Monday, February 25, 2008

एक क्रिकेट खिलाड़ी का दर्द...

भारत सहित विभिन्न देशों के क्रिकेट खिलाड़ियों की नीलामी जैसी ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घटना ने खेल जगत में हलचल मचा दी है. इस बारे में लोग तरह-तरह से प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं.


हमने भारतीय टेस्ट टीम के एक अधेड़ खिलाड़ी से फोन पर बातचीत की. प्रस्तुत है उस फोनालाप के कुछ छँटे हुए अंश...

क्रिकेट खिलाड़ियो की इस खुलेआम नीलामी पर आप क्या कहना चाहेगें ....

(एक लंबी आह) नीलामी, वह भी खिलाड़ियों की, बहुत गलत हुआ. नीलामी तो होती है पुराने, टूटे-फूटे सामानों की. खिलाड़ी तो अच्छे-खासे आदमी हैं. यह तो आदमियों की नीलामी है.


कुछ लोगों का कहना है इससे भारतीय क्रिकेट को बढ़ावा मिलेगा....

ऐसा तब होता जब आईपीएल की आठ टीमें केवल भारतीय खिलाड़ियों पर बोली लगातीं और उसमें रणजी ट्रॉफी और अन्य प्रतियोगिताओं में खेलने वाले सभी खिलाड़ियों को इसमें शामिल किया जाता. विदेशी खिलाड़ियों को इसमें शामिल करने से देश के उभरते खिलाड़ियों का पत्ता कट गया. टीमों ने विदेशी खिलाड़ियों में ज्यादा रुचि दिखाई.


फिर भी देश के खिलाड़ियों की नीलामी विदेशियों से अधिक कीमत पर हुई है...
वह तो होना ही था. आखिर बोली लगाने वाले भारतीय थे. अगर विदेशियों पर अधिक बोली लगाते तो भी आगे चलकर उनकी आलोचना होती. फिर भी अधिकतर विदेशी खिलाड़ी हैं, लेकिन संतोष की बात है कि भारतीय खिलाड़ियों के मुकाबले उनकी कीमत ज्यादा नहीं लगी है.


साइमंड्स जैसे अपवाद हर जगह होते हैं. शेन वार्न जैसे दिग्गज की इज्जत बड़ी मुश्किल से बची है. फिर भी उसे अपने कप्तान रिकी पोंटिंग से तिगुना पैसा मिला है. वैसे सचिन की रिजर्व कीमत के मुकाबले धोनी को बहुत ज्यादा मिला है. इसका मतलब यह नहीं कि खेल के मामले में धोनी सचिन से अच्छे हैं.

इससे अन्य खेलों पर कैसा असर पड़ेगा.....

इससे अन्य खेलों के प्रति रुझान जो पहले से ही कम है, और कम होगी. और अधिक से अधिक युवा क्रिकेट की तरफ मुड़ेंगे.

क्रिकेट में पहले ही अधिक पैसा था. अब तो क्रिकेट खिलाड़ियों की चांदी हो गई है. भला हो पवार साहब का जिन्होंने बोर्ड को व्यापारिक कंपनी और खिलाड़ी को अपना उत्पाद बना दिया है. अब तो क्रिकेट एक व्यापार हो गया है.


आपको अपने कैरियर से कोई शिकायत...

शिकायत नहीं है. लेकिन अफसोस यही है कि क्यों मैं पच्चीस-तीस साल पहले पैदा हुआ.


राजेंद्र श्रीवास्तव

गाते गूंजते गदर...

एक अरसे बाद आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध क्रांतिकारी लोकगायक गदर को सुनते समय आज भी ऐसा ही महसूस होता ही जैसे कि आप बीस साल पहले के गदर को सुन रहे हों. अवाज में वही जोश, शरीर में वैसी ही फुर्ती और पहले जैसा ही अंदाज लेकिन गीतों में पहले से कहीं ज्यादा तल्खी.

अभी 23 फरवरी को दिल्ली के प्रेस क्लब लॉन में 'प्रेस से मिलिए' कार्यकम में गदर ने 'आग है, ये आग है, ये भूखे पेट की आग है' को अपने चिर-परिचित क्रांतिकारी अंदाज में गा कर एक समा बांध दिया. मैंने उन्हें जब भी सुना, उनके गीतों और वक्तव्यों का व्यापक फलक होता था.

लेकिन इस बार उन्होंने अपने वक्तव्य को पृथक तेलंगाना राज्य की मांग तक सीमित रखा. बाद में सवाल-जवाब के क्रम में उन्होंने बताया कि पृथक राज्य की मांग और देश के जनतांत्रीकरण के बिना किसी राज्य को आत्मनिर्णय का अधिकार भी हासिल नहीं हो सकता.

एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि 'मैं किसी भी पार्टी का सदस्य नहीं हूँ. मैं तो जनता का गायक हूँ और अपने गीतों-नृत्यों के जरिए जनता की समस्याओं को उठाता हूँ जिससे उन्हें लड़ने की प्रेरणा मिल सके. मैं बेजुबान लोगों की आवाज हूँ।'

भारत के क्रांतिकारी आंदोलन और क्रांतिकारी संस्कृति के इस मिथक पुरूष का जन्म आंध्र प्रदेश के मेडक जिले के एक गरीब दलित परिवार में हुआ था. 1972 में उन्होंने जन नाट्य मंडली की स्थापना की. आंध्र के उत्तरी तटवर्ती क्षेत्र के श्रीकाकुलम में आदिवासियों द्वारा सशस्त्र संघर्ष छेड़े जाने की घटना ने उन्हें बहुत पेरित किया और फिर क्रांतिकारी राजनीति और संस्कृति को जनता तक पहुंचाना ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया. 1985 में प्रकाशम जिले में सवर्ण जमींदारों ने अनेक दलितों की हत्या की जिसके विरोध में गद्दर खुलकर सामनें आए.

सरकार ने भी भीषण दमन चक चलाया. गदर भूमिगत जीवन बिताने के लिए मजबूर हो गए. उन्होंने सदियों से प्रचलित लोककथाओं और लोक शैलियों को अपनाया और इन कथाओं को क्रांतिकारी राजनीति के साथ जोड़ते हुए जनता तक पहुंचाया. यही वजह है कि उनके एक कार्यकम में इतनी ताकत होती है जितनी हजार भाषणों में भी नहीं हो सकती.

जैसे-जैसे जनता के बीच गदर की लोकप्रियता बढ़ती गई, सत्ता की निगाह में वह खतरनाक बनते गए. पिछले 20 वर्षों के दौरान हजारों-लाखों की संख्या में उनके कार्यकमों के कैसेट और सीडी जनता के बीच पहुंचे होंगे.

18 फरवरी, 1990 को जब उन्होंने भूमिगत जीवन छोड़ा और हैदराबाद के निजाम कॉलेज के विशाल मैदान में जन नाट्य मंडली की 19वीं वर्षगांठ पर कार्यकम पेश किया तो उन्हें देखने-सुनने के लिए तीन लाख से भी ज्यादा लोग मौजूद थे. अब पृथक तेलंगाना आंदोलन की मांग के साथ-साथ उन्होंने आंध्र के गांवों में राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे बर्बर दमन और फर्जी मुठभेड़ों को अपने गीतों का विषय बना दिया था.

तेलगूदेशम सरकर हो या कागेस की सरकार, हर किसी की निगाह में गदर अत्यंत खतरनाक बनते जा रहे थे. लेकिन उनकी लोकपियता इतनी ज्यादा थी कि उन्हें गिरफ्तार करना भी एक नए आंदोलन को निमंत्रण देना था. 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में आंध्र प्रदेश सरकार और नक्सलियों के बीच जब पहली शांति वार्ता की शुरुआत हुई तो उस समय वरवर राव और कल्याण राव के साथ गदर ने भी इसमें मध्यस्थ की भूमिका निभाई.

6 अप्रैल, 1997 को गदर की हत्या का प्रयास किया गया और उन्हें तीन गोलियां लगीं. किसने ये गोलियां चलाई थीं, इसका पता राज्य सरकार नहीं लगा सकी लेकिन गदर का मानना है कि खुद पुलिस ने ही उनकी हत्या की साजिश रची थी.

आंध्र प्रदेश का तेलंगाना क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से जितना ही समृद्ध है, यहां की जनता उतनी ही गरीब है. यहां की जनता को आजादी मिलने के बाद से ही हर अवसर से वंचित रखा गया और तब से ही राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग जारी है.

वाई राजशेखर रेड्डी की मौजूदा कांग्रेस सरकार भी पूर्ववर्ती सरकारों की ही तरह तेलंगाना के लोगों की पृथक राज्य की मांग का और भी बर्बरता के साथ दमन कर रही है जिसका प्रतिरोध जनता की तरफ से हो रहा है. प्रतिरोध के स्वर को केन्द्र सरकार तक पहुंचाने के लिए गदर अपने दल-बल सहित एक लंबा कार्यक्रम लेकर दिल्ली आए हैं. यहां वे दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और कुछ अन्य स्थानों पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने के साथ ही जंतर-मंतर पर दिन भर धरना भी देंगे.

गदर का मानना है कि यह सरकार जितनी तेजी से अमेरिका के हाथों हमारी आजादी को गिरवी रखती जा रही है उससे हमारी पूरी संप्रभुता खतरे में पड़ गई है. इस मामले में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार हो या मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार, दोनों में कोई फर्क नहीं है.

उन्होंने ध्यान दिलाया कि जहां-जहां प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता है उन्हीं राज्यों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉरपोरेट घरानों की लूट मची हुई है और इन्हीं राज्यों में जनता का प्रतिरोध भी नए-नए रूप लेता जा रहा है. उदाहरण के रूप में उन्होंने छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा का नाम लिया.


आनंद स्वरूप वर्मा
आज समाज अखबार से साभार

Monday, February 18, 2008

मुंबई घटनाक्रमः विकास के वर्तमान मॉडल का संकट...

मुंबई मैं जो भी हो रहा है ऐसा नहीं कि राज ठाकरे नहीं होते तो ये नहीं होता. परिस्थितियां नेता 'पैदा' करती हैं. 'नेता' परिस्थितियां पैदा नहीं करते.

हां नेता किसी प्रक्रिया को तेज या धीमा करने में एक भूमिका निभा सकते हैं. इस पूरे मुद्दे को रजा ठाकरे पर फोकस करने से इस समस्य की जड़ों में नहीं जाया जा सकता, ना ही इसे समझा जा सकता है और नाही परिवर्तन की राजनीति को मजबूत किया जा सकता है.

विचारधारा यानी वर्ग संघर्ष (क्लास पॉलीटिक्स) के कमजोर होने से पहले धर्म के नाम पर लोगों को विभाजित करने की राजनीति हुई. फिर जाति आई और अब क्षेत्र (एथनिसिटी) के आधार पर लोग विभाजित किए जा रहे हैं.

इससे विकास के वर्तमान (रोजगार विहीन विकास) के प्रति सही समझ पैदा नहीं हो पा रही है. मीडिया भी पूरी राजनीति को व्यक्तियों पर केंद्रित करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है और इस तरह के विभाजन को चटपटा बनाने के लिए इसे गलत ढंग से 'बिहारी या पूरबियों' के खिलाफ प्रोजेक्ट कर इस तरह के एथनिक डिवाइड को हवा दे रहा है.

इस दौर में कुछ नेता भड़काऊ बयान देकर नेशनल एजेंडा में आ जाते हैं और मीडिया के मध्यम से ये सारी राजनीति होती है. मुंबई में जो भी हो रहा है वो विकास के वर्तमान मॉडल का संकट है.

ये मुंबई का ही मामला नहीं हैं. ये दिल्ली में भी है और लगभग सभी नगरों और महानगरों में होने जा रहा है. आज नहीं तो कल होगा.

कृषि से मैनपावर सरप्लस हो रही है और हमेशा से ही नगर इन्हें कुछ न कुछ काम देते रहें हैं. और नए विकास के मॉडल में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर डिक्लाईन पर है जो रोजगार या काम पैदा करता था.

विकास के मौजूदा मॉडल में जो रोजगार या काम पैदा हो रहा है उसके लिए जो स्किल्स चाहिये वो गांवों से आने वाले गरीब के पास नहीं होती.

कृषि संकट में है. किसान आत्महत्या कर रहे हैं और गांव के गरीब को नगरों में भी काम नहीं मिल रहा है.

साईंनाथ ने सही कहा है कि पहले ये गरीब गांव में खेती करते थे और बीच-बीच में नगरों में आकर थोड़ा पैसा कमाकर फिर दूसरी फसल के लिए गांव चला जाता था.

गांव में ये किसान होता था और शहर आकर मजदूर हो जाता था. पर अब ये ना किसान रह गया है ना ही मजदूर.

नए विकास के मॉडल में जो व्यवस्था उभर रही है उसमें तो लगता है कि ये सिस्टम से बाहर हो रहा है. अब ये उस शोषण के लायक भी नहीं जो औद्योगिक समाज में होता था. सिस्टम के बाहर होगा तो कहां जाएगा ?

विकास के इस मॉडल में शहर आने वाले गरीब को रोजगार तो दूर, काम भी नहीं मिल रहा है. लोकल गरीबों को भी काम नहीं मिल रहा है.


साईंनाथ ने अपने एक लेख में कहा है कि गरीब को गरीब से लड़ाया जा रहा है. इसका संबंध 'बिहारी' या उत्तर प्रदेश के 'भैया' से नहीं है. इसका संबंध नगरों में काम और रोजगार के अवसर सीमित होने से है.

अंत में....


सीपीआई के नेता डांगे कहते थे

ये गरीब नहीं, ये सर्वहारा हैं. गरीब कहकर इनका अपमान ना करो .
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सुभाष धूलिया

Friday, February 15, 2008

देखो, देखो गिरफ्तार...!

मुंबई या महाराष्ट्र में बसा एक भी गैर-मराठी या उत्तर भारतीय आतंक या अराजकता के कारण मरता या वापस लौटता है तो सरकार को अपने होने पर पछताना और रोना चाहिए.

दो दिन से हर कोई परेशान. राज ठाकरे के घर को पुलिस ने घेर लिया है... उनकी गिरफ्तारी कभी भी... और साथ में महानिर्माण संघ के शोहदों के हाथों पिटने-लुटने के उत्तरी भारतीयों के दृश्य... ठाकरे के विषवम के फुटेज. देख-देख कर दिल-दिमाग अजब संकटग्रस्त था. गरजते ठाकरे और ठुमक-ठुमक सरकार.

बुरी खबर को बड़ी खबर मानने वाला चैनलिया (चैन हर लेने वाला) मीडिया खौफ को बढ़ाये जा रहा था. ऐसा माहौल बन रहा था कि भतीजे ठाकरे की गिरफ्तारी के बाद बस प्रलय. राजनीति में लड़खड़ाते हुए अपनी जमीन पर खड़े होने की कोशिश में लगे एक आधारहीन नेता को विराट बनाए जाने की कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही थी.

ठाकरे कब गिरफ्तार होंगे से बड़ा सवाल था वे अपने को क्यों गिरफ्तार कराने पर आमादा हैं. इसका जवाब मिलते देर न लगी. एक राजनीतिक टांय-टांय फिस्स. देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ. वैसे भी महाराष्ट्र में इस बेसुरे घराने से वहाँ की हर सरकार डरती रही है.

बाल ठाकरे क्या-क्या नहीं बक-बक करते रहे. सरकारें उन्हें गिरफ्तार कर सबक देने से चूकती रही. किसी की भी गिरफ्तारी के लिए यह बहाना नहीं हो सकता कि उससे कानून व्यवस्था बिगड़ जाएगी, कि कल उसके बच्चे का मुंडन है या उसका जन्मदिन.

इसलिए देर से ही सही राज ठाकरे को गिरफ्तार कर दुरुस्त कदम ही उठाया था, अपने होने का पता दिया था. राज ठाकरे की पार्टी के असामाजिक तत्व अगर कोई बखेड़ा खड़ा करते तो भी सरकार को अपने होने का मतलब समझाने की तैयारी रखनी चाहिए थी.

मुंबई या महाराष्ट्र में बसा एक भी गैर-मराठी या उत्तर भारतीय आतंक या अराजकता के कारण मरता या वापस लौटता है तो सरकार को अपने होने पर पछताना और रोना चाहिए.

दरअसल, गैर-मराठी और मराठी के बहाने यह राज और उद्धव ठाकरे की लड़ाई है. राज ठाकरे के रूप में मराठी अस्मिता का एक और दावेदार पैदा हो गया है. इसलिए शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाने के लिए समर्थन देने की बात कहकर बाल ठाकरे की कोशिश अपने घर के मराठी मनुष्यों को बनाए रखने की होती है, तो साथ ही नए वोटरों की तलाश में ये उत्तर भारतीय को रिझाने लगे थे. उन्हें अपनी संगिनी भाजपा से हर उस समय खुन्नस होती है तो जब वह आत्मविश्वास से भरी उन्हें नजर आती है.



उन्हें लगता है कि भाजपा का हिंदुत्व उनके अपने हिंदुत्व को नहीं, मराठी अस्मिता को भी किनारे धकेल देगा. इसलिए वे गरज उठते हैं कि मोदी मॉडल महाराष्ट्र में नहीं चलेगा.

बदली हुई राजनीति करने, शिवसेना से अलग दिखने और सेकुलर राजनीति का झंडा उठाए राज ठाकरे लागातार वोटों की बदलती राजनीति से लड़खड़ाने लगे और अंततः उन्हें उत्तर भारतीय नजर आए अपनी घटिया राजनीति का निशाना बनाने के लिए.

बाल ठाकरे साठ के दशक में दलित भारतीयों के खिलाफ इसी राजनीति पर उतरे थे. "लुंगी उतारो, पुंगी बजाओ" उनका नारा था. और फिर सत्तर के दशक में मुसलमानों के खिलाफ.

असली लड़ाई तो राज और उद्धव में ही है. राज के आपत्तिजनक बयान के बाद उन्होंने भी उसी स्तर का बयान जारी कर दिया. नफरत से प्रेम के खेल में घराना फिर बेसुरा अलापने लगा.

ठाकरे का जवाब निश्चित ही उसी छिछोरी भाषा में नहीं दिया जा सकता जैसा सपा के अबु आजमी ने किया. उसके लिए सरकार की सख्ती दिखनी चाहिए. अफसोस की बात यह है कि राजनीति में यह चीजें सिरे से गायब हैं.

दिलचस्प बात यह है कि इस मामले को जिस बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए उसकी बात संवैधानिकता और एकजुटता के झंडाबरदारों की तरफ से नहीं, उस पार्टी के नेता की ओर से आई जो अपने शासन में संविधान में उलट-पलट करवाने पर आमादा थी.



लालकृष्ण आडवाणी ने ठीक ही इस मामले को संविधान का उल्लंघन और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध बताया. कांग्रेस में खुद अर्जुन सिंह थे जिन्होंने सीधे-सीधे कहा कि केंद्र को हस्तक्षेप करना चाहिए.

सरकारों को ऐसी पार्टियों और लोगों से सतत सावधान रहना होगा जिनका जन्म ही नकारात्मक राजनीति से हुआ है. जैसा कि एक राजनीतिक टिप्पणीकार ने लिखा है कि जनता को खुद सजग रहना चाहिए क्योंकि कोई भी, कहीं भी, कभी भी अल्पसंख्यक बताया जा सकता है.

आज की परिस्थितयों में शहरों की नागरिकता ऐसी हो गई है. विभेदकारी राजनीति का शिकार कोई भी समुदाय हो सकता है. 84 में सिख अल्पसंख्यक हो गए थे. मुसलमानों का तो एक नाम ही गोया अल्पसंख्यक है.

मीडिया को क्या कहें. उसने तो शिवसेना, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के निठल्लों की उत्तेजक छवियां दिखा-दिखा कर हर वेलेंटाइन डे के पहले आशंकाओं का आदी बना दिया है.



मनोहर नायक

Wednesday, February 13, 2008

एक निर्माणाधीन राष्ट्र के ये अल्ग्योझी भूमिकुपुत्र !!- भाग-1

बंबई में हाल के घटनाक्रमों ने जो चिंता देश के बुद्धिजीवियों और समझदार नागरिकों के मन में पैदा की है उससे उबरने के लिए कोरी राजनीतिक टीका-टिप्पणियों या तात्कालिक स्वार्थ के लिए आरोप-प्रत्यारोपों की नहीं बल्कि इन निंदनीय स्वार्थों से ऊपर उठकर कुछ ड़े साहसिक कदम और कुछ दूरगामी स्वस्थ राजनीतिक समाजीकरण के प्रयासों की ज़रूरत है.

वक्त आ गया है कि देश की एकता-अखंडता अक्षुण्ण रखने की शपथ लेने वाले हमारे राजनीतिक नेता राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का मतलब समझें वरना आने वाली पीढ़ियाँ जब भारत नाम के इस निर्माणाधीन राष्ट्र की निर्माण यात्रा का इतिहास लिखेंगी तो इनमें इनकी भूमिका किस रूप में दर्ज़ होगी इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं.

एक अंतर्राष्ट्रीय अंग्रेजी जर्नल में भारत के दूसरे विभाजन की आशंका जताई गई है. चूँकि यह मसला बेहद संवेदनशील है इसलिए यहाँ केवल इस बात का ज़िक्र करना उचित होगा कि इस सशक्त लेख में लेखक ने भारतीय समाज और राजनीति के सांप्रदायिक चरित्र को इसका आधार बनाया है. लेकिन प्रांतीयतावाद, संजातीय भाषिकतावाद (एथनोलिंग्विज़्म) और देसीवाद या मूलवाद (नेटिविज़्म) की जो लहर पिछले कुछ दशकों से सामने आ रही है और इससे निपट पाने में जिस तरह से हमारी तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ नाकाम रही हैं वह दिन दूर नहीं जब इस आधार पर भी देश में नई विभाजनकारी ताकतें सक्रिय हो जाएँ और हमारे संघीय ढाँचे का ही अस्तित्व खतरे में पड़ जाए.

राज्य पुनर्गठन का भाषिक आधार: ज़हर वही, शीशी नई

कई बार अपने निजी जीवन के अतीत को गुलाबी शीशे से देखने की प्रवृत्ति हमारे राजनीतिक विकासक्रम को देखने की प्रक्रिया में भी हम पर हावी रहती है. जैसे कि भारत नाम के इस भौगोलिक इकाई के राष्ट्र बनने की कहानी में 1947 के विभाजन को ही एक मात्र गहरे जख़्म के रूप में परोसने की प्रवृत्ति आम तौर पर राजनीतिक टिप्पणीकारों में पाई जाती है. इसे हमारी अज्ञानता कहें या अपने परिवार की बुराइयों पर पर्दा डालने की प्रवृत्ति कि हमने भाषा, संस्कृति, और जन्म और संजातीयता के आधार पर बाँटनेवाली प्रवृत्तियों को भी हमारी राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थापित होने दिया. और आज जब यह भस्मासुर अपने फासीवादी रंग-ढंग से हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही भस्म करने की ओर अग्रसर है तो हमें भागने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा.

ऊपर की पंक्तियों से यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि भाषा या जनजाति के आधार पर राज्य के पुनर्गठन के मांगों को सख़्ती से कुचल दिया जाना चाहिए था. कोई भी राष्ट्र अपने शुरुआती दौर में इन दुविधाओं से गुजरता है और यह जिम्मेदारी उस देश के नेतृत्व की होती है कि वह सभी वर्गों और क्षेत्रों का विश्वाश जीतकर उसे मुख्यधारा में लाने का प्रयास करें. हम संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह 'मेल्टिंग पॉट' नहीं हो सकते थे. इस बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में होमोजिनीटी या एसिमिलेटरी तरीकों पर बल दिए जाने की बजाए 'विविधता में एकता' का मार्ग ही सही हो सकता था और ज़ुमलों में ही सही हमने इसे अपनाया भी. भारतीय राज्य का यह सांस्कृतिक एजेंडा सफल हो भी सकता था यदि राजनेताओं ने विज़नरी स्टेट्समैन की भाँति अपनी भूमिका अदा की होती. सरदार पटेल की तुलना हम बिस्मार्क से करके खुश हो लें या जॉर्ज वाशिंगटन जैसे किसी नेतृत्व की कमी का रोना रो लें, पाठक जानते हैं हमारी एतिहासिक परिस्थितियाँ अलग थीं, आज़ादी हासिल करने का हमारा तरीका अलग था. राज्यों के एक संघ को खड़ा करने में पेश आनेवाली हमारी चुनौतियाँ भी कई मायनों में अलग थीं.

एक हिस्टोरिकल एजेंट के रूप में सरदार पटेल और नेहरू हमारे आज के राजनेताओं से कहीं अधिक दूरदर्शी थे. भिन्नताओं और उपराष्ट्रवादी उभारों से आशंकित एक राष्ट्र और समाज को एकता के सूत्र में पिरोने और इसे मज़बूत बनाने के एक दीर्घावधि के लक्ष्य का उन्हें एहसास था. हालाँकि यह दौर इतना उथल-पुथल भरा था कि कई एतिहासिक भूलें भी हुईं.

कुछ एतिहासिक तथ्यों पर निगाह डालने से बातें और स्पष्ट होंगी. बंगाल विभाजन के तीव्र भावनात्मक प्रतिरोध को ज़्यादा दिन नहीं हुए थे जब भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने 1920 के दशक से ही भाषा के आधार पर अपने काँग्रेस सर्कल का गठन करना शुरु कर दिया था. तीस के दशक के आखिर में देशी राज्यों में सक्रिय "प्रजा मंडल" तो वास्तव में कांग्रेस का ही छद्म संगठन था. इसलिए एक संघीय भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर होने के तर्क को मानने के लिए वह बाध्य थी. लेकिन ऐसे पुनर्गठन के प्रति विरोध के स्वर और उनमें छिपी आशंकाओं का जायजा लेना अभी ज्यादा प्रासंगिक है.

1947 के बाद दक्षिण भारत में मचे कोहराम ने राष्ट्रीय नेताओं की नींद हराम कर रखी थी. मद्रास का द्रविड़ियन आंदोलन केवल तमिलों के अलग होमलैंड की मांग नहीं थी वह समस्त दक्षिण भारत को ही भारतीय यूनियन से अलग करने की मांग थी. भाषायी राज्यों के प्रति आशंका का यह एक बड़ा कारण था. भाषाएँ भी कम संख्या में तो थी नहीं. राष्ट्रीय नेताओं को विभाजन के बाद के और भी कई बल्कनाइजेशन के खतरे दिखने शुरु हो गए थे. उत्तर-पूर्व में भी अलगाववाद जोरों पर था. ऐसे में 'भाषायी प्रांत' का विचार इतना जोख़िम भरा जान पड़ा कि कई उच्च-स्तरीय कमिटियाँ बिठाई गईं. सरकार द्वारा गठित कमीशन के मुखिया न्यायाधीश एस. के. डार ने कहा था- "राष्ट्रवाद और उप-राष्ट्रवाद दो ऐसे भावनात्मक अनुभव होते हैं जो एक-दूसरे की कीमत पर ही फलते-फूलते हैं."

कांग्रेस पार्टी द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति के दो सदस्य सरदार पटेल और नेहरू ने भी "सांप्रदायिकतावाद, प्रांतीयतावाद और दूसरे अलगाववादी और अशांतिकारक प्रवृत्तियों को कड़ाई से हतोत्साहित करने" की बात कही थी. दोनों ही समितियों की सिफारिश "भाषायी राज्यों" के गठन के खिलाफ थी. आशंकाएँ केवल राजनेताओं के ज़ेहन में नहीं थीं बल्कि समाज विज्ञानी और राजनीति के पंडित भी इसे भारतीय राष्ट्र के खंड-खंड में बँटने के बीज के रूप में देखते थे. हालाँकि आनेवाले समय में यह आशंका निर्मूल सिद्ध हुई. कम से कम भारतीय राष्ट्र के डिस्मेम्बरमेंट या विघटन की आशंका.

ऐसा न होने के कई कारण थे. ज्यादातर डेमोग्राफिक या जनांकिकीय. भाषायी समूहों के विस्तार और वितरण की 1971 की जनगणना में जो तस्वीर उभरती है उसके मुताबिक मातृभाषाओं की कुल संख्या थी 1652 और एक लाख से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या थी 82. 1992 के आँकड़े को लें तो संविधान में अधिसूचित राष्ट्रीय भाषाओं की संख्या थी 18. 22 राज्यों और 8 केन्द्रशासित प्रदेशों सबकी अपनी-अपनी आधिकारिक भाषा थी. लेकिन इनमें से प्रत्येक प्रदेश में इन सभी भाषाओं के बोलने वाले लोग पर्याप्त संख्या में मौजूद थे.

हालाँकि भारतीय राष्ट्र ने इन दबावों से निपटने के लिए समय-समय पर समझौते किए. ये समझौते केवल भाषायी राज्यों के मांग के समक्ष ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर में जनजातीय आधार पर भी राज्यों के बनने का सिलसिला जारी रहा. छोटी-छोटी आबादी वाले इन राज्यों में जनजातीय पहचान और अस्मिता की मांगे इतनी प्रबल है कि आज भी गोरखा और बोडोलैंड जैसी आवाजें उठती रहती हैं. पूर्वोत्तर में तो जनसंख्या के असमान वितरण की वजह से कुछेक जिलों पर दावे-प्रतिदावे को लेकर राज्यों के संबंधित जनजातियों के बीच खूनी संघर्ष तक की स्थिति पैदा होती रही है. जो जनजातियाँ जिन राज्यों में अल्पसंख्यक हैं उनपर पिछले कुछ वर्षों में हमले भी तेजी से बढ़े हैं.

बाँटो और राज करो का देसी संस्करण : दलहित सर्वोपरि

पंजाब और बंबई के विभाजन में उस समय की एकमात्र प्रभावशाली राष्ट्रीय पार्टी ने अपने राजनीतिक नफे नुकसान के आधार पर जो निर्णय लेना शुरु किया उसने एक अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति का बीज बो दिया.

उदाहरण के तौर पर बंबई राज्य के विभाजन की कहानी को ही समझने की कोशिश करते हैं. बंबई राज्य के बँटवारे या पुनर्समायोजन के शुरुआती द्वंद्व आर्थिक ज्यादा थे. बंबई शहर न सिर्फ एक महान बंदरगाह बल्कि एक बहुत बड़ा औद्योगिक केंद्र भी था. शहर के आम नागरिकों में से ज्यादातर महाराष्ट्रियन थे जबकि ज्यादातर पूँजीपति गुजराती, पारसी और मारवाड़ी (मूल रूप से राजस्थानी). गुजराती उपनिवेशवाद के खिलाफ महाराष्ट्रियन राजनेताओं की एकजुटता से कांग्रेस भयभीत थी. आम भावना एक मराठी भाषा वाला राज्य बनाए जाने के पक्ष में थी और बंबई को इसकी राजधानी बनाए जाने के पक्ष मे. बंबई भारत की वित्तीय राजधानी जैसी थी और थोड़े ठेठ आर्थिक शब्दों में कहें तो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी भी. इसका चरित्र भी पूरा मराठी नहीं था. दक्षिण भारतीय भी भारी तादाद में थे. खासकर तमिल. इस बारे में विस्तार से चर्चा लेख के अगले हिस्से में करेंगे.

बंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाए जाने के बाद इसका स्वरूप क्या वैसा ही बना रहेगा, इसके प्रति कांग्रेसी नेताओं के मन में आशंकाएँ अवश्य थी. लेकिन इसमें कोई शक नहीं था कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो महाराष्ट्र में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाएगा क्योंकि सारी विपक्षी पार्टियाँ पहले से लामबंद थीं. कुछ ऐसी ही स्थिति गुजरात में थी. कांग्रेस के गढ़ इस क्षेत्र में भी अलग राज्य गुजरात के बंबई से अलग किए जाने की मांग जोरों पर थी. पश्चिम भारत के इस बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र दल के रूप में अपनी प्रभुता कायम रखने के लिए कांग्रेस के पास इन दो राज्यों के बनाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था. नेहरू ने 1960 में अपने सामने इन दो राज्यों को बनते देखा.

पंजाब

पंजाब की कहानी थोड़ी अलग है. 1964 में नेहरू के निधन तक भाषायी आधार पर राज्यों की स्थापना की ज़्यादातर बड़ी मांगें मानी जा चुकी थीं. इसका एकमात्र अपवाद था पंजाबी सूबा. पंजाब सूबे को अलग करने की दुविधा बड़ी दिलचस्प थी. यहाँ आवरण भाषा का था लेकिन सिख सांप्रदायिकतावादी इसे धर्म से जोड़कर खालसा यानि सिख समुदाय द्वारा शासित राज्य की स्थापना करना चाहते थे. नेहरू को इस बात का भान था. सेकुलरवाद की उनकी समझ में किसी पंथ या धर्म के आधार पर किसी राज्य की स्थापना का कोई स्थान नहीं था. मुस्लिम सांप्रदायिकता पहले ही देश का विभाजन करा चुकी थी और सिख सांप्रदायिकता को मान्यता भी ऐसी ही किसी अप्रिय स्थिति को जन्म दे सकती थी.

हालाँकि 1966 तक चीन और पाकिस्तान के साथ युद्धों में सिख सैनिकों की बहादुरी इस राज्य को अलग पहचान देने में कितनी सहायक हुई यह तो नहीं मालूम लेकिन 1967 के भावी चुनाव में कांग्रेस पार्टी को पहली बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा था. इंदिरा गांधी द्वारा पंजाब का "सिख बहुल पंजाब" और "हिंदी भाषी हरियाणा" में विभाजन चुनाव की तैयारी का ही एक हिस्सा थी. हालाँकि इस विभाजन का विचारात्मक आधार 'भाषा' ही रहा. यानि धार्मिक आधार पर किसी राज्य की स्थापना को वैधता दिए जाने से परहेज किया गया. अस्सी के दशक में अलग खालिस्तान की मांग के बाद आंतरिक आतंकवाद और राजनीतिक हत्याओं का जो दौर इस प्रांत में देखने को मिला उसे लोग नहीं भूल सकते क्योंकि इंदिरा गाँधी की हत्या और बाद के दंगों को इसी के आलोक में देखे जाने की प्रवृत्ति पाई जाती रही है.

राजनीति चमकाने की दवा जो बन गई मर्ज़

यह इस देश के राजनीतिक इतिहास का एक ऐसा चरण है जिसमें राष्ट्र निर्माण का भार और इसकी निर्माण यात्रा का मार्ग तैयार करने का बीड़ा एक पार्टीविशेष का विशेषाधिकार जैसा बन कर रह गया. अब भाषा के आधार पर राज्यों की मांग की ही बात करें तो इसपर विचार कांग्रेस पार्टी के भीतर ही होता रहा और इस पर फैसला कांग्रेस के 'सिंडिकेट' में आनेवाले लोग ही करते रहे. सिंडिकेट रूपी इस अल्पतंत्री समूह में आसीन नेतागण वही थे जो किसी समय अपने-अपने प्रांतों की राजनीति के धुरंधर थे और इसी वजह से केंद्र में इनकी पैठ बनी थी. एकदलीय प्रभुत्व वाले इस दौर में यह कोई अजूबी बात भी नहीं थी. लेकिन राजनीति चमकाने की दवा राष्ट्र निर्माण के नेहरूवियन सपने के लिए लाइलेज रोग बन जाएगा ऐसा सोच-समझ पाने की दूरदर्शिता इस पीढ़ी के नेता खो चुके थे.

अब देखिए ना, भाषायी राज्यों के लिए उठने वाली मांगों या इनसे जुड़े आंदोलनों में आवश्यक रूप से हिंसा हुईं. कुछेक मामलों में हिंसा के गंभीर मामले भी सामने आए जिनमें जानें गईं और संपत्ति का भी नुकसान हुआ. लेकिन कुल मिलाकर सभी मांगे इतनी गंभीर भी नहीं थीं. गंभीरता की कसौटी केवल राजनीतिक नफा-नुकसान ही था. यानि यदि हिंसा इतनी गंभीर है कि इससे कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी एकजुट हो सकते हैं या उनको फायदा हो सकता है और कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व पर संकट आ सकता है तो समझौते का रास्ता अपनाया गया. जहाँ ऐसा नहीं पाया गया उन्हें सख्ती से दबा दिया गया. एक राष्ट्रीय पार्टी सत्तासीन रहने के लिए इतना कमजोर हो जाए कि उसके लिए राष्ट्रीय निर्माण का दीर्घावधि का एजेंडा बेमानी लगने लगे, इसका असर एक न एक दिन तो दिखना ही था.

(इस लेख के दूसरे भाग में हम प्रांतीयतावाद की दूसरी लहर और भाषा और संस्कृति से आगे जाकर "भूमिपुत्र" के अपेक्षाकृत ज्यादा आर्थिक विचारधारात्मक आधार औऱ इसके प्रति राष्ट्रीय पार्टियों के ढ़ुलमुल रवैये को परत-दर-परत जानने की कोशिश करेंगे. केंद्रीकृत योजनाओं की विफलता के चलते क्षेत्रीय असुंतलन, प्रांतीय स्वायत्तता, और उपराष्ट्रवादी उभारों पर भी चर्चा करेंगे. संकीर्ण राजनीतिक लिप्सा से प्रेरित छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा पैरोकिअल उभारों को हवा देने और लामबंदीकरण में सफल रहने पर केंद्रीकारी ताकतों से सौदेबाजी के ज़रिए मुख्यधारा की राजनीति में मान्यता हासिल करने की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालेंगे जिसका सीधा संबंध बंबई के ताज़ा घटनाक्रमों से है.)



अव्यक्त शशि

Tuesday, February 12, 2008

नीतीश जी, जनता को विकास चाहिए, राजनीतिक स्वार्थ नहीं...

नीतीश कुमार जी बिहार में आपका शासन अच्छा चल रहा है.

अच्छा लगता है जब अपने पत्रकार मित्रों से सुनता हूं कि राज्य की छवि देश में अच्छी बन रही है. यह कमाल आपने महज दो वर्ष दो महीने यानी कुल 26 महीने में ही कर लिया.

आपको भी अच्छा लगता होगा जब बड़े-बड़े घराने राज्य में निवेश करना चाहते होंगे लेकिन आपको अपने ही गृह जिले में चप्पलों, ढेलों और कीचड़ का सामना करना पड़ा. यह तो आश्चर्यजनक लगता होगा न !

इस तरह के स्वागत का अंदाजा आपको नहीं रहा होगा तो पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को कहां से होगा, जिन्होंने हवाई 2020 का भ्रम फैला रखा है. श्रद्धेय कलाम जी को भी पता चल गया होगा कि लोग क्या चाहते हैं?

नीतीश जी लोग यथार्थ में जीते हैं. जब पेट में भूख की आग हो तो वे सपने नहीं बुना करते हैं. बिहार के गरीबों के पेट की आग क्या होती है, आप जानते होंगे, इसमें शक ही है? आपके ईद-गिर्द घूमने वाले राजीव रंजन सिंह जैसी लोगों से इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

खैर महत्वाकांक्षी योजना नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, जो कलाम का सपना है, उसे आप पूरा करना चाहते हैं. आपके इरादे में भी नेक हैं. लेकिन यदि आपके ही जिले के किसानों ने उचित मुआवजा मांग लिया तो इसमें राजनीतिक साजिश ढूंढना कहां तक उचित है.

सुना है कि आपकी पार्टी के नेता ही उन किसानों का नेतृत्व कर रहे थे ! पता करिएगा.

खैर, बिहार के अंदर का यह विरोध यूं ही नहीं है. बिहार की आबादी के हिसाब से प्रति व्यक्ति भूमि में कमी आई है. झारखंड बंटवारे के बाद बिहार में बेरोजगारी और बढ़ी है. राज्य में कृषि भूमि पर दबाव है. यहां के किसान खेती से कुछ जमीन निकाल कर विश्वविद्यालय के लिए दे दें, यह उनको गंवारा नहीं है. ऐसी हालत में यह प्रतिरोध तो होना ही था.

बंगाल में सिंगुर-नंदीग्राम के बाद अब किसी सरकार के लिए किसानों की जमीन का अधिग्रहण उतना आसान नहीं रह गया है. कम से कम वहां के किसानों के आंदोलन ने देश के किसानों को जागरूक कर दिया है.

पश्चिम बंगाल में वर्गा कानून लागू होने की वजह से जितने बटाईदार थे, उन्हें कास्तकारी और स्वामित्व का अधिकार मिला. बावजूद इसके उस लोकप्रिय सरकार को सिंगुर-नंदीग्राम पर किसानों का गुस्सा झेलना पड़ा. देश के किसान अब जबरन जमीन नहीं देंगे.

नीतीश जी, आप खबरों में कहते हैं. बिहार में सिंगुर-नंदीग्राम नहीं होने देंगे और जबरन जमीन का अधिग्रहण भी नहीं करेंगे. तो फिर आप नालंदा में क्या कर रहे हैं?

नालंदा में जमीन का बाजार भाव 20-25 हजार रुपए प्रति कट्ठा है और सरकार किसानों को महज 10 हजार प्रति कट्ठा दे रही है. किसान मुआवजे में एक लाख मांग रहे हैं.

चलिए हो सकता है, मेरे आंकड़ों में कोई कमी रह गई हो, लेकिन आपकी सरकार या कहें आप कैसे काम करते हैं, कुछ इस पर भी बात कर लेते हैं, जो आपके चहेते पत्रकारों को नहीं दिखता है.

चंपारण के केसरिया में कोरबा चीनी मिल के लिए अधिग्रहण का काम होना है. छपरा में रसूलपूर में भी चीनी मिल के किसानों से जमीन लिया जाना है. लेकिन रसूलपूर से महज 15 किमी दूर पचरूखी में राज्य चीनी निगम का एक मिल है, जो पिछले डेढ़-दो दशक से बंद है.

मिल के पास करीब 10 हजार एकड़ जमीन बेकार बची है. आप रसूलपूर की जगह पचरूखी की चीनी मिल को फिर से चालू कर सकते हैं. इस समय राज्य चीनी निगम के पास 20 से ज्यादा चीनी मिलें हैं और तकरीबन सभी के पास 5-10 हजार एकड़ जमीनें बेकार बची हैं. ऐसे में नए जगहों पर चीनी मिल खोलने का क्या मतलब है.

चलिए कुछ और उदाहरण देखते हैं. आपकी यह आदत पुराने समय से रही है. आप रेलमंत्री के जमाने से विकास पुरुष हो गए हैं. मीडिया में आपकी ऐसी ही छवि गढ़ी गई है.

बरौनी के गढ़हरा रेलवे यार्ड में हजारों एकड़ जमीन है. यार्ड बंद हो गया. उसकी जमीन पड़ी है. लेकिन आपने गढ़हरा के बजाए अपने क्षेत्र हरनौत में रेल कोच कारखाना खोलना की योजना को हरी झंडी दिखाई.

वैसे आपके मित्र लालू प्रसाद यादव भी कम नहीं हैं. उन्होंने भी गढ़हरा की ओर नहीं देखा. दूसरे विकल्प जमालपुर को नहीं देखा और अपने चुनाव क्षेत्र छपरा का चयन किया.

दरअसल आप और आपके अजीज मित्र लालू प्रसाद बिहार के विकास को लेकर बहुत चिंतित दिखते हैं. लाजिमी भी है. लेकिन यह विकास है या राजनीतिक स्वार्थ, इस भेद को समझना जरूरी है.

यदि विकास करना होता तो आप नए सिरे से उन पुराने चीनी मिल, यार्ड की पड़ी जमीनों का इस्तेमाल कर सकते थे. लेकिन जमीन अधिग्रहण के खेल के पीछे राजनीतिक स्वार्थ है. आपकी दिलचस्पी बिहार के विकास में नहीं, राजनैतिक विस्तार में है.

काश आजादी के बाद बिहार के मुख्यमंत्रियों ने अपना राजनैतिक विकास राज्य के विकास में देखा होता तो शायद महाराष्ट्र में कोई राज ठाकरे जैसा सरफिरा और दिल्ली के उपराज्यपाल तेजिंदर खन्ना जैसा बददिमाग "तानाशाह" बिहारियों का इस तरह से मजाक नहीं उड़ाता.

बहरहाल, अब राज्य के किसान आपके राजनीतिक स्वार्थ को समझने लगे हैं. इसलिए किसानों का गुस्सा होना और इस तरह से चप्पलें फेंकना स्वाभाविक है.

बाढ़ में एनटीपीसी कारखाना के खिलाफ भी किसान लगातार विरोध कर रहे हैं. क्या आप इसे समझ रहे हैं, क्या हो रहा है? उधर सीमावर्ती इलाकों में इस्ट एंड वेस्ट कॉरीडोर को लेकर मधुबनी जिला में जबरदस्त विरोध हो रहा है.

नीतीश जी आपको नालंदा में जिस विरोध का सामना करना पड़ा है, वह राज्य के पता नहीं कितने हिस्सों में रोज घट रहे हैं. लेकिन आप बेपरवाह हैं. मेरे गृह जिला शेखपुरा के घाटकुसुम्भा में सड़क बनाने के नाम पर हजारों एकड़ जमीन ले ली गई. उन किसानों को मुआवजा नहीं मिला. उनका फसल खराब हो गया, लेकिन आप क्यों उनकी परवाह करेंगे.

इसी ब्लॉक के पानापुर में एनबीसीसी के बुलडोजर ने 42 घरों को बुलडोजर से ढाह दिया और सड़क बना दी. किसान सड़क पर आ गए हैं. यही किसान धीरे-धीरे मुंबई और दिल्ली जाएंगे. उन पर जब हमले होंगे तब आप मीडिया में बयानबाजी करेंगे?

लेकिन अपने ही गृह राज्य में किसानों के गुस्से-प्रतिरोध और जबरन जमीन अधिग्रहण पर इतनी बेरूखी क्यों नीतीश जी? प्रतिरोध तो होना तय है, आप वक्त रहते चेत जाएं?

नालंदा के किसान आपके खिलाफ सड़क पर उतर आए हैं. राज्य के बाकी किसान भी जल्द ही उतर आएंगे. राज्य की जनता विकास चाहती है नीतीश जी, राजनीतिक स्वार्थ नहीं...



राहुल कुमार

Sunday, February 10, 2008

किडनी और किसान: 9 फीसदी के आईने में...

10 फरवरी, 2008. अमित कुमार को आज कोर्ट में पेश किया जाना था. कार्यक्रम, रणनीति कल शाम से ही तय हो चुकी थी. एयरपोर्ट से लाते समय भी विजुअल बन नहीं सके थे लिहाजा दबाव बढ़ चुका था.

कोर्ट में पेशी के विजुअल हर हाल में चाहिए विवेक बाबू. अधिकारियों के फोन आते ही रात पीठ ऐसी सीधी हुई की ऐंठन के मारे रीढ़ में सुबह तक दर्द हो आया. तनाव में अधकचरी किस्म की नींद लेकर सुबह उठा तो देखा मोबाइल घड़ी साढ़े सात बजा रही है.

गोली की रफ्तार से बाथरूम, पूजाघर, किचन और फिर पटियाला हाउस. साढ़े आठ बजे वहां पहुंचा तो देखा तमाम चैनलों की टीमें मैदान-ए-जंग में डटी थीं. अंतर सिर्फ ये था कि मेरा दफ्तर क्रिकेट के साथ साथ किडनी को लेकर भी उतना ही संवेदनशील है तो अमित के हर सार्वजनिक मौके को वो जनता के सामने लाने से नहीं चूकना चाहता था.

मेरे पास चार यूनिट थीं. लिहाजा चारों को मैंने चायपानी के बाद युद्ध के अंदाज में पटियाला के चारों गेटों पर तैनात कर दिया. बीच बीच में अमित पर चर्चा होती रही. कभी मानवता पर लगे एक भद्दे दाग के रूप में, कभी एक पेशेवर क्रिमिनल कैरेक्टर के रूप में, तो कभी एक ऐसे शख्स के रूप में जिसकी गलती सिर्फ आपराधिक अवसरवाद रही हो.

बहरहाल, तमाम वकीलों से मशविरे के बाद ये तय हो गया कि अमित को यहीं पटियाला में पेश किया जाएगा. नौ बजे, दस बजे, ग्यारह भी बज गए....

सारे पत्रकार विरहिनों की तरह अपने सुहाग की बाट जोह रहे थे. लेकिन ना तो मुई सीबीआई की गाड़ी आती दिख रही थी, ना अमित का हजारों पुलिस वालों के बीच बेखौफ मुस्कुराता चेहरा दिखाई पड़ने की कोई उम्मीद नजर आ रही थी.

तभी फोन की घंटी बजी और तीस हजारी से एक शुभचिंतक काले कोट धारी का फोन आया कि पुलिस वहां बैरिकेटिंग कर रही है. शुक्रिया अदा करते हुए मैंने तुरंत फोन काटा और वहां मौजूद रिपोर्टर का नंबर मिलाया.

ऊंघती सी आवाज में जवाब आया कि मैं तो कोर्ट के दूसरी तरफ हूं, अभी जाती हूं मेन गेट की ओर. महिला, मीडिया और माया को कोसते मैंने दूसरे चैनल के साथी रिपोर्टर को फोन मिलाया और कन्फर्मेशन के बाद दो कैमरा यूनिट तीस हजारी डाइवर्ट करा दीं.

मन धुकधुक कर रहा था कि ये भी एयरपोर्ट वाला दिन ही साबित होने वाला है. तभी सीबीआई पर मौजूद रिपोर्टर का फोन आया, " हम आईटीओ क्रॉस कर चुके हैं और तीस हजारी की ओर बढ़ रहे हैं. मुझे नहीं लगता कि अमित को पटियाला हाउस में पेश किया जाएगा."

मैंने सांस छूटते ही तीस हजारी फोन मिलाया और जानकारी पास कर दी. करीब पंद्रह मिनट बाद असाइनमेंट गरजा कि गुलाबी बाग भागो, गाड़ी उसी ओर जा रही है.

लगा, सब कुछ छूट सा रहा है और भारत में चौबीस घंटे बिताने के बाद रात भर की पूछताछ के बाद के अमित कैसा दिख रहा होगा, ये चाशनी अब टीवी पर बिखेरी नहीं जा सकेगी.

बहरहाल, मैं वहां नहीं पहुंच सका. एपी, एएफपी, एबीसी अमेरिका, सीएनएन, बीबीसी, मर्डोक का स्टार, टीवीटुडे, दुनिया को बदल रहा सारा मीडिया ठगा रह गया और सीबीआई हर नजर से बचाती अमित को पेश कर वापस अपनी कोटर में लौट गयी.

अगर वो दरिंदा है, तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर कोर्ट में पेश किया गया.

क्या पता, रात की पूछताछ में उसने स्वास्थ्य मंत्री के रिश्तेदार की ही किडनी बदलने की बात कबूल कर ली हो. कई तरह के अनुमान लगाए जा सकते हैं.

सीबीआई का तो काम ही है सत्ताधारियों की पतलून बचाना. आखिरकार कुछ भी हो, हम क्यों इस शख्स पर इतनी हायतौबा मचा रहे हैं.

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अमित राउत. आयुर्वेदिक सर्जन. किडनी रैकेट किंगपिन. दरिंदा. अमानुष. राक्षस.......पता नहीं क्या-क्या.

लेकिन हम-आप जिस चेहरे को इतना क्रूर बता रहे हैं वो तो बड़े आराम से हजारों कैमरों की मौजूदगी में मुस्करा रहा है. डीलर नहीं बल्कि डॉक्टर होने का संदेश दे रहा है.

हर ओर मानो राक्षस...राक्षस...राक्षस......राक्षस...राक्षस...का शोर मचा हो और चीख पुकार करते फटे पेट एक किडनी के साथ टहल रहे लोगों के बीच से एक चेहरा अट्टहास करता उभरता है.

मैं तुम्हारी व्यवस्था हूं, तुम्हारा तंत्र हूं, तुम्हारा बनाया कानून हूं. मैं तुम्हारी लोकशाही का असली चेहरा हूं. आओ, देखो, देखो मुझे...

और आप सहम जाते हैं त्रासदी का ये क्रूर चेहरा देखकर.

एम्स के बाहर, रात करीब दस बजे का वक्त.

तफ्तीश कर रहा हूं उन लोगों की मौजूदगी की जो 300 से 400 रुपए में अपना एक बोतल खून बेचते हैं. लोग मिलते हैं, सच्चाई से रूबरू होता हूं.

15 अक्टूबर, 2002. सूनामी की त्रासदी से उबर रहा दक्षिण भारत. चेन्नई की झोपड़पट्टी की एक बस्ती का नाम किडनीपुरम पड़ गया है. यहाँ के लोगों ने सोचा कि दोनों किडनी लेकर मरने से बेहतर है एक बेचकर कुछ दिन तो सांसें ली जाए.

आखिर कौन होंगे वो लोग जिन्होंने डॉ. अमित के दलालों को अपनी किडनियां बेची होंगी. और कौन होंगे वे, जिनकी किडनी जबरन निकाली गई होगी.

क्यों किसी ने अपनी किडनी को बेचने का रास्ता चुना होगा. शायद तब, जब उन्हें लगा कि अंग जरूरत से ज्यादा हैं और पैसा जरूरत से कम, तो क्यों ना गैरजरूरी चीज हटाकर जरूरी चीज जुटाई जाए.

और बेच दी होगी किडनी...

कभी सोचा है आपने अगर तेलंगाना, उत्तरी महाराष्ट्र और बुंदेलखंड के किसानों को अमित के बारे में मालूम होता तो कितने किसानों की जिंदगी बच जाती.

शायद नहीं...

किसानों को भी पता नहीं रहा होगा कि कर्ज में आकंठ डूबने के बाद खुद को खत्म कर लेने से पहले उनके पास एक उपाय अभी बाकी है. दो में से एक किडनी बेचने का.

महाजन का कर्ज भी चुकता हो जाएगा और अगर इंद्रदेवता तनि मुस्करा दें, तो शायद अगली फसल बेहतर हो जाए.

किसान भागकर महाजन से आखिरी बार कर्ज लेने जाता गुड़गांव तक के किराए के लिए, क्योंकि उसके बाद अनेकों कर्ज के जाल से मुक्त हो जाते.

जिस देश का प्रधानमंत्री* एक किडनी पर पांच साल देश चला सकता है तो मरता किसान एक किडनी पर सांसें तो चला ही सकता है. आज़ादी के साठ साल बाद, नौ फीसदी की विकास दर वाले देश में किसान इससे ज्यादा और कर भी क्या रहा है...!

अमित कर्ज में डूबे किसानों के लिए भगवान था.

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*पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 1984 में ही अपनी एक किडनी गंवा चुके हैं. लेकिन एक किडनी पर ना सिर्फ देश चलाया बल्कि आज अपनी उम्र के लोगों के लिए चुनौती हैं.


अगले पोस्ट में बताएंगे कैसे छूटेगा अमित और कैसे किडनी के धंधे का धंधा आपकी लोकशाही में कभी बंद नहीं होने वाला. चाहे कानून नहीं आप कानून का बाप ही क्यों ना बना लें... तब तक के लिए, सोचते रहें !!!




Saturday, February 9, 2008

बाबा आम्टे को नमन...

कभी महात्मा गांधी की कर्मभूमि रही वर्धा के छोटे से गांव हिंगनघाट में 26 दिसंबर, 1914 को एक और गांधी जन्मा.

ये कोई और नहीं प्रसिद्ध समाजसेवक मुरलीधर देवीदास आम्टे थे.

ब्राह्मणों का परिवार, जगीरदारों का घराना और रईसों जैसे शौक कुछ ऐसे बीते बाबा के शुरुआती दिन. तरुणाई में फिल्मों की तरफ झुकाव बढ़ा तो फिल्मी मैगजीन "पिक्चर गोयर" के लिए कई लेख और साक्षात्कार लिखे.

मन किया तो हिरन और जंगली सुअर का शिकार करने से भी नहीं चूके. टेनिस और बिऱज के खेल में भी वे किसी से पीछे नहीं रहे.
वरोरा में जमे-जमाए वकालत के पेशे के साथ गृहस्थ जीवन की शुरुआत की. 450 एकड़ की जमींदारी, नगरपालिका में वाइस प्रेसीडेंट, सब कुछ ठीक-ठाक था.

अचानक इन चीजों से बाबा का मन उखड़ा और उन्होंने कुष्ठ रोगियों के लिए कुछ करने की ठानी. लगन थी, तो उन्होंने रास्ता भी खोज ही लिया.

जून, 1951 में इस गांधीवादी समाजसेवक ने सरकार द्वारा कुष्ठ परियोजना के तहत दी गई बंजर जमीन पर काम करना शुरू किया.

जमीन भी ऐसी कि जिसे देख अच्छे-अच्छे अपना हौसला खो दें. बिच्छुओं, सांपों और जंगली जानवरों का घर थी वह जमीन और बाबा के पास था तो सिर्फ हौसला.

14 रुपए की कुल जमा-पूंजी, एक जोड़ा गाय, पत्नी साधना ताई, दो बच्चों विकास और प्रकाश और कुछ कुष्ठ रोगियों के साथ उन्होंने जो काम शुरू किया वह आज मिसाल बन चुकी है.

बाबा को नमन...
विष्णु सोनी

Thursday, February 7, 2008

नेपाल में चुनाव पर आशंकाओं के बादल...

नेपाल की समस्याएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. जैसे-जैसे संविधान सभा के चुनाव निकट आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे यह आशंका भी बढ़ती जा रही है कि चुनाव हो भी पाएंगे कि नहीं.

ये आशंकाएं इसलिए भी बलवती होती जा रही हैं क्योंकि एक तरफ माओवादियों को तराई क्षेत्र में अपनी हार साफ नजर आ रही है और दूसरी तरफ मधेसी जनाधिकार मंच जैसे कुछ संगठनों ने उनकी मांगें माने जाने तक चुनाव में व्यवधान डालने की घोषणा कर दी है.

माओवादी इसलिए ज्यादा सशंकित हैं क्योंकि भारतीय सीमा से लगे नेपाल के इस तराई इलाके में अब माओवादियों का दबदबा लगभग खत्म हो रहा है.

माओवादियों के प्रमुख प्रचंड ने भारत के कुछ हिंदू तत्वों पर तराई के अलगाववादी संगठनों को समर्थन देने का आरोप लगाया है. उन्होंने साफ-साफ कहा है कि इन संगठनों से किसी तरह की बातचीत का सवाल ही नहीं उठता है.

लेकिन प्रचंड के बयान से खतरे की घंटियां बजनी शुरू हो गई हैं कि माओवादी चुनाव में पराजय बर्दाश्त नहीं करेंगे.

प्रचंड ने कहा कि अगर संविधान सभा के चुनावों में उनकी हार होती है या चुनाव किसी वजह से नहीं हो पाते हैं तो वे सत्ता पर कब्जा कर लेंगे.

प्रचंड के इस बयान के बहुत दूरगामी परिणाम होंगे. क्योंकि इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनकी लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं है.

दूसरी तरफ नेपाली कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं ने चेतावनी दी है कि अगर चुनाव से पहले मधेसियों की समस्या का हल नहीं निकाला गया तो तराई क्षेत्र का विघटन भी हो सकता है.

माओवादियों और इस इलाके में रहने वाले लोगों के बीच टकराव का सिलसिला तब शुरू हुआ जब एक माओवादी नेता की गोली से सोलह साल का एक मधेसी कार्यकर्ता मारा गया.

हालांकि सत्ता में आने के बाद से माओवादी एक बार फिर वहां पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिल रही है.

नेपाल में कुल मिलाकर 75 जिले हैं जिसमें से बाइस जिले तराई क्षेत्र में हैं. लेकिन जनसंख्या के मामले में देश के लगभग अड़तालीस प्रतिशत लोग वहां रहते हैं.

इसका सीधा अर्थ है कि यहां रहने वालों की संविधान सभा तथा भावी सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका होगी.

संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या छह सौ एक होगी और उसके आधे से कुछ कम यानी लगभग अड़तालीस को तराई क्षेत्र ही चुनकर भेजेगा.

पूर्व मंत्री महंत ठाकुर के नेतृत्व में एक नई तराई मधेसी लोकतांत्रिक पार्टी का गठन किया गया है जिसने तराई स्वायत्तता और आत्मनिर्णय के अधिकार को अपना चुनाव मुद्दा बनाया है.

इस पार्टी में उच्च जातियों का दबदबा है इसलिए यह देखने वाली बात होगी कि अन्य जातियों तथा दलित और अल्पसंख्यक इस पार्टी से अपने को कितना जोड़ पाएंगे.

यह यहां की राजनीति में काफी महत्वपूर्ण साबित होगा. हालांकि संघीय प्रणाली अपनाने का एलानहोने के साथ ही बहुत सारे जातीय और क्षेत्रीय संगठनों ने यह कहना शुरू कर दिया कि काठमांडू को पहले की तरह की सत्ता का केंद्र नहीं रहना चाहिए. उनकी मांग थी कि सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए.

तराई में मधेसियों द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन इसी मांग का पहला और संगठित स्वरूप है. यही मामला अभी और पेचीदा बनेगा.

लेकिन इसका आगामी चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह देखना होगा. तराई क्षेत्र में जमीन काफी उपजाऊ है इस कारण पहाड़ी इलाकों के लोग भी बड़ी संख्या में पलायन कर वहां पहुंचने लगे हैं. मधेसी लोग इसे काठमांडू की सत्ता को जारी रखने की सुनियोजित साजिश के रूप में देख रहे हैं.

हालांकि सरकार ने चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से कराने के लिए व्यापक सुरक्षा उपाय करने की घोषणा की है. उसने कहा है कि दस अप्रैल को होने वाले संविधान सभा के चुनाव के लिए डेढ़ लाख सुरक्षाकर्मी तैनात किए जाएंगे.

तराई क्षेत्र के सबसे अशांत आठ जिलों में सुरक्षा के और कड़े उपाय किए जाएंगे.

मधेसी जनाधिकार मंच के नेताओं ने साफ कर दिया है कि जब तक सरकार उनकी अधिक राजनीतिक और आर्थिक स्वायत्तता की मांग नहीं मानेगी तब तक चुनाव में व्यवधान डालने का उनका फैसला बदलने वाला नहीं है.

उन्होंने धमकी दी है कि यदि सरकार ने उनकी मांग को गंभीरता से नहीं लिया तो उसके लिए तराई क्षेत्र में संविधान सभा के चुनाव कराने मुश्किल होंगे.

तराई के असंतुष्टों ने इस दिशा में शुरुआत भी कर दी है.

सत्तारूढ़ सात दलों के गठबंधन के संयुक्त चुनाव अभियान को असफल बनाने के लिए वे उन स्थानों पर बंद का आह्वान करने लगे हैं, जहां गठबंधन चुनाव सभाएं करने की घोषणा करता है.



राजीव पाण्डे

ठोकर खाएंगे ठाकरे...

अमिताभ बच्चन की एक फिल्म है- लक्ष्य. उसमें अमिताभ भारतीय सेना के एक अधिकारी हैं. फिल्म में वह मराठी हैं. अपने मातहत अफसरों से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि हमारी मराठी में एक कहावत है- पहले उसे मराठी में सुनाते हैं फिर हिंदी में अर्थ बताते हैं कि अपना घर तो संभलता नहीं और दूसरों की बात करते हैं.

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे के साथ भी कुछ ऐसा ही है. क्यों कर रहे हैं राज साहब ये सब. अपनी पार्टी का बिखराव रोकने के लिए, अपना जनाधार बढ़ाने के लिए या फिर उद्धव ठाकरे से मुकाबला करने के लिए या फिर मुंबई में दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों की समस्या की ओर लोगों का ध्यान खींचने के लिए या फिर अपना घर (पार्टी) ना संभाल पाने की हताशा?

उनका मकसद इनमें से कोई भी हो, पर वह उसे हासिल करने का जो तरीका उन्होंने अपनाया है वह उन्हें एक और नाकामी की ओर ले जाएगा.

शिवसेना में रहते हुए उन्हें लग रहा था कि उनकी प्रतिभा के बजाय उनके ताऊ बाल ठाकरे अपने बेटे उद्धव को तरजीह दे रहे हैं. पार्टी में राज और उद्धव के बीच शीत युद्ध का एक दौर चला. उन्हें लग रहा था कि ठाकरे अब महाराष्ट्र के तो क्या मुंबई के भी शेर नहीं रहे. उनका सोचना गलत नहीं था.

ऐसे में राज ठाकरे के समर्थकों को उनमें पुराने बाला साहब की झलक दिखाई दे रही थी और राज को खुद भी ऐसा ही लगता था. राज ठाकरे ने ऐसे समय में शिवसेना छोड़ी जब बाल ठाकरे के पुराने साथी एक-एक कर पार्टी से बाहर अपना भविष्य तलाश रहे थे. राज ठाकरे को लगा कि उद्धव उनका मुकाबला क्या करेंगे, सेना की विरासत तो उनका इंतजार कर रही है. बस उनके आगे बढ़कर संभालने की देर है.

महाराष्ट्र और मुंबई के स्थानीय निकाय चुनावों में वो सेना की विरासत पर मतदाता की मुहर लगवाने के इरादे से उतरे. चुनाव नतीजों से पता चला कि हकीकत और राज ठाकरे के सपनों की दुनिया में बहुत फासला है. राज ठाकरे बाला साहब से हार जाते तो शायद उन्हें इसका ज्यादा मलाल ना होता लेकिन उद्धव से हार को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए.

24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस होता है. मुंबई के उत्तर भारतीय उत्तर प्रदेश दिवस और छठ के त्यौहार को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं. उत्तर प्रदेश दिवस पर दो कार्यक्रमों में उद्धव ठाकरे भी गए और उनका खासा स्वागत भी हुआ. इस घटना ने राज ठाकरे की हताशा को और बढ़ा दिया.

शिवसेना का इतिहास राज ठाकरे को पता है, लेकिन ऐसा लगता है कि मुंबई के वर्तमान को वह भूल गए. बाल ठाकरे के चार दशक पुराने रास्ते पर चलने का फैसला करने से पहले उन्होंने कोई गंभीर सोच विचार नहीं किया. अगर करते तो समझ जाते कि बाल ठाकरे की तरह उनके पास मराठी संस्कृति और अस्मिता की रक्षा जैसे नारों का कोई भावनात्मक आधार नहीं है.

वे यह भी भूल गए कि फरवरी 1956 में मराठी भाषियों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन के लिए जिस तरह संयुक्त महाराष्ट्र समिति का गठन हुआ उसके प्रमुख नेताओं में बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे भी थे. 1960 में बंबई प्रांत को तोड़कर मराठी भाषियों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती भाषियों के लिए गुजरात बना.

मराठी भाषियों के लिए अलग राज्य बनने के बावजूद असरदार पदों पर गैरमराठियों के काबिज होने को आधार बनाकर शिवसेना ने अपने पैर जमाए. आज की मुंबई में मराठी 60 के दशक की तरह उपेक्षित नहीं हैं. बाल ठाकरे अपनी हिंसा की राजनीति के बावजूद अगर कभी जेल नहीं गए तो इस कारण कि मुंबई से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस के असरदार नेताओं का हाथ उनकी पीठ पर था.

हिंसा की राजनीति करने वाले का रसूख तभी तक रहता है जब तक राज्य सत्ता की ताकत उस पर अंकुश नहीं लगाती है. तमाम और बातों के अलावा बाल ठाकरे की सबसे बड़ी ताकत यही थी. आज तक किसी भी मामले में ठाकरे या उनका विश्वस्त जेल नहीं गया.

राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता जिन गरीब टैक्सी वालों, सब्जीवालों और रेहड़ी पटरी के लोगों को निशाना बना रहे हैं, उन्होंने मराठी लोगों से ना तो रोजगार छीना है और ना ही उनकी संस्कृति के लिए कोई खतरा है.

अमिताभ बच्चन आज सुपर स्टार हैं तो इसलिए नहीं कि वो मुंबई में रहते हैं. यदि फिल्म उद्योग मुंबई में नहीं होता तो भी अमिताभ बच्चन सुपर स्टार ही होते. बच्चन और उनके जैसे कलाकारों ने मुंबई से जितना लिया उससे ज्यादा दिया है.

राज ठाकरे को यह बात समझ में नहीं आएगी इसलिए कि वे समझना ही नहीं चाहते. राजसत्ता को उन्हें और उनके समर्थकों को बताना पड़ेगा कि विभाजनकारी ताकतों के एक और दौर के लिए मुंबई तैयार नहीं है. यह जल्दी हो, सबके लिए ये अच्छा होगा.



प्रदीप सिंह

Wednesday, February 6, 2008

अर्थनीति बनाम राजनीतिः कैसे सधे दोऊ..!

बजट का संबंध आर्थिक नीति से होता है या राजनीति से? आप आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं तो कहेंगे कि राजनीति बाद में, आर्थिक नीति पहले और, अगर नेता हैं तो कहेंगे आर्थिक नीति बाद में देख लेंगे, पहले देखो कि इससे हमारी राजनीति न बिगड़ जाए.

गलती से कहीं आप मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम हैं तो दोनों में संतुलन साधने की चुनौती आपके सामने है. कहते हैं कि अच्छी अर्थनीति अच्छी राजनीति भी हो यह जरूरी नहीं है. लेकिन जनतंत्र में जो यह नहीं पर पाएगा उसकी अर्थनीति और राजनीति दोनों बिगड़ जाएगी. इस बात का एहसास मनमोहन सिंह से ज्यादा और किसे होगा.

भारत में मनमोहन सिंह और पीवी नरसिंहराव की जोड़ी, आर्थिक उदारीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण के जनक हैं. 1991-92 में शुरू की गई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को घोर संकट से उबार लिया बल्कि उसे विकास के हाईवे पर डाल दिया.

पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की इस कामयाबी ने देश और दुनिया में खूब झंडे गाड़े. पांच साल बाद आम चुनाव हुए तो कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर लोकसभा का चुनाव नहीं जीत पाए.

कांग्रेस की हार में सबसे बड़ा योगदान आर्थिक नीतियों का था. वह भी ऐसे हालात में जब इन नीतियों को लेकर वामदलों के अलावा किसी का विरोध नहीं था. वामदलों का विरोध भी दिल्ली में सुनाई देता है और कोलकाता पहुंचत-पहुंचते उसकी दिशा बदल जाती है.

पिछले डेढ़ दशक में आर्थिक उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को विससित देशों के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की है. इसके बावजूद जो भी उदारीकरण का चैंपियन बना, उसे जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

कर्नाटक में एसएम कृष्णा, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और केंद्र में इंडिया शाईनिंग का नारा लगाकर भारतीय जनता पार्टी अब तक पछता रही है. पर यह भी सच है कि न तो भाजपा ने कांग्रेस की दुर्दशा से सबक सीखा और न ही कांग्रेस ने भाजपा की हार से.

हालांकि सत्ता में आने से पहले कांग्रेस ने जब राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाया उस समय लग रहा था कि कांग्रेस इस बार पुरानी गलती नहीं दोहराएगी. करीब चार साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी फिर वहीं खड़ी है जहां 1996 में थी.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कह रही हैं कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ठीक से लागू नहीं हुई. राहुल गांधी कह रहे हैं कि योजनाओं के एक रुपए का केवल पांच पैसा जरूरतमंद तक पहुंच रहा है.

मनमोहन सिंह सरकार के इस कार्यकाल का यह आखिरी बजट होगा. वित्तमंत्री पी चिदंबरम जब बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे तो उनके सामने अपने पहले ड्रीम बजट की यादें होंगी या आम आदमी के सपने.

साढ़े आठ फीसदी की विकास दर, तरक्की करता सेवा क्षेत्र, उत्पादन बढ़ाता औद्योगिक क्षेत्र और प्रत्यक्ष कर से लबालब वित्तमंत्री की झोली, ये सब तथ्य क्या देश के 44 फीसदी ग्रामीणों के घरों को रौशन कर सकते हैं.

भारतीय नमून सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 74 फीसद ग्रामीण घरों में अब भी उपले और लकड़ी पर खाना बनता है. वित्तमंत्री पेट्रोल और डीजल पर कितनी सब्सिडी दे रहे हैं, इससे इनलोगों को क्या मतलब..?

बात केवल गांव की नहीं, शहर में भी गरीब के हालात बहुत अलग नहीं हैं. शहरों में 22 फीसदी लोग रोजाना 19 रुपए प्रतिव्यक्ति ही खर्च करने की हैसियत रखते हैं.

प्रधानमंत्री के तमाम आश्वासनों और पैकेज के बावजूद किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही. बुंदेलखंड में पानी से बेहाल लोग पलायन कर रहे हैं फिर भी अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की रफ्तार से दौड़ रही है.

विकास के इन आंकड़ों का हाल मुद्रास्फीति की दर की तरह है जो आंकड़ों में घटती है तो वास्तविकता में महंगाई बढ़ती है.

आर्थिक नीतियां हों या बजट घोषणाएं, कोई सरकार आज तक इनके बूते चुनाव नहीं जीती है. हां, चुनाव हारने वालों की लंबी फेहरिस्त है. इंदिरा गांधी 1971 में आर्थिक नीतियों के कारण नहीं गरीबी हटाओ के नारे पर जीती थीं. महंगाई कम करके भी जनता पार्टी चुनाव हार गई थी.

मनमोहन सिंह, चिदंबरम और कांग्रेस पार्टी को यह सब पता है. अच्छी आर्थिक नीति को अच्छी राजनीति बनाने की दिशा में ग्रामीण रोजगार गारंटी और भारत उदय योजना शुरू की गई थी.

पर योजना बनाना और उसे लागू करना दोनों अलग बातें हैं. ऐसी सारी योजनाएं भ्रष्ट तंत्र के लिए कमाई के नए अवसर लाती है. अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही कांग्रेस भी शायद बजट के सहारे चुनाव जीतना चाहती है और उसके विरोधी इसी के आधार पर उसे मात देना चाहते हैं.

इसलिए बजट पर सरकार के घटक दलों की नजर है तो विरोधियों की भी.

इन चार सालों में कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वामदल चिदंबरम की बलि लेकर ही मानेंगे. बजट बनाते समय वित्तमंत्री को अर्थव्यवस्था की विकास दर, बजट घाटे, वामदलों की इच्छा, विरोधियों की आलोचना और अपनी पार्टी की चुनावी सभाओं का ध्यान रखना होगा.

अर्थशास्त्री भविष्य की सोचता है तो राजनेता अगले चुनाव की. मनमोहन सिंह जब चिदंबरम के बजट प्रस्ताव को मंजूर करेंगे तो उनके अंदर का अर्थशास्त्री हावी होगा या पिछले चार सालों की राजनीति का अनुभव.

क्योंकि अच्छा बजट बनाना और चुनाव जीतना, दोनों अलग-अलग विधाएं हैं. यह बजट देश की अर्थव्यवस्था की दिशा ही तय नहीं करेगा, कांग्रेस की राजनीतिक दशा भी तय करेगा.




प्रदीप सिंह

गांधी के रास्ते पर चलने के लिए सड़क बनवाई है...!

आजादी...

आजादी के लिए
लड़नेवाले
इतिहास हो गए,
जो जानते नहीं
इतिहास
बादशाह हो गए.
.....................

गांधीवादी

नेताजी ने जिंदगी भर
गांधीजी की राह पर
चलने की
कसम खाई है
इसीलिए घर और दफ्तर के बीच
गांधी मार्ग नाम से
सड़क बनवाई है.
.............................................

बाहुबली

बड़े बाहुबली हैं
सभी को
आंखें दिखाते हैं,
लेकिन घर में
घुसते ही
पत्नी के आगे
सिर झुकाते हैं.




राजेंद्र श्रीवास्तव

Tuesday, February 5, 2008

राज ठाकरे के निशाने पर महानायक...

उत्तर भारतीयों को निशाना बनाने की बात अब खबरिया चैनलों के टीकर लायक हो गई है. राज भी इससे इत्तेफाक रखते होंगे. काफी सोच विचार के बाद उनके मन में आया कि क्यों न इस बार कुछ अलग किया जाए जिसकी ठसक थोड़ी जोरदार हो. ऐसा नहीं की फुलझड़ी की माफिक फुसफुसा कर रह जाए.

बस क्या था सदी के महानायक पर हल्ला बोल दिया. अमिताभ महाराष्ट्र से ज्यादा यूपी का ख्याल करते हैं. वहां बहू के नाम पर कॉलेज खोला. भोजपुरी फिल्मों में काम करते हैं. यूपी के ब्रांड एम्बैसडर हैं. वगैरह वगैरह.

राज को मालूम था कि अमित भैया पर हमला बोला तो इसकी प्रतिक्रिया जल्द मिलेगी. अमिताभ जिस दल के साथ उठते बैठते हैं उसका संस्कार भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से इतर नहीं है. सबकुछ वैसे ही हुआ जैसा राज का प्लान था. सपाइयों ने तुरंत जवाबी हमला बोला. नारा लगाने लगे, ईंट का जवाब पत्थर से देंगे.

राज के घर के सामने रैली की. रही सही कसर जया भाभी ने यह कहकर पूरी कर दी कि वह बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे के अलावा और किसी ठाकरे को नहीं जानतीं.

बस क्या था एमएनएस कार्यकर्ता भड़क उठे. सपाइयों से सीधे भिड़ने के बजाय गरीब मजबूर उत्तर भारतीयों को ठोंकने लगे. कारें तोड़ी. मन नहीं भरा तो सिर भी फोड़ डाले. खोमचे पलट दिए. और तो और मुंबई की लाइफलाइन लोकल ट्रेनों में चल रहे यात्रियों को नाम पूछ-पूछ कर मारा.

सबकुछ चलता रहा. खबरिया चैनलों को मसाला मिल गया. नेताओं को प्रतिक्रिया देने का मौका. लेकिन यहां भी राजनीति. मराठी वोट बैंक खिसकने के डर से महाराष्ट्र के ज्यादातर दलों ने चुप्पी मार दी. आम लोग पिटते रहे.

सबसे ताज्जुब की बात है कि इस मुद्दे पर बिगबी की अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. उन्होंने इस आग को ठंडा करने के लिए भी कुछ कहने की जहमत नहीं उठाई. उठाएं भी क्यों. ठंड से उनका गला खराब है और छोटे भैया अमर सिंह तो मोर्चा संभाले ही हुए हैं.


अजय श्रीवास्तव

Monday, February 4, 2008

जनता तो वोट से ही जवाब देती है...

सत्ता के भूखों ने एक बार फिर विभाजनकारी कोशिशें शुरू कर दी हैं और इसमें उनका साथ परोक्ष रूप से दे रहें वे लोग, जिन्होंने कभी उन लोगों को अपना हितैषी समझ कर गद्दी पर बिठाया था.

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के समर्थकों द्वारा गैर मराठी, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को लगातार निशाना बनाना शर्मनाक है. आखिर यह कैसी राजनीति हो रही है जिसमें देश तो एक है लेकिन लोगों को प्रांतीय आधार पर अलग रखने का प्रयास किया जा रहा है.


महाराष्ट्र में पहली बार अगर किसी ने प्रांतीय पैमाने का जहर घोला था तो वे हैं शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे. उन्होंने 'महाराष्ट्र मराठियों का है' का नारा दिया था. इससे आगे जाकर उन्होंने हिंदुत्व के नाम पर लाठी की राजनीति की. सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, फरमान इनका चलता रहा है. उत्तर भारत के नौजवान रेलवे की परीक्षा देने गए वहां गए तो शिवसेना समर्थकों ने प्लेटफार्म पर ही उन्हें पीटा और उनसे बदसलूकी की. फिर भी सरकार खामोश रही. सरकार की चुप्पी ने ऐसे लोगों का मनोबल इतना बढ़ाया है कि वे अब महाराष्ट्र को अपनी जागीर समझने लगे हैं.

राज ठाकरे बिहार और उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान को अछूत समझ रहे हैं लेकिन उन्हें शायद किसी ने यह नहीं बताया कि इसी धरती पर शांतिदूत बुद्ध और महावीर ने नई शुरूआत की थी. उनकी पूजा आज सारे विश्व में होती है. यहीं सम्राट अशोक और विद्वान चाणक्य पैदा हुए थे. राज ठाकरे शायद यह भूल गए कि छठ पर्व हिंदुओं का पर्व है और जिन बाल ठाकरे से उन्होंने राजनीति सीखी है, उन्होंने भी सारी उम्र हिंदुत्व को आधार बना कर ही राजनीति की है.


पूरे घटनाक्रम में अगर किसी के दोनो हाथों में लड्डू है तो वह है कांग्रेस पार्टी. और, यही कारण है कि इस मामले को तूल पकड़ने दिया जा रहा है. न तो प्रधानमंत्री कोई बयान दे रहे हैं और न ही सप्रंग अध्यक्ष सोनिया गांधी का कोई वक्तव्य आ रहा है. सभी जानते है कि राज ठाकरे बाला साहब ठाकरे के भतीजे हैं. राज ठाकरे की इस तरह की अतिवादी हरकतों से शिवसेना को लेकर लोगों का गुस्सा बढ़ेगा और कांग्रेस इससे फायदा उठाने की उम्मीद में खामोश है.


लेकिन यह सोचना कांग्रेस के लिए खुद की कब्र खोदने जैसा होगा क्योंकि डेढ़ साल बाद देश में आम चुनाव होने हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 40+80= 120 सीटें हैं जो लोकसभा सांसदों का 22 प्रतिशत है. चुप्पी का जवाब कांग्रेस को भी देना होगा. जनता तो वोट से ही अपना जबाव देती है.



कुणाल कुमार

Sunday, February 3, 2008

आडवाणी जीः ठाकरे का हाथ या यूपी-बिहार का साथ...?

लाल किशनचंद आडवाणी जी.
प्रणाम

नेताओं से चकमक आपकी पूरी भारतीय जनता पार्टी में बस आप ही मेरी पसंद के नेता हैं.

सारे देश को अटल जी पसंद हैं, बेहद पसंद हैं. मुझे नहीं.

आप जब कट्टर थे, तब भी पसंद थे. अब उदार हो गए हैं, तब भी पसंद हैं. पसंद पार्टियों और स्टैंड की तरह बदली नहीं जा सकतीं.

नेता होने से ज्यादा साहस, गंभीरता और धैर्य की जरूरत होती है समर्थक होने में. नेताजी बदल जाते हैं, विचार बदल लेते हैं लेकिन समर्थक को साथ बने रहना होता है. नेता के हर कदम और हर बयान को सही ठहराना होता है.

संजय निरूपम शिवसेना में थे तो मुसीबत कम थी. जब से कांग्रेस में गए हैं, पूर्वांचल वालों पर पहाड़ टूट पड़ा है. महाराष्ट्र में जितने सेनानामी संगठन हैं, सचमुच बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को देखकर सैनिकों जैसी बातें करने लगे हैं.

असम में हिंदीभाषियों को मारने वालों और महाराष्ट्र में धमकाने वालों में बहुत अंतर नहीं रह गया है आडवाणी जी.

आपको प्रधानमंत्री बनना है. इसलिए नहीं कि देश को आपकी बहुत जरूरत है. इस देश को अफसर चला रहे हैं. नेता कोई हो, देश चल जाएगा. भरोसा न हो तो अपने किसी जिलाध्यक्ष को प्रधानमंत्री बनाकर देख लीजिए. देश पाँच साल बाद भी ऐसा ही रहेगा.

आपको प्रधानमंत्री इसलिए बनना है ताकि इन निकम्मे प्रधानमंत्री महोदय से देश को मुक्ति मिले. राज्यसभा और जनपथ वाले प्रधानमंत्री जी से मुक्ति दिला दीजिए, प्लीज़.

और, अपनी सरकार में आप राज्यसभा से किसी को मंत्री भी मत बनाना. पता नहीं ये कहां-कहां से पढ़कर आते हैं. एक फैसला ऐसा नहीं करते जो वोट देने वाले आम लोगों के हित में हो. कभी जाति देख लेते हैं, कभी धर्म देख लेते हैं. एक तो टीवी और अखबारों में छपने के अलावा कुछ करते नहीं, और जब करते हैं तो तीन-पांच कर देते हैं.

वाम प्रशंसक हूं लेकिन वोट आपको ही दूंगा. सच्ची में दूंगा. वामपंथियों ने तो कांग्रेस से भी ज्यादा नर्क कर रखा है. लोगों को बेवकूफ बनाने की भी कोई सीमा होती है कि नहीं. रोज गाली भी देते हैं और जिंदा रहने की गोली भी दे आते हैं.

खैर, मैं तो यही सोचकर कांप रहा हूँ कि सरकार में रहते मोदी के सैनिकों ने मजे से जो काम कर दिया था वह तो कांग्रेसी इंदिरा जी की हत्या के बाद भी नहीं कर पाए थे. अभी तक उस पार्टी में कोई साहसी नहीं हुआ जो यह कह सके कि 84 में जो किया था, वह ठीक था.

आपके बाद यह साहस और साफगोई मोदी जी में आई है. इसलिए देश के लोग आपके बाद उन्हें ही प्रधानमंत्री मानकर चलने लगे हैं. जोशी जी से बचकर रहिएगा तो कोई दिक्कत भी नहीं होगी.

लेकिन आप ये अभी बता दीजिए कि अगले साल जब आप गठबंधन दलों के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बनेंगे और रेसकोर्स में रहने जाएंगे तो ये सेना वाले आपके गठबंधन में तो नहीं होंगे न.

ये जान लेना इसलिए जरूरी है कि उसके बाद इनकी हरकतों पर आप तो कुछ करेंगे नहीं तो कम से कम महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार बचा ली जाए. वैसे भी विधि-व्यवस्था का मामला तो राज्य का ही काम है.

देश के लोगों का जाति या धर्म के नाम पर भड़कने और उसके भयावह नतीज़ों, दोनों के आप प्रत्यक्ष गवाह रहे हैं.

आपकी पार्टी और उसके बगलबच्चों में पहले से ही भारतीय संविधान को बिना पढ़े और दिल में उतारे कई लोग नेता बन चुके हैं. अब गठबंधन में ऐसे नेताओं को नहीं जुटा लीजिएगा. अर्जी बस यही है.

वोट तो आपको बिहार और उत्तर प्रदेश से भी लेना है. हम देना भी चाहते हैं. आपको बता दें कि हम आम चुनाव के इंतजार में बैठे हैं. लेकिन आप किसी दोयम नेता या त्रियम पार्टी से हाथ न मिला लीजिएगा जो कहते हैं कि बिहार के लोग बिहार में रहें, उत्तर प्रदेश वाले अपने राज्य में.

ऐसे राज्यप्रेमी के साथ आप चले जाएंगे तो हम देशप्रेमी आपके साथ भला कैसे रह पाएंगे. और आप उनका मनोबल बढ़ाएंगे तो क्या पता कल आपको भी कह दें कि गुजरात वाले भी भाग जाएं.

आप तो गुजरात के हैं न. मोदी जी के वोटर आपको वोट दे ही देंगे. लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश वाले आपके सहयोगी दलों की गाली और भभकी सुनने के लिए तो वोट देंगे नहीं.

हमारे पास वैसे भी लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती हैं. अपना-अपना राज्य, अपना-अपना नेता. हम इनसे काम चला लेंगे. आप अपनी सोच लीजिए. प्रधानमंत्री आपको बनना है. अगला चुनाव छह साल बाद होगा. उसे किसने देखा है.

राज ठाकरे के बयान पर केंद्र सरकार चुप है. कोर्ट में शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती है. सोमवार को देखते हैं कि कोई जनहित याचिका आती है या नहीं. नहीं आती है तो कोई न्यायालय संज्ञान लेता भी है या नहीं.

सब चुप रहें तो रहें, आप मत चुप मत होना. आपको प्रधानमंत्री बनना है. हमें आपको वोट देना है.

अगर देश के किसी भी प्रांत के लोगों को गाली दी जाती है और आपको फर्क नहीं पड़ता है तो हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि प्रधानमंत्री कौन बनता है. वैसे भी, बिहार और उत्तर प्रदेश वाले मिल जाएं तो प्रधानमंत्री तो बना ही लेंगे.



रीतेश

कितना आसान होता है...

कितना आसान होता है
एसी कमरों में बैठकर
सोचना
भूख,
गरीबी,
बेकारी
को दूर करने की।
क्या घिनौना नहीं लगता
ये सब?
चबाते हुए चिप्स
पीते हुए
क‍ाफी
क्या इन्हें ध्यान नहीं आते
वे बच्चे
जो तड़पते हैं भूख से
कालाहांडी, सीतामढ़ी
और पलामू में
जिनके भूखे चेहरे
तड़पती आंते
टिकी होती हैं सिफॆ रोटी पर
और
रोटियां,
खड़ा कर देती हैं इन्हें,
मौत के द्वार पर
छीन लेती है
उनसे
उनकी सांसें
खत्म कर देती है
उनकी भूख
क्योंकि वे
मर चुके होते हैं
और इसके बाद
कितना आसान होता है
एसी कमरों में बैठकर
चर्चा करना
उन मौतों पर
जो होती हैं भूख से
क्या घिनौना नहीं लगता
ये सब?
मखमली बिस्तरों में
खर्राटें भरते
लोग
क्यों नहीं सुन पाते हैं
सिसकियां
कंपकपाहट
उन लोगों की,
जो फटा चद्दर या कंबल लपेटे
सोते हैं
सदॆ रातों में
फुटपाथ पर
और
अक्सर कुचले जाते हैं
चमचमाती गाडि़यों से
और फिर
उनकी मौत को ढका जाता है
रुपयों के बोझ तले
जान और रुपए की जंग में
जब जीतता है रुपया
तो
क्या
घिनौना नहीं लगता ये सब?


प्यारे दोस्त दुष्यंत को समपित जिसकी कटु आलोचनाएं हमें हमेशा कुछ नया करने की सीख देती रहेंगी


विष्णु सोनी