक विपन्न राज्य की भयावह कहानी है जहां आंकडों के गोलमाल के द्वारा देश-विदेश के दूसरे हिस्सों में भ्रामक सूचनाओं का
सरकारी प्रसार किया जा रहा है। उदाहरण स्वरूप रमन सिंह का यह विज्ञापन
देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपवाया गया कि ‘छत्तीसगढ़ में पाँच सालों
में विकास दर 10.5 फीसदी दर्ज की गई जो मोदी के अतुल्य गुजरात से भी
ज्यादा है’ और एक अनुमान में कहा गया है कि यह 2011 में 11.47 फीसदी तक
पहुँच जाएगा। कृषि दर भी 2.3 के राष्ट्रीय दर की अपेक्षा 4.7 फीसदी है जो
अगले साल छः फीसदी के जादुई आंकड़े को पार कर जायेगी। इन आंकडों पर दूसरी
अन्य सरकारी और गैर सरकारी सांख्यिकीय संस्थाएं अट्ठहास कर रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड व्यूरों के अनुसार 2009 में छत्तीसगढ़ में 18011
पात्र किसान आत्महत्याएँ हुई हैं, जो विदर्भ के पात्र किसान आत्महत्याओं
से भी ज्यादा हैं। इन आंकडों को लेकर राज्य सरकार और राष्ट्रीय अपराध
रिकार्ड व्यूरो के बीच मतभेद भी व्याप्त है। जहां विशेषज्ञों का यह मानना
है कि राज्य में आत्महत्याओं को दर्ज करने की पुलिसिया तकनीकी के कारण
ये काफी कम मात्रा में दर्ज की जा सकी हैं जबकि राज्य में इससे कहीं
ज्यादा आत्महत्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर छत्तीसगढ़
प्रशासन अपने बयानों के द्वारा यह आरोप चस्पा कर रहा है कि ये आंकड़े भी
पूर्वाग्रही हैं।

मानो बहस का यह मुद्दा नहीं है कि समस्या का समाधान
कैसे किया जाय बल्कि यह साबित करने का प्रयास हो रहा है कि तुम्हारे यहां
के मुक़ाबले हमारे यहां समस्या कम है। ठीक वैसे ही जैसे महिला उत्पीड़न के
मामलों को लेकर दिल्ली और उत्तर प्रदेश परस्पर एक दूसरे को बढ़ा-चढ़ा कर
पेश करते हैं। चलिए एक क्षण के लिए यह मान लिया जाय कि ये आंकड़े
विरोधाभास लिए हुए हैं लेकिन काबिलेगौर है कि जब राज्य में कृषि विकास की
राष्ट्रीय दर 4.7 फीसदी है तो आखिर वे कौन से कारण हैं जिनसे 18011 किसान
आत्महत्याएं हुई हैं? यह राज्य के कृषि विकास दर की बेबुनियाद बढ़त की पोल
खोलता है। छत्तीस गढ़ का एक कटु सत्य है कि वहाँ के खेतिहर किसान आर्थिक
विपन्नता के कारण देश के अन्य हिस्सों में मजदूरी के लिए पलायन कर रहे
हैं। दूसरी ओर जिस 65 फीसदी बजट को राज्य स्वयं जुटाने की बात कर रहा है
उसकी भी सच्चाई उजागर की जानी चाहिए। क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि
इस 65 फीसदी हिस्सेदारी में एक बड़ा हिस्सा राज्य के निगमीकरण के कारण
प्राप्त हो रहा है। राज्यों के खनिजों के दोहन के लिए निगमों द्वारा
प्रदान किया जा रहा है। आखिर जब राज्य अपने बजट का 45 फीसदी हिस्सा
आदिवासियों और अनुसूचित जन जातियों पर खर्च कर रहा है तो फिर क्यों आज
बिहार और उत्तर प्रदेश की बजाय छत्तीसगढ़ की आबादी रोजगार के लिए
पर-प्रान्तों की ओर पलायन कर रही है।

रमन सिंह का पूरा इशारा शांति और तथाकथित विकास के आलाप की ओर है। लेकिन
शांति का आधार क्या? राज्य के आलोकतांत्रिक रवैये की तरफ ध्यान न दिया
जाना या हर हाल में सिर्फ और सिर्फ चुप रहना। राज्य के नागरिकों में रमन
सिंह सरकार को लेकर जैसा लोकतान्त्रिक भय बना हुआ है क्या वह किसी भी ढंग
से जनतंत्र के लिए शुभ कदम माना जाएगा। क्योंकि असहमति को राज्य सीधे
तौर पर देशद्रोह की कृत्यों के साथ जोड़ कर देख रही है। सरकार का
नक्सलियों पर यह आरोप कि वह राज्य में आदिवासी बच्चों को 12 साल की उम्र
में बंदूक पकड़ा देती है तो रमन सरकार भी इस आरोप से नहीं उबर सकती कि
उसने सलवा जुड़ूम के नाम पर हजारों नाबालिक आदिवासियों को कलम और किताबें
देने की बजाय बंदूके पकड़ाकर कभी न थमने वाले हिंसा के रसातल में धकेला
है। पिछले सात सालों में गतिरोध को कम करने की बजाय दमनकारी और
ध्वंसात्मक तरीके से इसे बढ़ाने का ही काम किया। दरअसल राज्य में जन
विरोधी विचारधारा के प्रति संवेदना रखना, राज्य की असंवैधानिक
कार्रवाइयों के खिलाफ असहमति व्यक्त करना छत्तीसगढ़ी होने का राजकीय
अभिशाप है ।

अनुज शुक्ला.(स्वतंत्र पत्रकार)

छत्तीसगढ़ में वापस लौटे ‘अंग्रेज’

विजय प्रताप

केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले दिनों एक अधिसूचना जारी की। इसमें नक्सल प्रभावित जिलों में वन कानूनों में छूट देने की बात कही गई। वन संरक्षण अधिनियम, 1980 की धारा 2 में संशोधन के जरिये दी जाने वाली इस छूट से नक्सल प्रभावित इलाकों में पुलिस और सुरक्षा बलों को नई चौकियां स्थापित करने में मदद मिलेगी। अभी तक वन संरक्षण से जुड़े कानून पुलिस को वहां स्थायी चौकियां स्थापित करने की इजाजत नहीं देते थे। लेकिन पिछले दिनों से जैसे-जैसे नक्सल प्रभावित देश के मध्यवर्ती प्रदेशों में सुरक्षा बलों की आमदरफ्त बढ़ी है, सुरक्षा बलों के लिए स्थायी चौकियों की जरुरत महसूस की जा रही थी।

सरकार का यह फैसला इतिहास का दुहराव है। आज जिन इलाकों को नक्सल प्रभावित के रूप में चिन्हित किया जा रहा है और वहां स्थायी पुलिस चौकियां स्थापित करने की मांग की जा रही है, ऐसी ही कोशिश डेढ़-दो सौ साल पहले भी इन इलाकों में अंग्रेजी हुकूमत ने की थी। तब छोटा नागपुर और सांथाल परगना के समृद्ध इलाकों का दोहन करने के लिए अंग्रेजों ने पहले बाहरी लोगों को इन इलाकों में भेजा। फिर उनके जरिये इन इलाकों का दोहन शुरू कर दिया, जिसके बाद आदिवासियों से उनके टकराव बढ़ने लगा। तब अंग्रेजों ने कानून व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर आदिवासी इलाकों में पुलिस चौकियां स्थापित करनी शुरू कर दी। आजाद ख्याल आदिवासियों को बाहरी लोगों की यह दखलंदाजी पसंद नहीं आई और उन्होंने इसका संगठित प्रतिरोध किया। परिणामस्वरूप आज इन इलाकों में सिद्धू-कानू, बिरसा मुंडा, चोट्टिी मुंडा और उन जैसे अनेक आदिवासी वीरों की कहानियां हमारे सामने हैं। मातृभूमि की रक्षा के लिए यह आदिवासी विद्रोहों के परम्परा की शुरुआत थी।

अब जरा उन डेढ़-दो सौ साल पहले के आदिवासी विद्रोहों को आज के संदर्भों में रखकर देखें। छोटा नागपुर, सांथाल परगना के इलाके झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के नाम से आज भी मौजूद हैं। आज उन जंगलों में फिर नए सिरे से पुलिस चौकियां स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन अब यह काम अंग्रेजी सरकार नहीं बल्कि भारतीय सरकार कर रही है। यह वही भारतीय सरकार है जो समय-समय पर आदिवासियों को ‘अपना’ कहती है। आदिवासियों के समक्ष भी यह दुहरी चुनौती है। पहले जो अंग्रेज आये उनका चरित्र साफ था। वह बाहरी थे और उनके खिलाफ आदिवासी क्षेत्र के बाहर भी आक्रोश था। यहां सरकार आदिवासियों को ‘अपना’ तो कहती है, लेकिन काम वही अंग्रेजों जैसा कर रही है। अंग्रेजों की तरह भारत सरकार भी आदिवासियों के समृद्ध इलाकों का दोहन करने के लिए उन्हंे अपने जमीन से उखाड़ देना चाहती है। एक तरफ वन अधिकार कानून के जरिये उन्हें वन भूमि पर अधिकार देने की बात की जाती है, तो दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर उन्हें उनके गांवों से निकाल कर अस्थायी कैम्पों में बसाया जा रहा है। हास्यास्पद यह कि राज्य सरकार द्वारा इसे ‘विकास’ का नाम दिया जा रहा है। कुछ वैसा ही विकास जैसा की अंग्रेज मिशनरियां आदिवासियों को अपने मिशन में भर्ती कर उन्हें ‘सभ्य’ करने की कोशिश करती रही हैं। आदिवासियों के प्रति अंग्रेजी सरकार या भारत सरकार के चरित्र में कोई मूलभूत अंतर नहीं है।

दरअसल यही ऐतिहासिक कारण है कि भारत सरकार को इन इलाकों में और अधिक पुलिस चौकियां स्थापित करने की जरुरत महसूस हो रही है। आदिवासियों को ‘अपना’ कहने वाली सरकारों ने कभी भी उन्हें वनभूमि पर वास्तविक कब्जा दिलाने में ऐसी तत्परता नहीं दिखायी, जैसा की वह पुलिस चौकियां स्थापित करने के कानूनों में परिवर्तन कर रही हैं। ऐसे इलाकों में पुलिस या सुरक्षा बलों के संबंद्ध में यह बात किसी से छिपी नहीं है कि वह जब जंगल के भीतर आदिवासी गांवों में प्रवेश करती है तो कैसा कहर ढाती है। सत्ता, उन्हें जिस दुविधा और असुरक्षा भरे माहौल में रखती है, वह आम ग्रामीण और हथियारबंद माओवादी में अंतर नहीं कर पाते। उनको जंगलों में बसा हर आदिवासी खतरनाक माओवादी या उसका मुखबिर लगता है। आदिवासी महिलाओं-बच्चों को जलील करना, उनके अनाजों में किरोसीन तेल मिला देना या उनकी मुर्गियां-पशु चुरा ले जाना सुरक्षा बलों की जांच का आम तरीका है।

नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारें पहले भी शांति स्थापना के नाम पर स्कूल, अस्पतालों और सरकारी भवनों को सैन्य छावनी के रूप में प्रयोग करती रही हैं। इसीलिए इन इलाकों में ऐसे भवन नक्सली या माओवादियों के निशाने पर होते हैं। उनका इरादा स्कूल या अस्पताल को ढहाना नहीं होता, बल्कि वह इसके नाम पर छावनी में तब्दील कर दिये गए भवनों को नष्ट करते हैं। अब सरकार सीधे वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करके आदिवासियों के प्रति अपने हिंसक मंसूबों को एक बार फिर जाहिर कर चुकी है। यह सबकुछ इन इलाकों को माओवादियों से मुक्त करने और यहां शांति स्थापित करने के नाम पर किया जा रहा है। जबकि इतिहास गवाह है कि पुलिस चौकियां या सैन्य छावनियां बनाने से नहीं बल्कि इन्हें हटाने से ही ऐसे इलाकों में शांति स्थापित हो सका है। शांति स्थापना के इस खेल में पुलिस चौकियांे का बनना और आदिवासियों का प्रतिरोध दोनों ही इतिहास का दुहराव है।


विजय प्रताप,स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता. इनसे vijai.media@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

हिंदुत्ववादी आतंकवाद का पर्दाफाश करती है भगवा युद्ध: संदीप पाण्डे

योगी की राजनीति सामाजिक ताने-बाने के लिए खतरा: रूपरेखा वर्मा
डॉक्यूमेंट्री फिल्म भगवा युद्ध का प्रदर्शन

फिल्म के प्रदर्शन में उपस्थित लोग


लखनऊ। भाजपा संसद और गोरखनाथ पीठ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ द्वारा पूर्वांचल में की जा रही साम्प्रदायिक आतंकी राजनीति पर आधारित डॉक्यूमेंट्र फिल्म भगवा युद्ध: एक युद्ध राष्ट्र के विरुद्ध का शनिवार को प्रेस क्लब में प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म हिंदुवादी संगठनों की आतंकी गतिविधियों का पर्दाफाश करती है।
फिल्म के बाद आयोजित परिचर्चा को संबोधित करते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता संदीप पाण्डे ने कहा कि पूर्वांचल में यह प्रयोग लम्बे समय से चल रहा है और इसे लगातार सरकार व प्रशासन द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा है। योगी आदित्यनाथ और उनके संरक्षण में चलाई जा रही हिंदु युवा वाहिनी के लोग पूर्वांचल में कई दंगों व नरसंहारों के लिए जिम्मेदार हैं। पिछले दिनों ही खलीलाबाद जा रहे एक मुस्लिम युवक सोहराब की हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी। ऐसे में यह फिल्म वहां चल रहे साम्प्रदायिक प्रयोगों का उजागर करती है। एडवोकेट मुहम्मद शुएब ने कहा कि भगवा युद्ध न केवल एक समुदाय विशेष के खिलाफ की जा रही आतंकी गतिविधियों को सामने लाती है, बल्कि बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के दलितों, महिलाओं व बच्चों में साम्प्रदायिकता के विषरोपण को सामने लाती है।
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति व साझी दुनिया की सचिव रूपरेखा वर्मा ने कहा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश दबंगों के चंगुल में है। फिरकापरस्त ताकतों ने वहां का सामाजिक ताना-बाना महिला विरोधी बना रखा है। अयोध्या के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने कहा कि आदित्य नाथ योगी परम्परा के विरुद्ध ऐसी परम्परा की रचना कर रहे हैं जिसमें योगी, बदमाश के रूप में सामने आया रहा है। उन्होंने कहा कि यह फिल्म ऐसे प्रयोगों का पर्दाफाश करती है।
हिंदी में बनी 43 मिनट की इस फिल्म का निर्देशन युवा फिल्मकार राजीव यादव, शाहनवाज आलम और लक्ष्मण प्रसाद ने किया है। इस प्रदर्शन में प्रो. नदीम हसनैन, अरुधंती धुरू, शीतला सिंह, सुमन गुप्ता, अम्बरीश कुमार, सिद्धार्थ कलहंस, रणधीर सिंह सुमन, लाल बहादुर सिंह, एकता सिंह, रवि शेखर सहित शहर के विभिन्न सामाजिक संगठनों के लोग और बुद्धिजीवियों ने भाग लिया।
द्वारा
स्ंदीप पाण्डे, एड. मुहम्मद शुएब
09415254919, 09415012666, 09452800752

Saturday, April 16, 2011

अन्ना के आंदोलन के मायने

संदीप पांडे

अन्ना हजारे ने देश में भूचाल-सा ला दिया। उन्होंने स्थापित राजनीति को ऐसी चुनौती दे डाली कि राजनीतिज्ञों की बिरादरी थोड़ी-सी घबराई है। उनके ऊपर आरोप लग रहा है कि उन्होंने संविधान से परे जाकर व्यवस्था में बदलाव लाने हेतु दबाव बनाने का अनुचित तरीका अपनाया। लालकृष्ण आडवाणी को लगता है कि नेताओं के प्रति नफरत पैदा करना लोकतंत्र के लिए खतरा है।

हकीकत तो यह है कि जनता आजिज आ चुकी है। वह देखती है कि जनप्रतिनिधि चुने जाने के थोड़े ही दिनों बाद नेता अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा धन जुटा लेता है। उसके रहन-सहन का तरीका ही बदल जाता है। संसद में जनप्रतिनिधि अपने लिए सुविधाएं बढ़ाते चले जाते हैं, जबकि बहुसंख्यक जनता अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी न्यूनतम ढंग से पूरा कर पाने में नाकाम है। इससे भी उनका काम नहीं चलता तो वे भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके खोजते हैं। अपनी निधि बढ़वाने से लेकर तमाम परियोजनाओं, विकास व कल्याणकारी योजनाओं में बंदरबांट हेतु प्रतिस्पर्धा तो चलती ही रहती है। इसमें नौकरशाह भी पूरी तरह लिप्त होते हैं। इसीलिए उनको भी आसानी से छठा वेतन आयोग मिल जाता है। हद तो यहां तक हो गई कि संसद में सवाल पूछने के भी पैसे लिए जाने लगे। आधे से अधिक लोकसभा सदस्य करोड़पति हैं तो एक-तिहाई के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इससे मालूम होता है कि किस तरह के लोग, किस तरह से संसद में पहुंचते हैं। भ्रष्टाचार के पैसे से दलों की राजनीति पोषित होती है। ऐसे सांसद ढूंढ़ने से ही मिलेंगे, जो चुनाव आयोग द्वारा तय की गई चुनाव प्रचार पर 25 लाख रुपए की सीमा के अंदर खर्च कर चुनाव जीतकर आए हों। सारे नियम-कानून ताक पर रखकर निहित स्वार्थ के लिए राजनीतिक प्रक्रिया को बंधक बनाए रखने वाले राजनीतिज्ञ नहीं चाहते कि उनकी कार्यशैली पर कोई सवाल उठाए। खासकर उनकी बिरादरी के बाहर का कोई व्यक्ति। वर्तमान राजनीति के आधार हैं भ्रष्टाचार व हिंसा। वाम से लेकर दक्षिणपंथ तक की विचारधाराओं को मानने वाले दल इन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। बाबरी मस्जिद गिराकर इस देश में आतंकवाद की राजनीति की नींव रखने वाले तथा जिनके मातृ संगठन पर पांच बम विस्फोट अंजाम देने का आरोप हो और जिसकी राजनीति का आधार ही मुसलमानों के खिलाफ नफरत का ध्रुवीकरण हो, ऐसे आडवाणी को नेताओं के प्रति नफरत की बड़ी चिंता है।

अन्ना हजारे के आंदोलन में जबर्दस्त जनउभार देखने को मिला, क्योंकि जनता के बीच राजनेता अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। मुख्यधारा के किसी दल की लोकतंत्र को मजबूत करने में रुचि नहीं है। ज्यादातर तो परिवारवाद का शिकार हो चुके हैं। देश के दूसरे सबसे बड़े दल की विचारधारा ही लोकतंत्र से मेल नहीं खाती। पश्चिम बंगाल व केरल में जिस तरह वाम दलों ने सरकारें चलाई हैं, उससे उनमें भी कोई विशेष विश्वास नहीं बनता। जिन दलों में आंतरिक लोकतंत्र न हो, क्या हम उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे लोकतांत्रिक ढंग से सरकारें चलाएंगे? सभी येन-केन-प्रकारेण जीतने की रणनीति बनाते हैं। इनके अल्पकालिक उद्देश्य होते हैं। जनता का भरोसा इनसे उठने लगा है।

इसीलिए जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के अनशन स्थल पर जो राजनेता आया, उसे काफी जलालत झेलनी पड़ी। यह जनता का भ्रष्टाचार को लेकर आक्रोश है, जो फूटा। यह आक्रोश सिर्फ नेताओं को नहीं, बल्कि उन पत्रकारों को भी झेलना पड़ा, जिनका नाम नीरा राडिया प्रकरण में आया है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि 2जी स्पेक्ट्रम पर लीपापोती का प्रयास करने वाले कपिल सिब्बल का किसी किस्म का विरोध नहीं हुआ। बल्कि वे तो विधेयक का मसौदा बनाने वाली समिति में शामिल हैं। कपिल सिब्बल ने इस समिति के गठन के बाद बयान दे दिया कि लोकपाल कानून से कुछ नहीं होने वाला। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या लोकपाल कानून से सभी को शिक्षा या पेयजल मिल जाएगा? दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह ने बयान दिया है कि अन्ना हजारे के अनशन पर हुए खर्च की जांच होनी चाहिए व उद्योगपतियों और गैर-सरकारी संस्थाओं को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए। अब कपिल सिब्बल से पूछा जाना चाहिए कि मानव संसाधन मंत्री के रूप में इसी सरकार में उन्होंने शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो बनवाया, लेकिन समान शिक्षा प्रणाली को न लागू कर उन्होंने ही तो देश के अधिकांश बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित कर रखा है। इसी तरह दिग्विजय सिंह सत्ता दल से जुड़े हुए हैं और जो सुझाव दे रहे हैं, उसे क्रियान्वित क्यों नहीं करवाते हैं? इन नेताओं की बयानबाजी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में राजनीतिज्ञों के खिलाफ उभरे आक्रोश से उपजी तिलमिलाहट है।

जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के परिपक्व होने के आसार दिख रहे हैं। जनता मताधिकार से संतुष्ट नहीं थी तो उसने सूचना के अधिकार हेतु मुहिम चलाई। अब वह निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी चाहती है। इसमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं है कि जनता के नुमाइंदे किसी विधेयक का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल हों। बल्कि अन्ना के आंदोलन के निहितार्थ ये हैं कि प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र में विश्वास समाप्त हो जाने के कारण जनता लोकतंत्र के संचालन हेतु निर्णय प्रक्रिया में सीधा हस्तक्षेप चाह रही है। उसे भरोसा नहीं रह गया है कि विधायिका व कार्यपालिका उसके हित में ही फैसले करेंगी। इसलिए, जैसाकि लोकतंत्र में होना ही चाहिए, वह सरकार पर नियंत्रण कायम करना चाहती है। इसमें नेताओं को अपना अपमान नहीं समझना चाहिए। यदि नेता और नौकरशाह ठीक तरीके से व्यवस्था चला रहे होते तो ऐसी नौबत नहीं आती। न्यायपालिका ने भी अपनी जिम्मेदारी ठीक तरीके से नहीं निभाई। वह भी शासक वर्ग के भ्रष्टाचार के पक्ष में ही खड़ी दिखाई पड़ी। एक अच्छा उदाहरण है भोपाल गैस कांड का। ऐसे में जनता के पास दो ही विकल्प थे। अन्याय बर्दाश्त करते हुए जीना या सड़क पर निकल आना। अन्ना बहाना बन गए और जनता का गुबार फूट पड़ा। यदि व्यवस्था का संचालन करने वाले अब भी सबक लें तो बेहतर है। गनीमत मानिए कि अन्ना के केंद्र में रहने की वजह से यह आंदोलन पूरी तरह अनुशासित व शांतिपूर्ण रहा है।

अन्ना हजारे की मीडिया रणनीतियां

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अन्ना हजारे -अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव के बयानों में एक खास किस्म का भ्रष्टाचार निरंतर चल रहा है। इन लोगों की बातों और समझ में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। यह एनजीओ राजनीति विमर्श की पुरानी बीमारी है। जन लोकपाल बिल का लक्ष्य है आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सक्रिय कानूनी तंत्र का गठन। यह बहुत ही सीमित उद्देश्य है। निश्चित रूप से इतने सीमित लक्ष्य की जंग को आप धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, संघ परिवार आदि के पचड़ों नहीं फंसा सकते।

अरविंद केजरीवाल ने 14 अप्रैल 2011 को टाइम्स आफ इण्डिया में लिखे अपने स्पष्टीकरण में साफ कहा है कि “हमारा आंदोलन धर्मनिरपेक्ष और गैरदलीय है।” सतह पर इस बयान से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। समस्या है अन्ना हजारे के कर्म की। वे क्या बयान देते हैं उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उनका कर्म। पर्यावरण के नाम पर उन्होंने जो आंदोलन चलाया हुआ है और अपने हरित गांवों में जो सांस्कृतिक वातावरण पैदा किया है वो उनके विचारधारात्मक चरित्र को समझने के लिए काफी है। कायदे से अरविंद केजरीवाल को मुकुल शर्मा के द्वारा काफिला डॉट कॉम पर लिखे लेख का जबाब देना चाहिए। बेहतर तो यही होता कि अन्ना हजारे स्वयं जबाव दें।

अरविंद केजरीवाल का टाइम्स ऑफ इण्डिया में जो जबाव छपा है वह अन्ना हजारे को धर्मनिरपेक्ष नहीं बना सकता। अन्ना ने पर्यावरण को धर्म से जोड़ा है। पर्यावरण संरक्षण का धर्म से कोई संबंध नहीं है। अन्ना ने पर्यावरण संरक्षण को हिन्दू संस्कारों और रीति-रिवाजों से जोड़ा है। अन्ना का सार्वजनिक आंदोलन को धर्म से जोड़ना अपने आप में साम्प्रदायिक कदम है।

अन्ना के तथाकथित एनजीओ आंदोलन की धुरी है संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारधारा। जिसकी किसी भी समझ से हिमायत नहीं की जा सकती। अन्ना हजारे को लेकर चूंकि मीडिया में महिमामंडन चल रहा है और अन्ना इस महिमामंडन को भुना रहे हैं, इसलिए उनके इस वर्गीय चरित्र की मीमांसा करने की भी जरूरत महसूस नहीं की गई ।

अन्ना ने अपने एक बयान में कहा है कि ” मेरा अनशन किसी सरकार या व्यक्ति के खिलाफ पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं था बल्कि वह तो भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्योंकि इसका आम आदमी पर सीधे बोझा पड़ रहा है।” अन्ना का यह बयान एकसिरे से गलत है अन्ना ने अनशन के साथ ही अपना स्टैंण्ड बदला है। अन्ना का आरंभ में कहना था केन्द्र सरकार संयुक्त मसौदा समिति की घोषणा कर दे मैं अपना अनशन खत्म कर दूँगा। बाद में अन्ना को लगा कि केन्द्र सरकार उनके संयुक्त मसौदा समिति के प्रस्ताव को तुरंत मान लेगी और ऐसे में अन्ना ने तुरंत एक नयी मांग जोड़ी कि मसौदा समिति का अध्यक्ष उस व्यक्ति को बनाया जाए जिसका नाम अन्ना दें। केन्द्र ने जब इसे मानने से इंकार किया तो अन्ना ने तुरंत मिजाज बदला और संयुक्त अध्यक्ष का सुझाव दिया लेकिन सरकार ने यह भी नहीं माना और अंत में अध्यक्ष सरकारी मंत्री बना और सह-अध्यक्ष गैर सरकारी शांतिभूषण जी बने। लेकिन दिलचस्प बात यह हुई कि अन्ना इस समिति में आ गए। जबकि वे आरंभ में स्वयं नहीं रहना चाहते थे। मात्र एक कमेटी के निर्माण के लिए अन्ना ने जिस तरह प्रतिपल अपने फैसले बदले उससे साफ हो गया कि पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा था।

अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे मनीपावर भी काम करती रही है इसका साक्षात प्रमाण है मात्र 4 दिन में इस आंदोलन के लिए मिला 83 लाख रूपये चंदा और इस समिति के लोगों ने इसमें से तकरीबन 32 लाख रूपये खर्च भी कर दिए। टाइम्स ऑफ इण्डिया में 15 अप्रैल 2011 को प्रकाशित बयान में इस ग्रुप ने कहा है -

“it has received a total donation of Rs 82,87,668.”.. “spokesperson said, they have spent Rs 32,69,900.” यानी अन्ना हजारे के लिए आंदोलन हेतु संसाधनों की कोई कमी नहीं थी। मात्र 4 दिनों 83 लाख चंदे का उठना इस बात का संकेत है कि अन्ना के पीछे समर्थ लॉबी काम करती रही है। अन्ना हजारे के आंदोलन की मीडिया हाइप का यह सीधे फल है जो अन्ना के भक्तों को मिला है। एनजीओ संस्कृति नियोजित पूंजी की संस्कृति है। स्वतःस्फूर्त संस्कृति नहीं है बल्कि निर्मित वातावरण की संस्कृति है।

एनजीओ समुदाय में काम करने वाले लोगों की अपनी राजनीति है।विचारधारा है और वर्गीय भूमिका भी है। वे परंपरागत दलीय राजनीति के विकल्प के रूप में काम करते रहे हैं। अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे जो लोग हठात सक्रिय हुए हैं उनमें एक बड़ा अंश ऐसे लोगों का है जो विचारों से संकीर्णतावादी हैं।

मीडिया उन्माद,अन्ना हजारे की संकीर्ण वैचारिक प्रकृति और भ्रष्टाचार इन तीनों के पीछे सक्रिय सामाजिक शक्तियों के विचारधारा त्मक स्वरूप का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए। इस प्रसंग में इंटरनेट पर सक्रिय भ्रष्टाचार विरोधी फेसबुक मंच पर आयी टिप्पणियों का सामाजिक संकीर्ण विचारों के नजरिए से अध्ययन करना बेहतर होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय लोग इतने संकीर्ण और स्वभाव से फासिस्ट हैं कि वे अन्ना हजारे के सुझाव से इतर यदि कोई व्यक्ति सुझाव दे रहा है तो उसके खिलाफ अपशब्दों का जमकर प्रयोग कर रहे हैं। वे इतने असहिष्णु हैं कि अन्ना की सामान्य सी भी आलोचना करने वाले पर व्यक्तिगत कीचड उछाल रहे हैं। औगात दिखा देने की धमकियां दे रहे हैं। यह अन्ना के पीछे सक्रिय फासिज्म है।

अन्ना की आलोचना को न मानना,आलोचना करने वालों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार करना संकीर्णतावाद है। इस संकीर्णतावाद की जड़ें भूमंडलीकरण में हैं। अन्ना हजारे और उनकी भक्तमंडली के सामाजिक चरित्र में व्याप्त इस संकीर्णतावाद का ही परिणाम है कि अन्ना हजारे स्वयं भी कपिल सिब्बल की सामान्य सी टिप्पणी पर भड़क गए और उनसे मसौदा कमेटी से तुरंत हट जाने की मांग कर बैठे।

अन्ना हजारे फिनोमना हमारे सत्ता सर्किल में पैदा हुए संकीर्णतावाद का एनजीओ रूप है जिसका समाजविज्ञान में भी व्यापक आधार है। वरना यह कैसे हो सकता है कि अन्ना हजारे के संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारों को जानने के बाबजूद बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक मनोदशा के लोग उनके साथ हैं। ये ही लोग प्रत्यक्षतः आरएसएस के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन अन्ना हजारे के साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं जबकि अन्ना के विचार उदार नहीं संकीर्ण हैं। इससे यह भी पता चलता है कि एजीओ संस्कृति की आड़ में संकीर्णतावादी -प्रतिगामी विचारों की जमकर खेती हो रही है,उनका तेजी से मध्यवर्ग में प्रचार-प्रसार हो रहा है।

अन्ना मार्का संकीर्ण विचार के प्रसार का बड़ा कारण है उनका सत्ता के विचारों का विरोध करना। वे सत्ता की विचारधारा का विरोध करते हैं और अपने विचारों को सत्ता के विचारों के विकल्प के रूप में पेश करते हैं। उन्होंने अपने को सुधारवादी -लिबरल के रूप में पेश किया हैं। वे हर चीज को तात्कालिक प्रभाव के आधार पर विश्लेषित कर रहे हैं। वे सत्ता के विकल्प का दावा पेश करते हुए जब भी कोई मांग उठाते हैं ,उसके तुरंत समाधान की मांग करते हैं, और जब वे चटपट समाधान कराने में सफल हो जाते हैं तो दावा करते हैं कि देखो हम कितने सही हैं और हमारा नजरिया कितना सही है। अन्ना हजारे का मानना यही है, उन्होंने जन लोकपाल बिल की मांग की और 4 दिन में केन्द्र सरकार ने उनकी मांग को मान लिया।यही सरकार 42 साल से नहीं मान रही थी,लेकिन अन्ना की मांग को 4 दिन में मान लिया।

अन्ना हजारे टाइप लोग ‘पेंडुलम इफेक्ट’ की पद्धति का व्यवहार करते हैं। चट मगनी पट ब्याह। इसके विपरीत लोकपाल बिल का सत्ता विमर्श बोरिंग,दीर्घकालिक और अवसाद पैदा करने वाला था। इसके प्रत्युत्तर में अन्ना हजारे टाइप एक्शन रेडीकल और तुरत-फुरत वाला था। यह बुनियादी तौर पर संकीर्णतावादी आर्थिक मॉडल से जुड़ा फिनोमिना है।

अन्ना के एक्शन ने संदेश दिया कि वह चटपट काम कर सकते हैं। जो काम 42 सालों में राजनीतिक दलों ने नहीं किया उसे हमने मात्र 4 दिन में कर दिया। लोकपाल बिल के पास होने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी हमने इसके पास होने की उम्मीदें जगा दी। निराशा में आशा पैदा करना और इसकी आड़ में वैज्ञानिक बुद्धि और समझ को छिपाने की कला काम करती रही है। दूसरा संदेश यह गया कि सरकार परफेक्ट नहीं हम परफेक्ट हैं। सरकार की तुलना में अन्ना की प्रिफॉर्मेंश सही है।जो काम 42 साल से राजनीतिक दल नहीं कर पाए वह काम एनजीओ और सिविल सोसायटी संगठनों ने कर दिया। इस काम के लिए जरूरी है कि सत्ता के साथ एनजीओ सक्रिय भागीदारी निभाएं।

रामविलास पासवान ने जब लोकपाल बिल की मसौदा कमेटी में दलित भागीदारी की मांग की तो भ्रष्टाचार विरोधी मंच के लोग बेहद खफा हो गए। दूसरी ओर अन्ना ने भी कमेटी के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए वे सभी अभिजन हैं। इससे अन्ना यह संदेश देना चाहते हैं कि वे लोकतंत्र में अभिजन के प्रभुत्व को मानते हैं। आम जनता सिर्फ वोट दे,शिरकत करे। लेकिन कमेटी में अभिजन ही रहेंगे। अन्ना हजारे इस सांकेतिक फैसले का अर्थ है लोकतंत्र में सत्ता और आम जनता के बीच खाई बनी रहेगी।

इसके अलावा अन्नामंडली ने इस पूरे लोकतांत्रिक मसले को गैरदलीय और अ-राजनीतिक बनाकर पेश किया। इससे यह संदेश गया कि लोकतंत्र में राजनीति की नहीं अ-राजनीति की जरूरत है। अन्ना हजारे के अनशन स्थल पर उमाभारती आदि राजनेताओं के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया उसने यह संदेश दिया कि जनता और राजनीति के संबंधों का अ-राजनीतिकरण हो गया है। और आम जनता को राजनीतिक प्रक्रिया से अलग रहना चाहिए राजनीति दल चोर हैं,भ्रष्ट हैं। इस तरह अन्ना मुक्त बाजार में मुक्त राजनीति के नायक के रूप में उभरकर सामने आए हैं।



अन्ना ने एनजीओ राजनीति को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा है। जिस तरह किसी उपभोक्ता वस्तु का एक व्यावसायिक और विज्ञापन मूल्य होता है।ठीक वैसे ही अन्ना हजारे मार्का आमरण अनशन का मासमीडिया ने इस्तेमाल किया है। उन्होंने अन्ना के आमरण अनशन और उसकी उपयोगिता पर बार बार बलदिया। उसका टीवी चैनलों के जरिए लंबे समय तक लाइव टेलीकास्ट किया।

अन्ना के आमरण अनशन की प्रचार नीति वही है जो किसी भी माल की होती है। अन्ना ने कहा ‘तेरी राजनीति से मेरी राजनीति श्रेष्ठ है।’ इसके लिए उन्होंने नागरिकों की व्यापक भागीदारी को मीडिया में बार बार उभारा और सिरों की गिनती को महान उपलब्धि बनाकर पेश किया। यह वैसे ही है जैसे वाशिंग मशीन के विज्ञापनदाता कहते हैं कि 10 करोड़ घरों में लोग इस्तेमाल कर रहे हैं तुम भी करो। अन्ना की मीडिया टेकनीक है चूंकि इतने लोग मान रहे हैं अतः तुम भी मानो। यह विज्ञापन की मार्केटिंग कला है।

टीवी कवरेज में बार-बार एक बात पर जोर दिया गया कि देखो अन्ना के समर्थन में “ज्यादा से ज्यादा” लोग आ रहे हैं। “ज्यादा से ज्यादा” लोगों का फार्मूला आरंभ हुआ चंद लोगों से और देखते ही देखते लाखों -लाख लोगों के जनसमुद्र का दावा किया जाने लगा। चंद से लाखों और लाखों से करोड़ों में बदलने की कला विशुद्ध विज्ञापन कला है। इसका जनता की हिस्सेदारी के साथ कोई संबंध नहीं है। यह विशुद्ध मीडिया उन्माद पैदा करने की कला है जिसका निकृष्टतम ढ़ंग से अन्नामंडली ने इस्तेमाल किया।

टीवी कवरेज में एक और चीज का ख्याल रखा गया और वह है क्रमशः जीत या उपलब्धि की घोषणा। विज्ञापन युद्ध की तरह शतरंज का खेल है। इसमें आप जीतना जीतते हैं उतने ही सफल माने जाते हैं।जितना अन्य का व्यापार हथिया लेते हैं उतने ही सफल माने जाते हैं। अन्नामंडली ने ठीक यही किया आरंभ में उन्होंने प्रचार किया कि केन्द्र सरकार जन लोकपाल बिल के पक्ष में नहीं है। फिर बाद में दो दिन बाद खबर आई कि सरकार झुकी, फिर खबर आई कि सरकार ने दो मांगें मानी,फिर खबर आई कि खाली मसौदा समिति के अध्यक्ष के सवाल पर मतभेद है,बाद में खबर आई कि सरकार ने सभी मांगें मान लीं। क्रमशः अन्ना की जीत की खबरों का फ्लो बनाए रखकर अन्नामंडली ने अन्ना को एक ब्राँण्ड बना दिया। उन्हें भ्रष्टाचारविरोधी ब्राँण्ड के रूप में पेश किया।

अन्ना के व्यक्तिवाद को खूब उभारा गया। अन्ना के व्यक्तिवाद को सफलता के प्रतीक के रूप में पेश किया गया। मीडिया कवरेज में अन्ना मंडली ने आंदोलन के ‘युवापन’ को खूब उभारा,जबकि सच यह है कि अन्ना ,अग्निवेश,किरन बेदी में से कोई भी युवा नहीं है। आमरण अनशन का नेतृत्व एक बूढ़ा कर रहा था। इसके बाबजूद कहा गया यह युवाओं का आंदोलन है। आरंभ में इसमें युवा कम दिख रहे थे लेकिन प्रचार में युवाओं पर तेजी से इंफेसिस दिया गया। आखिर इन युवाओं को प्रचार में निशाना बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? आखिर अन्ना के आंदोलन में किस तरह का युवा था ?

अन्ना की मीडिया टेकनीक ‘सफलता’ पर टिकी है। ‘सफलता’ पर टिके रहने के कारण अन्ना को सफल होना ही होगा। यदि अन्ना असफल होते हैं तो संकीर्णतावाद का प्रचार मॉडल पिट जाता है। अन्ना के बारे में बार-बार यही कहा गया कि देखो उन्होंने कितने ‘सफल’ आंदोलनों का नेतृत्व किया। एनजीओ संस्कृति और संघर्ष की रणनीति में ‘सफलता’ एक बड़ा फेक्टर है जिसके आधार पर अ-राजनीति की राजनीति को सफलता की ऊँचाईयों के छद्म शिखरों तक पहुँचाया गया।

अन्नामंडली की मीडिया रणनीति की सफलता है कि वे अपने आंदोलन को नियोजित और पूर्व कल्पित की बजाय स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक रूप में पेश करने में सफल रहे। जबकि यह नियोजित आंदोलन था। जब आप किसी आंदोलन को स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक रूप में पेश करते हैं तो सवाल खड़े नहीं किए जा सकते। यही वजह है अन्ना हजारे,उनकी भक्तमंडली,आमरण अनशन,लोकपाल बिल,भ्रष्टाचार आदि पर कोई परेशानी करने वाला सवाल करने वाला तुरंत बहिष्कृतों की कोटि में डाल दिया जाता है। अन्ना ने इस समूचे प्रपंच को बड़ी ही चालाकी के साथ भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में रखकर पेश किया। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में आमरण अनशन को पेश करने का लाभ यह हुआ कि आमरण अनशन पर सवाल ही नहीं उठाए जा सकते थे। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में पेश करने के कारण ही अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को अतिसरल बना दिया और उसकी तमाम जटिलताओं को छिपा दिया। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में जब जन लोकपाल बिल और भ्रष्टाचार को पेश किया तो दर्शक को इस मांग और आंदोलन के पीछे सक्रिय विचारधारा को पकड़ने में असुविधा हुई। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस को दैनंदिन जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के फुटेजों के जरिए पुष्ट किया गया।

एनजीओ संकीर्णतावाद के पीछे लोगों को गोलबंद करने के लिए कहा गया कि राजनीतिज्ञ ,राजनीतिक प्रक्रिया,चुनाव आदि भ्रष्ट हैं। इससे एनजीओ संकीर्णतावाद और अन्नामंडली के प्रतिगामी विचारों को वैधता मिली।

भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के प्रति सकारात्मक सोच रखने की ज़रूरत

निर्मल रानी

वरिष्ठ गांधीवादी नेता अन्ना हज़ारे द्वारा जंतर मंतर पर अपना आमरण अनशन समाप्त किए जाने के बाद देश में भ्रष्टाचार जैसे नासूर रूपी मुद्दे को लेकर अब एक और नई बहस छिड़ गई है। अब यह शंका ज़ाहिर की जाने लगी है कि केंद्र सरकार द्वारा अन्ना हज़ारे की जन लोकपाल विधेयक बनाए जाने की मांग को स्वीकार करने के बाद तथा इसके लिए प्रारूप समिति का गठन किए जाने के बाद क्या अब इस बात की उमीद की जा सकती है कि देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार के प्रश्न जंतर मंतर के इस ऐतिहासिक अनशन के बाद उठने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर क्या अन्ना हज़ारे के इर्द गिर्द रहने वाले सभी प्रमुख सहयोगी व सलाहकार भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं? एक प्रश्र यह भी खड़ा हो रहा है कि समाजसेवियों तथा राजनेताओं की तुलना में राजनेता कहीं अब अपनी विश्वसनीयता खोते तो नहीं जा रहे हैं? एक और प्रश्र यह भी लोगों के ज़ेहन में उठ खड़ा हुआ है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध आखिर राजनेताओं अथवा राजनैतिक दलों के बीच से आखिर भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी आवाज़ अब तक पहले क्यों नहीं उठी जो सामाजिक संगठनों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा आज़ादी के 64 वर्षों बाद उठाई गई।

एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में लगभग दस प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार को अपनी दिनचर्या में प्रमुख रूप से शामिल करते हैं। चाहे वे राजनीति के क्षेत्र में हों या सरकारी सेवा अथवा उद्योग आदि से संबंधित। इसी प्रकार 10प्रतिशत के लगभग लोग ही ऐसे हैं जो इन भ्रष्टाचारियों के सर्मथक हैं या इनके नेटवर्क का हिस्सा हैं। देश की शेष लगभग 80 प्रतिशत आबादी भ्रष्टाचार से मुक्त है। इसके बावजूद 20प्रतिशत भ्रष्टाचारी तबके ने पूरे देश को बदनाम कर रखा है। इतना ही नहीं बल्कि इन भ्रष्टाचारियों के कारण ईमानदार व्यक्ति का जीना भी दुशवार हो गया है। देश में तमाम ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति इन भ्रष्टाचारियों के हाथों अपनी जान की कुर्बानी तक दे चुके हैं। परंतु चिंतनीय विषय यह है कि भ्रष्टाचारियों के लगभग बीस प्रतिशत के इस नेटवर्क ने देश की लोकसभा, राज्य सभा तथा देश की अधिकतर विधानसभाओं से लेकर अफसरशाही तक पर अपना शिकं जा इस प्रकार कस लिया है कि ईमानदार नेता व अधिक ारी भी या तो इनको संरक्षण देने के लिए मजबूर होते दिखाई दे रहे हैं या फिर इनके विरूद्ध जानबूझ कर किसी प्रकार की क़ कानूनी कारवाई करने से कतराते व हिचकिचाते रहते हैं। कहा जा सकता है कि ईमानदार नेताओं व अधिकारियों की यही खामोशी, निष्क्रियता व उदासीनता ही भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के नापाक इरादों को परवान चढ़ाने का एक प्रमुख कारण है।

अब यदि सत्ता में बने रहने या चुनाव में धन बल का समर्थन प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचारियों से समझौता करना राजनीतिज्ञों की मजबूरी समझ ली जाए फिर तो देश को भ्रष्टाचार को एक यथार्थ के रूप मेंस्वीकार करना ही बेहतर होगा। और यदि देश ने ऐसा किया तो यह गांधी, सुभाष, आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, अशफाक़उल्ला, तिलक, नेहरू तथा पटेल जैसे उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों पर कुठाराघात होगा जिन्होंने देश को अंग्रेज़ों से मुक्त कराकर स्वाधीन, प्रगतिशील एवं आत्मर्निार भारत के निर्माण का सपना देखा था। इसी स्वर्णिम स्वप्र को साकार रूप देने हेतु भारतीय संविधान की रचना की गई थी जिसके तहत भारत को एक धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया था। परंतु यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों तथा शहीदों का घोर अपमान ही समझा जाएगा कि उनकी बेशकीमती कुर्बानियों की बदौलत देश आज़ाद तो ज़रूर हो गया परंतु वास्तविक लोकतंत्र शायद अब तक नहीं बन सका । इसके विपरीत देशवासियों को आज ऐसा महसूस होने लगा है कि देश में लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र स्थापित हो चुका है। और इससे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि गत् 64 वर्षों से आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में भ्रष्टाचार को लेकर छाती पीटने का ढोंग करते तो तमाम नेता व राजनैतिक दल दिखाई दिए परंतु भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर तिरंगा लहराता तथा भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को सड़कों पर लाता हुआ कोई भी राजनेता नज़र नहीं आया। और इन 64 वर्षों के बाद पहली बार यदि किसी व्यक्ति ने राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की अगुवाई का साहस किया तो वह श़िसयत केवल अन्ना हज़ारे जैसा बुज़ुर्ग गांधीवादी नेता की ही हो सकती थी।

अन्ना हज़ारे की कोशिशों तथा आमरण अनशन जैसे उनके बलिदानपूर्ण प्रयास के बाद अब भाजपा के वरिष्ठ नेता तथा पार्टी द्वारा घोषित प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने जंतर मंतर पर आयोजित धरने के विषय में अपने ब्लॉग पर यह लिखा है कि- ‘मेरा विचार है कि जो लोग राजनेताओं और राजनीति के विरुद्ध घृणा का माहौल बना रहे हैं वह लोकतंत्र को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाया गया रुख लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है’। अडवाणी ने अपने यह विचार उस परिपेक्ष्य में व्यक्त किए हैं जबकि जंतर मंतर पर आयोजित हुए भ्रष्टाचार विरोधी धरने व आमरण अनशन के दौरान वहां पहुंचे कई प्रमुख नेताओं जैसे ओम प्रकाश चौटाला, मदन लाल खुराना, मोहन सिंह तथा उमा भारती को उत्साही आंदोलन कर्ताओं ने धरना स्थल से वापस कर दिया था। इन नेताओं के विरूद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा नारेबाज़ी भी की गई थी। हालांकि नेताओं के विरूद्ध जनता ने किसी प्रकार का अभद्र व्यवहार नहीं किया न ही किसी प्रकार की हिंसा का सहारा लिया। परंतु भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता द्वारा भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने या इनका समर्थन करने वाले नेताओं के विरूद्ध अपने मामूली से गुस्से या विरोध का प्रदर्शन करना भी स्वाभाविक था। क्या देश की जनता ने 64 वर्षों तक इन्हीं नेताओं से यह आस नहीं बांधे रखी कि आज नहीं तो कल यही नेेता हमें व हमारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराएंगे तथा देश को साफ सुथरा शासन व प्रशासन प्रदान करेंगे ? परंतु जनता ने यही देखा कि नेताओं से ऐसी सकारात्मक उमीद रखना तो शायद पूरी तरह बेमानी ही था। क्योंकि इनमें से तमाम नेता या तो भ्रष्टाचार के रंग में स्वयं को पूरी तरह रंग चुके हैं या फिर किसी न किसी प्रकार से भ्रष्टाचार से या भ्रष्टाचारियों से अपना नाता जोड़े हुए हैं।

और यदि ऐसा न होता तो बिना कि सी समाज सेवी संगठन के प्रयासों के तथा अन्ना हज़ारे के आमरण अनशन किए बिना लोकपाल विधेयक अपने वास्तविक तथा जनहित की आकांक्षाओं के अनुरूप अब तक कानून का रूप धारण कर चुका होता। परंतु अफसोस कि यह तब होने जा रहा है जबकि समाजसेवी संगठनों व कार्यकर्ताओं ने सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य किया है। अन्ना हज़ारे ने राजनेताओं के प्रति अडवाणी की चिंताओं के जवाब में अपनी त्वरित टिप्पणी देते हुए यह कहा है कि-‘अडवाणी जी ने जो भी कहा है वह गलत कहा है। यदि अडवाणी जी जैसे नेता सही रास्ते पर होते तो हमें भ्रष्टाचार के खि़लाफ इतना बड़ा क़ दम उठाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।’ अन्ना हज़ारे ने गत दिनों महाराष्ट्र में अपने पैतृक गांव रालेगंज पहुंच कर वहां भी भ्रष्टाचार विरोधी अपने कड़े तेवर उस समय दिखाए जबकि उनके मंच पर भाऊसाहेब आंधेड़कर नामक एक ऐसा पुलिस इंस्पेक्टर सुरक्षा व्यवस्था को नियंत्रित करते हु़ए पहुंच गया जिस पर कि कुछ समय पूर्व ही भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। अन्ना हज़ारे ने उसे फौरन अपने मंच से नीचे उतर जाने का निर्देश दिया। और साफ किया कि उनके साथ भ्रष्टाचारियों की जमात के सदस्यों की कोई आवश्यकता नहीं है।

जहां तक भ्रष्टाचार के आरोपों का प्रश्र है तो इलाहाबाद से समाचार तो यहां तक आ रहे हैं कि जन लोक पाल विधेयक की प्रारूप समिति के दो प्रमुख सदस्य पूर्व केंद्रीय मंत्री शांतिभूषण तथा उनके वकील पुत्र प्रशांत भूषण ने इलाहाबाद में 19, एल्गिन रोड, सिविल लाईन्स स्थित एक विशाल कोठी जिसकी कीमत बाज़ार के हिसाब से 20 करोड़ रूपये आंकी जा रही है, को अपने किरायेदार के हाथों मात्र एक लाख रूपये में एग्रीमेंट टू सेल कर दिया है। यदि इस डील में अनियमितताएं उजागर हुईं तो हमें इस बात की भी प्र्रतीक्षा करनी चाहिए कि अन्ना हज़ारे अपने ऐसे क़ानूनी सलाहाकारों से भी अवश्य पीछा छुड़ा लेंगे। परंतु इन सब बातों के बावजूद हमें व हमारे देशवासियों को भ्रष्टाचार विरोधी इस राष्ट्रव्यापी मुहिम के प्रति सकारात्मक सोच अवश्य रखनी चाहिए तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर इस मुहिम के प्रति अपनी सकारात्मक भूमिका भी निभानी चाहिए।

देश की जनता बिना किसी पूर्व नियोजित कार्यकम के तथा बिना किसी दबाव व लालच के तमाम आशाओं व उमीदों के साथ जिस प्रकार भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश में पहली बार लामबंद हुई है उससे अन्ना हज़ारे जैसे समर्पित गांधीवादी नेता को भी काफी बल मिला है तथा वृद्धावस्था में उनके बलिदानपूर्ण हौसले को देखकर जनता में काफी उम्मीदें जगी हैं। लिहाज़ा जनता को भी चाहिए कि वह भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दे के विरुद्ध चलने वाली इस राष्ट्रव्यापी मुहिम के प्रति सिर्फ सकारात्मक सोच ही रखे।

डॉक्‍टरों ने 226 महिलाओं को बनाया बांझ

राजस्थान के दौसा जिले में 3 प्राइवेट अस्पतालों द्वारा 226 महिलाओं की बच्चेदानी निकाल देने का मामला सामने आया है। इस काम के बदले इन अस्पतालों ने मोटा पैसा कमाया और हर मरीज से 14 हजार रुपए ऐंठे। एक एनजीओ की ओर से दाखिल आरटीआई में इस बात का खुलासा हुआ है।

इन प्राइवेट अस्पतालों को सरकारी स्कीम ' जननी सुरक्षा योजना ' के तहत डिलिवरी कराने की मान्यता मिली हुई है। इस बात का खुलासा होने के बाद जिला प्रशासन ने जांच के लिए दौसा के चीफ मेडिकल ऑफिसर ओ.पी. मीणा की अध्यक्षता में 3 सदस्यीय समिति का गठन किया है।

आरटीआई से जानकारी मिलने के बाद एनजीओ अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के जनरल सेक्रेटरी दुर्गा प्रसाद ने बताया कि 3 अस्पतालों ने पिछले साल मार्च से सितंबर में इलाज के लिए आईं 385 महिला मरीजों में से 226 औरतों की बच्चेदानी निकाल दी।

दुर्गा के बताया कि बिना जरूरत के इतनी बड़ी संख्या में बच्चेदानियां निकाली गई है। दुर्गा ने कहा, ' पूरे शरीर में इंफेक्शन फैल जाने का डर दिखाकर अस्पताल मरीज को इस काम के लिए मना लेते थे और इसके लिए वे 12 हजार से 14 हजार रुपए तक ऐंठते थे'।

जांच समिति के अध्यक्ष मीणा ने कहा, ' अभी इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि डॉक्टरों ने यह काम पैसे कमाने के चक्कर में किया और बिना इंफेक्शन के बच्चेदानी निकाल दी। सच्चाई पता करने के लिए मेडिकल इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट को इकट्ठा किया जा रहा है। हमने 5 अस्पतालों के रिकॉर्ड जब्त कर लिए हैं। महिलाओं और डॉक्टरों से पूछताछ की जा रही है'।

एक पीडित महिला ने बताया, ' मेरे पेट में दर्द था। डॉक्टरों ने मेरी बच्चेदानी निकाल दी लेकिन फिर भी दर्द नहीं गया। फिर जब मैं जयपुर गई तो वहां पता चला कि बच्चेदानी निकालने की कोई जरूरत नहीं थी'। एक अन्य महिला ने बताया, ' डॉक्टरों ने मुझसे कहा कि अगर मेरी बच्चेदानी नहीं निकाली गई तो मेरी जान चली जाएगी इसलिए मैंने बच्चेदानी निकलवा दी। इस पर करीब 15 हजार रुपए खर्च हुए लेकिन मेरी बीमारी अभी भी वैसी ही है'।

जोधपुर में कुछ दिन पहले ही खराब ग्लूकोज चढ़ाने की वजह से 17 गर्भवती महिलाओं की मौत हो गई थी।

Wednesday, April 6, 2011

अन्ना हजारे कहीं बहादुर शाह जफर तो नहीं!

मृगेंद्र पांडेय

राजनीति अपनी सहुलियत देखती है। उसे इसकी परवाह नहीं कि कल क्या होगा। आज को सही तरीके से निपटा लें, तो उससे बेहतर कुछ नहीं होता है। अन्ना हजारे ने अचानक आजादी की दूसरी लडाई लडने की तैयारी कर ली। देश के कुछ बुदृधजीवियों ने उनको अपना नेता मान लिया। अन्ना हजारे दिल्ली में जंतर मंतर पर धरना और आमरण अनशन पर बैठ गए। अन्ना को भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना नेता बनाने का फैसला ठीक वैसा ही है, जैसा 1857 की लडाई में स्वतंत्रता के दीवानों ने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को बनाया था। जफर अपने जीवन के अंतिम दौर में थे। देश के पास एक भी ऐसा आदमी नहीं था, जो उनका नेता बन सके। ठीक इस बार ऐसा ही है। पद, प्रतिष्ठा और सम्मान। सब कुछ अन्ना के पास है, इसलिए अन्ना हमारे नेता बना दिए गए हैं।

भ्रष्ट हो चुका मध्यमवर्ग अब भ्रष्टाचार की लडाई लड रहा है। उसके लिए कानून बनाने की बात कह रहा है। सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार को कानून बनाकर लडा जा सकता है। अगर यह सही है तो क्या देश में बने कानून भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए काफी नहीं है। देश की अदालतों में करोडों मामले पेंडिंग पडे है। लोवर कोर्ट से अगर कोई मामला हाईकोर्ट में चला जाता है तो उसका नंबर आने में कम से कम एक महीने लगता है। सीबीआई जांच का परिणाम जीवन के अंतिम दौर तक नहीं आ पाता। ऐसे देश में एक और कानून की जरुरत क्यों है। यह कानून उन लोगों पर ही लगाया जाएगा, जिनके कारण यह सिस्टम भ्रष्ट हुआ है। भारत का भ्रष्ट मध्यमवर्ग जो आज अन्ना हजारे के साथ खडा है, कल वही भ्रष्टाचार का सरगना रहेगा।

बाबा रामदेव भी भ्रष्टाचार की लडाई लड रहे हैं। देश में भूख से मौत और नक्सली हिंसा की जगह काला धन सबसे बडा मुददा है। इसे चुनावी मुददा बनाकर बाबा राजनीति में आने की तैयारी कर रहे हैं। बस्तर, दांतेवाडा और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास को लेकर कोई आंदोलन क्यों नहीं किया जा रहा है। टूटी सडकें और गंदा पानी देश के लिए मुददा क्यों नहीं है। मेरी सहानभूति है अन्ना हजारे के साथ कम से कम उन्होंने पहल की, लेकिन यह पहल कोई बदलाव करेगी, यह मेरी समझ से परे हैं। बदलाव के लिए उस मध्यमवर्ग को सुधारने की जरुरत है, जो अपनी छोटी जरुरतों के लिए समझौता करने को तैयार है। उस सिस्टम को बदलने की जरुरत है, जो हमें भ्रष्ट बनाता, न कि किसी कानून की।