Sunday, March 30, 2008

तिब्बती काम और भारतीय कारनामे...

सुरक्षा परिषद में जाकर क्या कर लेगा इस तरह का भारत...

तिब्बत की राजधानी ल्हासा में कुछ हफ्तों से तेज हुए चीनी दमन के बावजूद तिब्बतियों का हौसला न तो टूट रहा है और न ही दुनिया के दूसरे देशों में चीन विरोधी प्रदर्शन करने का उनका साहस जवाब दे रहा है. हमने भी इसी जोश और ताकत से आजादी हासिल की होगी.

अलबत्ता, भारत सरकार के विवेक ने जवाब दे दिया है. महाशक्ति, सुरक्षा परिषद का सदस्य जैसे न जाने कितने सपने हमने संजो रखे हैं. लेकिन लोकतंत्र की मांग कर रहे एक विस्थापित कौम के लोकतांत्रिक आंदोलन को टुकुर-टुकुर देखने वाला देश आखिर सुरक्षा परिषद में पहुंच कर दुनिया को क्या दे पाएगा?

और, ऐसी कमजोर विदेश नीति वाली सरकारों का देश सुरक्षा परिषद में पहुंच भी जाए तो चीन और अमेरिका की मनामनियां रोकेगा कौन? भारत के रूप में तो शायद उन्हें अपनी मनमानी पर एक और वोटर मिल जाएगा.

पाकिस्तान को ही लीजिए. वहां के लोग अमेरिका के बारे में अच्छी राय नहीं रखते हैं लेकिन सरकारें अमेरिका से अच्छे संबंध के नाम पर बहुत कुछ कुर्बान करती रही हैं. भारतीय मामला पाकिस्तान की तरह का तो नहीं है लेकिन हम पूरी तरह से ब्रिटिश भी नहीं है.


भारत ने तिब्बतियों को राजनीतिक शरणार्थी का दर्जा दे रखा है और भारत में उनके लिए सहानुभूति है. इसलिए स्वाभाविक है जब चीनी जवान ल्हासा में गोली-लाठी चला रहे हैं तो कुछ न कुछ दर्द तो यहां के लोगों को भी हो ही रहा है. सरकार में बैठे लोगों को भी चीनी कार्रवाई नहीं भा रही है लेकिन उनका कुछ न बोलना हम जैसे लोगों को सुहा नहीं रहा है.


दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बत से भागे लोगों के संघर्ष का पांच दशक पूरा होने ही वाला है. चीन में मीडिया कितनी मुक्त है, यह तो सबको पता है. बेचारे तिब्बतियों ने सोचा कि बीजिंग में ओलंपिक पर जब दुनिया नजर गड़ाएगी तो इस दौरान होने वाले आंदोलन पर भी उनकी नजर जाएगी. यही सोच है जिसके साथ पिछले कुछ दिनों से दुनिया भर में तिब्बती प्रदर्शन कर रहे हैं.


अपने लिए आजादी मांगना, स्वायत्तता मांगना, तिब्बत के मामलों में दखलअंदाजी का अधिकार मांगना, अपनी संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ना उनका मक़सद है. और तिब्बती इसे कर रहे हैं तो यह उनका काम है.

चीन जो कर रहा है, उसने कोई पहली बार नहीं किया है कि दुनिया चौंक जाए. ये उसकी आदत है और फितरत भी. तिब्बत ही क्या, उसके दमन की कहानी दूसरे चीनी प्रांतों में भी है. लेकिन वहां के पत्रकारों को दुनिया के लोगों को यह बात बताने की इजाजत नहीं है. चीन जो कारनामे कर रहा है, वह न तो पहली बार दिख रहा है और न आखिरी बार.

भारत जैसा पड़ोसी और अमेरिका जैसा व्यापारिक साझीदार जिसके साथ हो, वह ऐसे कारनामे बार-बार न दुहराए तो क्या करे. चीन को पश्चिमी देश नसीहत से आगे कुछ नहीं दे सकते. महाबलियों के पास भी इतना ही साहस है कि वे ईरान और सीरिया जैसे छोटे देशों को ही धमिकयां दे सकें.

अपने देश के वामपंथियों को देखिए जो ईरान, इराक और न जाने किन-किन देशों की समस्या को लेकर सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं और सड़कों पर हंगामा करते हैं लेकिन देश की सीमा से लगे तिब्बत में आजादी या स्वायत्तता की लड़ाई उन्हें नजर ही नहीं आती है.

भला हो कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी को जनता ने अभी तक सरकार बनाने का मौका नहीं दिया है नहीं तो ये लोग कब का दलाई लामा को अपने समर्थकों के साथ भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर देते. वैसे ही, जैसे तस्लीमा को किया. ये कुछ नहीं करते, लोग खुद समझ जाते हैं कि उनके लिए क्या करना बेहतर होगा.

भारत ने देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन और तिब्बत मार्च पर निकले शरणार्थियों को गिरफ्तार किया. आगे बढ़ने से रोका. जब दुनिया भर के देश चीन से धैर्य से काम लेने और दलाई लामा से वार्ता करने की अपील कर रहे थे तब भारत हालात पर "गहरी नजर" रखे बैठा था.

चीनी दूतावास में तिब्बतियों के घुसने पर आधी रात बीजिंग के विदेश मंत्रालय में भारतीय राजदूत को बुलाने के बाद दलाई लामा से भारतीय उपराष्ट्रपति की मुलाकात रद्द कर दी गई. और, उसके एक सप्ताह बाद वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की बीजिंग यात्रा टालकर यह संकेत देने की कोशिश की जा रही है कि वह भारतीय राजदूत निरूपमा राव को आधी रात बुलाने से नाखुश है.

ये कैसा ड्रामा है सरकार चलाने वालों. पहले तो हामिद अंसारी को दलाई लामा से मिलने से रोक दिया और बाद में कमलनाथ को रोककर साबित करना चाहते हो कि हम चीन से नाराज भी हो सकते हैं. भारत के पास इतना साहस है लेकिन उसकी सरकारों के पास नहीं. हामिद अंसारी से दलाई लामा की मुलाकात का कोई राजनीतिक महत्व मुझे तो नजर नहीं आता. चीन के लिए भले यह कूटनीतिक प्रतिष्ठा का सवाल रहा होगा.

तिब्बती भारत से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते मुंह खोलने की अपील कर रहे हैं लेकिन सरकार चुप है. पता नहीं चीन किन संबंधों की दुहाई देकर भारत को दबाव में लेने में कामयाब हो जा रहा है. उससे हम एक बार लड़ चुके हैं. सीमा विवाद इतने गहरे हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री को अपने देश में ही यात्रा करने पर कूटनीतिक गर्मी का अहसास करा दिया जाता है. हमारे छोटे-बड़े उद्योंगों के असली उत्पादों की चीनी नकलचियों ने कमर तोड़कर रख दी है.

किस मधुर संबंध का लोभ और संबंधों में कौन से सुधार का मोह है जो चीन से भारत यह नहीं कह सकता कि दलाई लामा की बात सुनो. और अगर यह कहने से चीन नाराज होता है तो लोकतंत्र की रोशनी फैलाने वाले भारत को ऐसे किसी मित्र की जरूरत नहीं होनी चाहिए. पड़ोस में हैं, औपचारिक व्यापार करें, आएं-जाएं...

तिब्बतियों के आंदोलन को नैतिक समर्थन देने वाला कोई देश चीन का दुश्मन नहीं बन गया है और न ही चीन ने उस पर हमला बोल दिया है. हमारे साथ ही कोई दुर्घटना होगी, यह सिर्फ मनमोहन सिंह की आशंका है. हमारा तो यकीन है कि भारत जब लोकतंत्र की बात अंग्रेजों से कर सकता है तो चीन से भी वह तिब्बती स्वायत्तता की बात कर सकता है. और, पंचशील समझौते की बेड़ियों ने जब चीनियों को हमला करने से नहीं रोका तो हम कब तक तिब्बत को उसका घरेलू मामला मानते रहेंगे.

Tuesday, March 25, 2008

आओ-आओ...अगवानी !

एक तो नेता वगैरा आत्मकथा जैसी चीजें लिखते नहीं हैं, फिर ऐसी कोई किताब लिखी भी जाती है तो उसमें उस निर्मम तटस्थता का अभाव होता है जो उन्हें सर्वग्राह्य और सर्वकालिक उपयोगी होने से वंचित करती है. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का आत्मकथा "माई कंट्री, माई लाइफ" भी हमें बहुत कुछ नया नहीं बताती. एक ऐसी पुस्तक से आप वैसे भी बड़ी उम्मीद नहीं बांध सकते जिसके लिखने के उद्देश्य ही बड़े और व्यापक न हों. यह आत्मकथा दरअसल आडवाणी का चतुराई भरा राजनीतिक पैंतरा है.

चार जून, 2005 को भारतीय जनता पर्टी के केंद्रीय कार्यालय में पाकिस्तान से एक फैक्स आया. पार्टी का कोई वरिष्ठ पदाधिकारी कार्यालय में नहीं था. फैक्स पढ़ने वाले ने राष्ट्रीय महामंत्री प्रमोद महाजन को गुवाहाजी फोन किया. महाजन ने कहा, पढ़कर सुनाओ. सुनने के बाद महाजन ने कहा कि यह प्रेस में नहीं जाना चाहिए, साथ ही कहा कि दूसरे पदाधिकारियों से भी बात कर लो.

वेंकैया नायडू, संजय जोशी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और बाल आप्टे को फैक्स का मजमून पढ़कर सुनाया गया. सबकी राय एक ही थी. यह जिन्ना की मजार पर आडवाणी के भाषण का फैक्स था. वेंकैया नायडू, अरुण जेटली, संजय जोशी और बाल आप्टे संघ कार्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह मोहन भागवत से मिले. सबको बता दिया गया कि ये संघ को मंजूर नहीं और आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने की मुहिम शुरू हो गई.

छह जून को आडवाणी दिल्ली पहुंचे तो हिंदू जागरण मंच ने हवाई अड्डे पर नारा लगाया- जिन्ना समर्थक, पाकिस्तान प्रेमी आडवाणी वापस जाओ. पार्टी के वरिष्ठ नेता हवाई अड्डे पर ही आडवाणी से मिले और कहा कि पार्टी में इस मुद्दे पर चर्चा के बाद ही वे मीडिया से बात करें. आडवाणी नहीं माने. सात जून को आडवाणी को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा.

उसी दिन शाम को पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक अध्यक्ष के बिना हुई और इसमें एक प्रस्ताव पास करके आडवाणी के योगदान की सराहना करते हुए उनसे इस्तीफा वापस लेने की मांग की गई. ऐसा न लगे कि उन्हें हटाया जा रहा है इसलिए बैठक के बाद लगभग सारे पदाधिकारी आडवाणी के घर गए यह कहने कि वे अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार करें. सबकी उम्मीद के विपरीत आडवाणी ने कहा कि वे सोचकर बताएंगे.

नौ जून की दोपहर आडवाणी तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के यहां भोजन पर गए. पूरा किस्सा सुनाया. दोनों बात करके रोए. उसके बाद शेखावत ने कहा कि इस्तीफा मत दीजिए. आप क्या समझ रहे हैं कि ये लोग आपको पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर चुप हो जाएंगे. इस्तीफा दिया तो आपको और भी अपमान सहना पड़ेगा.

आडवाणी घर लौटे और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया और पूछा कि क्या वे अभी आ सकते हैं. मोदी भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के साथ दक्षिण दिल्ली के एक रेस्तरां में खाना खाने जा रहे थे. रास्ते से ही मुड़कर आडवाणी के घर पहुंचे. दोनों में लंबी बात हुई और मोदी आडवाणी बचाओ अभियान में जुट गए.

सवाल था समय का. इसलिए कहा गया कि जसवंत सिंह के इजरायल से लौटने के बाद आडवाणी के इस्तीफे पर फैसला होगा. जसवंत सिंह को लाने के लिए रिलायंस का जहाज भेजा गया. उन्होंने लौटने में तीन दिन लगाए. तब तक मोदी आग को काफी हद तक बुझा चुके थे. सहमति बनी कि आडवाणी को अध्यक्ष पद छोडना ही है पर थोड़ा रुककर.

उम्मीद थी कि आडवाणी अपनी पुस्तक "माई कंट्री, माई लाइफ" में इस घटना का विस्तार से ब्यौरा देंगे. या कम से कम इस बात का कि उनके पार्टी सहयोगी और पूरा संघ परिवार उनके खिलाफ क्यों हो गया. उन्होंने पुस्तक में लिखा है कि जिन्ना वाली टिप्पणी का उन्हें अफसोस नहीं है पर जीवन के छह दशक जिस संगठन में बिताए, उसमें अचानक खलनायक बन जाने का भी क्या उन्हें कोई अफसोस नहीं है?

नेताओं की आत्मकथा में लोग अक्सर उनके समय की बड़ी घटनाओं के पर्दे के पीछे की कहानी खोजते हैं. आडवाणी की किताब में ऐसे प्रसंगों का जिक्र तो है लेकिन कोई ऐसी बात नहीं है जो लोग पहले से न जानते हों. इन घटनाओं पर उनकी राय ऐसी ही मामलों में आई है जो आडवाणी को किसी न किसी आरोप से बरी करती हो.

कांधार प्रकरण के समय वे देश के गृहमंत्री थे. क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की बैठक क्यों देर से हुई, क्यों इंडियन एयरलाइंस के उस विमान को अमृतसर में नहीं रोका जा सका और आतंकवादियों को भेजने का फैसला किसका था? उन्होंने इस पूरे प्रकरण में नई बात यह बताई कि जसवंत सिंह के आतंकवादियों को लेकर जाने की उन्हें जानकारी नहीं थी.

2004 के लोकसभा चुनाव समय से पहले कराने का फैसला किसका था? भाजपा में आम धारणा है कि यह फैसला मूलतः आडवाणी का था. उनकी किताब में यह बात तो है कि अटल बिहारी वाजपेयी समय से पहले चुनाव के सुझाव पर उत्साहित नहीं थे और आडवाणी खुद इसके पक्ष में थे. आखिर इंडिया शाइनिंग का नारा उन्हीं का था.

आडवाणी ने इस मुद्दे पर बड़ी चतुराई से चंद्रबाबू नायडू पर दोष डाल दिया है. उन्होंने लिखा है कि 1999 का विधानसभा और लोकसभा चुनाव चंद्रबाबू नायडू, वाजपेयी और राजग की लोकप्रियता बूते जीते. वे चाहते थे कि विधानसभा चुनाव जल्दी हों और लोकसभा चुनाव साथ हों तो उन्हें फायदा मिलेगा. आडवाणी के मुताबिक इतने महत्वपूर्ण सहयोगी दल की बात को टाला भी तो नहीं जा सकता था.

इसी तरह पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा में हुई शिखर वार्ता से संबंधित अध्याय को ध्यान से पढ़ें तो आडवाणी कहते हुए नजर आएंगे कि उन्होंने रोका न होता तो शिखर वार्ता के बाद आतंकवाद और घुसपैठ का जिक्र किए बिना ही साझा बयान जारी हो गया होता. आगरा शिखर वार्ता नाकाम होने के बाद वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिश विपक्ष की ओर से नहीं, भाजपा की ओर से ही हुई. उस समय आडवाणी के संघ से अच्छे संबंध थे. प्रो. राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया सरसंघचालक का कार्यभार केएस सुदर्शन को सौंप चुके थे.

पुस्तक में जिक्र है कि रज्जू भैया एक दिन सुबह नाश्ते पर आडवाणी के यहां आए और बताया कि वे वाजपेयी से मिले थे और उन्हें राष्ट्रपति बनने का सुझाव दिया. आडवाणी के मुताबिक उन्होंने रज्जू भैया से पूछा कि वाजपेयी की क्या प्रतिक्रिया थी. रज्जू भैया ने कहा कि वे सुनते रहे, कोई जवाब नहीं दिया.

ये किस्सा सही तो है पर अधूरा. रज्जू भैया वाजपेयी से मिले थे और कहा था कि उन्हें खराब स्वास्थ्य के चलते सुदर्शन को संघ का कार्यभार दिया है. आप भी आडवाणी जी को दायित्व सौंपकर राष्ट्रपति बन जाइए. पुस्तक में इस बात का भी जिक्र नहीं है कि इसके कुछ ही दिन बाद आडवाणी के विश्वस्त वेंकैया नायडू यह प्रस्ताव लेकर वाजपेयी के पास गए कि आप राष्ट्रपति बन जाइए. वाजपेयी ने रज्जू भैया को तो कोई जवाब नहीं दिया था पर कुछ दिन बाद वेंकैया को अपने सरकारी आवास पर आयोजित कार्यक्रम में यह कहकर जवाब दिया कि "न टायर, न रिटायर". आडवाणी जी के नेतृत्व में पार्टी चुनाव में विजय की ओर प्रस्थान करे. उनके इस बयान को आडवाणी और उनके समर्थक समझ गए और उसके बाद वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिशों को विराम लग गया.

दरअसल, आडवाणी और वाजपेयी भारतीय राजनीति की दो ऐसी समानांतर चलने वाली धाराएं हैं जिनके साथ-साथ चलने से एक होने का बोध तो होता है पर वे कभी एक होती नहीं. वाजपेयी पर लिखे अध्याय में आडवाणी इस बात का जिक्र करना नहीं भूले कि 1995 में मुंबई अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के नाते जब उन्होंने वाजपेयी को भावी प्रधानमंत्री घोषित किया, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और पार्टी के ज्यादातर लोग मानते थे कि आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं.

आत्मकथा लिखने के कई मकसद होते हैं. आडवाणी की आत्मकथा कम से कम मकसद के मामले में इन सबसे अलग है. इसके मुख्य रूप से दो ही मकसद हैं. लालकृष्ण आडवाणी को अटल बिहारी वाजपेयी की छाया से निकालकर भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सर्वमान्य और एकमात्र नेता के रूप में पेश करना.

इस पुस्तक का दूसरा मकसद आडवाणी को ऐसे नेता के रूप में पेश करना है जो हमेशा से उदार और धर्मनिरपेक्ष पर दूसरों की बनाई कट्टरपंथी छवि से लड़ता रहा. आडवाणी ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि चीनी लिपि में क्राइसिस (संकट) को दो शब्दों के युग्म के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. एक का मतलब है खतरा और दूसरे का अवसर.

ऐसा लगता है कि आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में दोनों का रणनीतिक इस्तेमाल किया है. जो बातें खतरा बन सकती थी, उन्हें छोड़ दिया है. जो अवसर के रूप में उपलब्ध हैं, उनका विस्तार से जिक्र किया. तो हे सुधी जनों, तैयार हो जाइए एक उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और सर्वमान्य नेता की अगवानी के लिए.
प्रदीप सिंह

Sunday, March 2, 2008

न्याय में देर से अंधेर

प्रशासन यदि पारदर्शी तरीके से बिना पूर्वागह के फैसले करे तो लोगों को अदालत में जाने की जरूरत ही नहीं पड़े। ऐसे मामलों की संख्या पचास पतिशत से अधिक है जहाँ सरकार मुकदमें में एक पार्टी है।
देश के प्रथम नागरिक और आम नागरिक के बीच फासला हमेशा से बना रहा है और कुछ अपवादों को छोड़ कर आजादी के साठ साल बाद भी इस फासलें में कोई कमी नहीं आई है। लेकिन जब भी किसी राष्ट्रपति ने रायसीना हिल से उतरकर आम आदमी से जुड़े मुद्दों को उठाया है यानी कि वह राजपथ से जनपथ पर आए तो कई बार वह टकराव का सबब बना है। वह तत्कालीन सरकारों को रास नहीं आयाहै और कंई बार इसने टकराव का स्वरूप ले लिया है।
शनिवार को न्यायिक सुधारों पर हुई एक महत्वपूर्ण संगोष्ठी में देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आम आदमी में कानून अपने हाथ में लेने की बढ़ती पवृत्ति पर गहरी चिंता जताई।
यह एक ऐसा विषय है जिसने आम जनमानस को तो झकझोर कर रख दिया है लेकिन सरकारी हुक्मरानों के कानों पर कोई जूं नहीं रेंगी है और न ही राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को उठाने में कोई खास दिलचस्पी दिखाई है। हाँ, यह जरूर हुआ है कि जिस प्रदेश में यह घटना हुई वहाँ दलों ने इसे कानून व्यवस्था के ठप्प होने का मामला बता और सरकार का इस्तीफा मांग कर रस्म अदायगी जरूर कर ली।
आम आदमी की इन्हीं चिन्ताओं से स्वयं राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपने को जोड़ा है जिससे इस मामले की गंभीरता और बढ जाती है।
राष्ट्रपति ने शनिवार को न्यायिक सुधारों पर हुई एक गोष्ठी में साफ-साफ शब्दों में कहा कि हमऐसी स्थिती की कतई इजाजत नहीं दे सकते जहाँ आम आदमी कानून अपने हाथ में ले और भीड़ हिंसा पर उतारू होकर स्वयं न्याय करने की कोशिश करे।
यह एक संयोग ही था कि जहां दिल्ली में श्रीमति पाटिल इस बारे में अपने विचार व्यक्त कर रहीं थीं वहीं बिहार के हाजीपुर में एक गुस्सायी भीड़ ने एक संदिग्ध अपराधी को मार-मार कर अधमरा कर दिया। यह अपराधी अब अस्पताल में जिंदगी और मौंत से संघर्ष कर रहा है। इस तरह की घटनाएं किसी एक राज्य या क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं लेकिन बिहार में यह अन्य राज्यों से कुछ ज्यादा ही हो रही हैं।
एक बात और जो सोचने को मजबूर करती है वह यह है कि जो लोग कानून को अपने हाथ में लेकर दोषी को दंड दे रहे हैं वे कोई रूआबदार या अपराधी प्रवृत्ति के लोग नहीं सीधे-सादे आम आदमी हैं। यह हो सकता है कि इस भीड़ में अपराधी मानसिकता वाले तत्व भी शामिल हों। लेकिन ऐसी कौन सी बात है जो आम आदमी को एक संवेदनहीन हत्यारा बना देती है।
क्या यह पुलिस प्रशासन या न्यायिक व्यवस्था से उठता अविश्वाश है या उसकी बढ़ती कुंठाएँ या व्यवस्था के प्रति गुस्सा। यह एक ऐसा विषय है जिस पर सरकार के साथ ही समाजशास्त्रियों को भी गहराई से विचार करना होगा।
राष्ट्रपति ने अपने भाषण में न्याय मिलने में हो रही देरी को कम करने के लिए न्यायिक प्रकिया को आसान बनाने की वकालत की। उन्होनें सीधे-सीधे तो नहीं कहा लेकिन उनका संकेत यही था कि न्याय मिलने में विलंब होना ऐसा ही है जैसे न्याय नहीं मिलना। उन्होनें अदालतों में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या को कम करने के लिए अभियान चलाए जाने की वकालत की।
प्रतिभा पाटिल की यह टिप्पणी शायद न्यायपालिका को अखरी हो कि हमें ये देखना होगा कि क्या न्यायिक मशीनरी आम नागरिक की उम्मीदों पर खरी उतरी है या नहीं। उन्होनें साथ ही जोड़ा कि किस मशीनरी में खामियाँ हैं जिन्हें न्यायिक सुधारों से दूर किया जा सकताहै।
राष्ट्रपति की यह टिप्पणी थोड़ी तल्ख जरूर है लेकिन ऐसी है जिस पर सरकार और न्यायपालिका दोनों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है इसी समाहरोहमें मुख्य मंत्री न्यायधीश के जी बालाकृष्णन का यह कहना कि अपने-आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि न्याय मिलने में देरी के लिए न्यायिक पकिया नहीं वरन पुलिस की अधकचरी और पुरानी पड़ गई जांच पकिया दोषी है।
पशासन यदि पारदर्शी तरीके से बिना पूर्वागह के फैसले करें तो लोगों को अदालत में जाने की जरीरत ही नहीं पड़े। ऐसे मामलों की संख्या पचास प्रतिशत से अधिक है जहां सरकार मुकदमें में एक पार्टी है। मुख्य न्यायधीश ने यह कहकर एक तरह से गेंद पूरी तरह सरकार के पाले में फेंक दी कि पुलिस और प्रशासन दोनों ही सरकार के मातहत हैं।
जरूरत इस बात की है कि एक दूसरे को दोष देने की सरकार विचार कर कुछ ठोस कदम उठाए तो स्थिति को बिगड़ने से रोका जा सकता है। महामहिम द्वारा केवलन्यायिक व्यवस्था को इस स्थिति के लिए जिम्मेंदार ठहराए जाने पर न्यायपालिका खुश नहीं है जो स्वाभाविक है। अच्छा होता कि राष्ट्रपति पूरी व्यवस्था को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराती। समय का तकाजा तो यही है कि इस बारे में राष्ट्रपति बहस हो कि आकाक्षांओं को पूरी करने में कामयाब रही भी है या नहीं और उसकी खामियों को पूरा करने के लिए क्या किया जा सकता है।

राजीव पांडे