Tuesday, April 29, 2008

संबंधों में दरार डालता अमेरिका...

ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की भारत यात्रा पर द्विप‌क्षीय संबंधों से ज्यादा अमेरिका ईरान परमाणु विवा का साया रहेगा. अमेरिका ने उनकी यात्रा के साथ परमाणु कार्यक्रम को जोड़कर उसे अंतरराष्ट्रीय महत्व का बना दिया. इसके अलावा अमेरिका ईरान-पाकिस्तान-भारत पाइपलाइन का हिमायती नही है. वह इसमें भारत की भागीदारी नहीं चाहता.


उधर अहमदीनेजाद ने कहा कि इस पाइपलाइन के बारे में दोनों देशॊं से बातचीत करेंगे. अहदीनेजाद की यात्रा से पूर्व अमेरिका ने भारत को सलाह दी कि वह ईरान पर परमाणु कार्यक्रम समाप्त करने के लिए दबाव डाले. इस पर वाम दल बहुत लाल हुए और राजनीतिक क्षेत्र में इसे भारत के अंदरुनी मामलों में हस्तक्षेप करार दिया गया. और जब तुफान उठा तब अमेरिका ने अपना बयान बदला. सरकार ने राजनीतिक स्तर पर करार जवाब दिया.

भारत ने कहा कि दो परिपक्व देशों को इस सलाह की आवश्यकता नहीं कि वे किस प्रकार आपसी संबंध रखें. सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम के बारे में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को चिंता करनी चाहिए, अमेरिका को नहीं. यहीं नहीं अहमदीनेजाद जब इराक की यात्रा पर गए तब अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इराक के नेताओं से कहा कि वे ईरान से कह दें कि वह अपने आतंकवादी भेजना बंद करें, जिसकी वजह से बेगुनाह इराकी नागरिक मारे जा रहे हैं.


अमेरिका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने में जुटा हुआ है कि ईरान परमाणु हथियार बनाने की गुपचुप कोशिश के साथ आतंकवाद का पोषक बना हुआ है. जार्ज बुश इस वर्ष के शुरू में पश्चिम एशियाई देशों के दौरे पर गए थे. उस समय उनका मकसद तो फिलीस्तीन-इसराइल विवाद को सुलझाना था लेकिन उन्होंने इस मौके का फायदा उठाया और ईरान के परमाणु कार्यक्रम की जमकर आलोचना की और यह साबित करने की कोशिश की कि वह पूरे विश्व के लिए खतरा है. उनका हर भाषण ईरान के खिलाफ था और उन्होंने उसे अरब-इजराइल संघर्ष में बदलने की कोशिश की.


अमेरिका की पूरी कोशिश है कि ईरान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की जा सके. अब पश्चिम एशिया में इराक के बाद ईरान ही शक्तिशाली देश हैं जिससे इसराइल को खतरा महसूस हो रहा है और वह एकमात्र ऐसा देश है जो ईरान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का पक्षधर है.

अमेरिका सुर‌क्षा परिषद का उपयोग पूरी तरह से अपने हित के लिए कर रहा है. सुर‌क्षा परिषद ने हाल ही में ईरान पर तीसरे दौर का प्रतिबंध लगाया है. लेकिन स्थाई सदस्यों ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की रिपोर्ट को महत्व नहीं दिया जिसमें एजेंसी ने कहा था कि ईरान परमाणु हथियार बनाने की कोशिश कर रहा है. अधिकतर देश यह जानना चाहते हैं कि ईरान परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताछर करने के बावजूद यूरेनियम के संवर्धन पर क्यों जोर दे रहा है.


ईरान का कहना है कि उसका परमाणु कार्यक्रम हथियार बनाने के लिए नहीं बल्कि ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए है. इसके अलावा पश्चिमी देशों की निजी कंपनियां भी परमाणु प्रसार में चोरी छिपे सहयोग दे रही है. अब अगर भारत ईरान संबंधों की बात करें तो ये बहुत ही पुराने हैं. इससे पूर्व 2003 में ईरान के राष्ट्रपति भारत आए थे. अमेरिका ईरान विवाद में भारत तटस्थ रहा है और ईरान को अप्रसार संधि के पालन की सलाह देता रहा है. ईरान ने भारत के इस रुख को सराहा भी है. चूंकि ईरान ने अपने परमाणु प्रौघोगिकी हासिल करने के प्रयासॊं के बारे में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को जानकारी नहीं दी थी इसिलए दो बार भारत ने एजेंसी में ईरान के खिलाफ वोट दिया था. उस समय रिश्तों में थॊड़ी तल्खी आ गई थी और वामपंथी दलों ने भी सरकार के रवैये की कड़ी आलोचना की थी लेकिन अब संबंध सामान्य हो गए हैं.


भारत इन संबंधॊं को व्यापक और मजबूत बनाने के लिए प्रयास करेगा. ईरानी राष्ट्रपति अहमदीनेजाद की इस यात्रा में न कोई एजेंडा है और न ही किसी समझौते पर हस्ताक्षर होना है. लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ द्विपक्षीय संबंधों और अंतराराष्ट्रीय स्थिति पर चर्चा अवश्य होगी. अमेरिका और यूरोपीय देशों का मत है कि सैन्य कार्रवाई ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने में प्रभावी हो सकता है. अमहदीनेजाद चाहेंगे कि भारत इस रुख का समर्थन न करे और सुरक्षा परिषद तथा अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी की भूमिका को देखते हुए यह अपेछित भी है.




राजेंद्र श्रीवास्तव

Saturday, April 26, 2008

गठजोड़ का नफा नुकसान

केंद्रीय नेतृत्व के रवैये के कारण कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में भी साधारण कार्यकर्ता का मनोबल टूटता जा रहा है। केंद्रीय नेताओं की यह जमात बिहार की जमीनी राजनीति का कखग भी नहीं समझती
गठबंधन की राजनीति के तहत केंद्र की सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए अब गठबंधन ही गले की हड्डी बनता जा रहा है।

बिहार और महाराष्ट्र में हाल की घटनाओं को देखा जाए तो इसे काफी हद तक सही कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि पार्टी हरियाणा, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश के उदाहरणों से सबक नहीं ले रही है, जहां गठबंधन की राजनीति के कारण अब भाजपा को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। बिहार में जो कुछ हो रहा है वह पार्टी की खुमारी तोड़ने के लिए काफी था लेकिन महाराष्ट्र की घटनाओं के कारण उस पर उतना ध्यान ही नहीं दिया गया।

बिहार में कुछ साल पहले तक भाजपा मुख्य विरोधी दल हुआ करती थी और उसके बाद ही समता पार्टी या जनता दल यूनाइटेड का नंबर आता था, जिसके नेता नीतीश कुमार थे। अब स्थिति यह है कि भाजपा को उनके सहारे की जरूरत पड़ रही है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन हैं? यह सवाल कठिन नहीं है। उत्तर सामने है कि इसके लिए पार्टी की प्रदेश इकाई से ज्यादा केंद्रीय नेता ओर उनके सलाहकारों को अर्जुन की तरह केवल दिल्ली की ही सत्ता नजर आती है और वह इसके लिए ही रणनीति बनाते रहते हैं। इन्हें राज्यों में पार्टी की हालत, संगठन की खामियों या कार्यकर्ताओं की इच्छाओं से कोई ज्यादा लेना देना नहीं है।

ये तो गठबंधन के नाम पर पार्टी हितों को कुर्बान करने से पहले एक बार सोचते तक नहीं हैं। इनका एक ही मकसद रहता है कि सहयोगी पार्टी किसी तरह से नाराज नहीं हो और पार्टी का कोई नेता राज्य में अपना छत्रप न बना सके। केंद्रीय नेतृत्व के रवैये के कारण कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में भी साधारण कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता जा रहा है।

केंद्रीय नेताओं की यह जमात बिहार की जमीनी राजनीति का क, ख, ग नहीं समझती और अपने हिसाब से तीन-पांच करती रहती है। हताश कार्यकर्ताओं के पास दो ही विकल्प बचते हैं, या तो वह चुपचाप घर में बैठ जाए या किसी और दल चला जाए। नीतीश इसी का फायदा उठा रहे हैं। जिस दिन से उनकी सरकार बनी है इसी दिन से उन्होंने इस दिन से उन्होंने इस दिशा में काम शुरू कर दिया था। नीतीश को आज की तारीख में यूं ही सबसे चतुर राजनेताओं में नहीं गिना जाता है। जब सरकार बनी तो भाजपा कोटे से किसी को मंत्री नहीं बनाया गया, जबकि बुरे दिनों में भाजपा को मिलने वाले पारंपरिक वोटों में कायस्थ मत शामिल रहे।

भाजपा नेता नवीन किशोर पऱसाद सिन्हा का हक बनता था लेकिन नीतीश ने अपनी पार्टी की कायस्थ विधायक सुधा श्रीवास्तव को मंत्री बनाया। यह सब जानते हैं कि कायस्थ शहरी इलाकों ज्यादा रहते हैं और कई सीटों पर उनके मतों से हार जीत का फैसला होता है। नीतीश ने इस तरह से भाजपा के आधार पर चोट की लेकिन पार्टी का प्रदेश नेतृत्व चुप बैठ गया। नवीन का बाद में निधन हो गया और माना गया कि मंत्रिमंडल गठन में अपनी ही पार्टी के प्रांतीय नेताओं द्वारा दरकिनार करने से उन्हें गहरा सदमा लगा था। इसके बाद तो नीतीश जैसा चाहते रहे, प्रदेश में वैसा ही होता रहा है।

पुरानी कहावत है कि बाड़ खेत खाने लगे तो रखवाली कौन करेगा, बिहार के भाजपा कार्यकर्ताओं की मानें तो उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी पूरी तरह से नीतीश के रंग में रंग गए हैं। मोदी पर पार्टी से ज्यादा नीतीश की बात सुनने का आरोप है। हाल में हुए मंत्रिमंडल के पुनर्गठन ने आग में घी का काम किया है। मोदी विरोधी अभियान के बीच मोदी के बचाव में खुलकर सामने आने वाले अकेले बड़े नेता नीतीश कुमार हैं। नीतीश ने सफाई दी कि उनकी सरकार एकजुट है और मंत्रिमंडल में फेरबदल से कोई नाराजगी नहीं है।

यह बिडंबना ही है कि जो पार्टी कभी अपने को दूसरे दलों से अलग और एक अनुशासित पार्टी होने का दावा करती थी, उसी में आज घमासान मचा हुआ है। ऐसा लगता है कि बिहार भाजपा में व्याप्त असंतोष को खत्म करने के लिए तत्काल ठोस और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो वहां भी पार्टी की हालत उत्तर प्रदेश जैसी बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

एक समय था जब उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार होती थी और उसके उम्मीदवारों के लिए विधानसभा चुनावों में जमानत बचानी मुश्किल हो जाती है। गठबंधन की बलिवेदी पर चढ़ने वाला अगला राज्य बिहार हो सकता है। पार्टी के एक प्रांतीय नेता ने एक बेबाक टिप्पणी की, पार्टी के आला नेता अपनी पारी खेल चुके हैं।

पार्टी को बनाने और उसे इस मुकाम तक पहुंचाने में उनका बड़ा योगदान रहा है लेकिन लगता है कि जब वह रिटायर होंगे तो हम फिर वहीं पहुंच जाएंगे, जहां से शुरुआत की थी। थोड़े लाभ के लिए दीर्घकालिक हितों की कुर्बानी का इससे बेहतर नतीजा हो भी तो नहीं सकता।

राजीव पांडे

Wednesday, April 23, 2008

क्या होगा क्रिकेट का

क्रेजी क्रिकेट। जी हां। हर तरफ पागलपन का माहौल। मैदान पर। टीवी पर और गली-मुहल्लों में। आईपीएल का रोमांच सबके सर चढ़कर बोल रहा है।
दनादन छक्के। झटपट गिरते विकेट। और हर रोमांचक लम्हों पर देशी गानों पर थिरकती विदेशी बालाएं। मौजा ही मौजा करती हुईं। लगता है हर तरफ मौज ही मौज है।
उपर से क्रिकेट में बालीवुड का तड़का। और क्या चाहिए। क्रेजी होने के लिए। सभी कुछ तो मौजूद है यहां।
लेकिन सब कुछ होने के बावजूद लगता है लगता कुछ नहीं है। वो है देशभक्ति का अहसास।
अंतरराष्ट्रीय मैच के दौरान जब भारतीय धुरंधर दूसरे देश के बालरों की बखिया उधेड़ते हैं, तो वो अहसास ही कुछ अलग होता है। या जब ईंशात शर्मा जैसे बालर पोंटिग की गिल्लियां बिखेरते हैं, जो मन बाग-बाग हो उठता है। मन करता है इन फिरंगियों को मजा चखा दें। लेकिन आईपीएल में न जाने क्यों फर्क ही नहीं पड़ता।
कोई भी जीते। कोई भी हारे। हमें क्या। हमें मजा चाहिए और वो हमें मिल रहा है। आईपीएल के मैच के दौरान कई बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि शायद यह जज्बा लोगों से गायब हो गया है। मंगलवार को डेक्कन चार्जर्स के खिलाफ जब वीरू ने अर्धशतक ठोका। तो हैदराबाद के मैदान में मौजूद दर्शकों ने उनका अभिवादन नहीं किया। इस पर वीरू ने हाथ उठाकर कहा क्या हुआ दोस्तों मैं तुम्हारा वीरू। लेकिन मैदान में सन्नाटा छाया रहा। इसी वीरू ने जब दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ३१९ रन की पारी खेली थी। तो देश क्या विदेश में भी भारतीय झूम उठे थे। और मैदान पर मौजूद दर्शकों की तो बात ही छोड़ दीजिए।
सब के सब क्रेजी हुए पड़े थे। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि आईपीएल हमारे क्रेजी दर्शकों में दीवार खड़ी कर रहा है। लोग देश को छोड़, प्रांतीय टीमों से जुड़ गए हैं।
आईपीएल की टीमों के एडवरटिजमेंट से तो यही जाहिर होता है। जैसे एक डेंटिस्ट के यहां एक मरीज अपने दांत दिखाने आता है। इसी दौरान डाक्टर मरीज से पूछता है कि आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर मरीज कहता है दिल्ली डेयरडेविल्स। डाक्टर नर्स की ओर देखता है। और कहता है इनके एक दांत नहीं। पांच दांत उखाड़ दो। इस पर मरीज घबरा जाता है, और डाक्टर रेपिस्ट जैसी हंसी के साथ कहता है। मैं मुंबई इंडियन।
क्या पता कुछ दिनों बाद इस तरह की घटनाएं मैदान पर दिखाई दें। लोग अपनी टीम को लेकर इतने संवेदनशील हो उठे कि अपनी टीम के खिलाफ एक शब्द न सुन सकें। क्या पता डेक्कन चार्जर्स के प्रशंसक और नाइट राइडर्स के फैंस के बीच झगड़ा हो जाए और बात खून-खराबे तक पहुंच जाए। जैसा आमतौर पर पश्चिमी देशों में फुटबाल मैच के दौरान दिखाई देता है। मैनचेस्टर युनाइटेड के प्रशंसक या तो आर्सनल के फैंस को पीट देते हैं। या फिर आर्सनल के मैनचेस्टर युनाइटेड को।
मैं तो विदेश नहीं गया हूं, लेकिन मेरा दोस्त इंग्लैंड गया था। वहां जब वो कैब में बैठकर लिवरपूल जा रहा था। तो रास्ते में उसने कैब ड्राइवर से पूछा आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर कैब ड्राइवर ने कहा लिवरपूल। इसके बाद ड्राइवर ने पूछा आप। मेरा दोस्त बोला। मैनचेस्टर युनाइटेड। इस पर कैब ड्राइवर पीछे मुड़ा और कहा सो यू आर माई राइवल। अगर तुमने अब कोई भी हरकत की तो मैं तुम्हारा वो हश्र करूंगा कि तुम जिंदगी भर याद रखोगे। इसके बाद मेरा दोस्त चुपचाप बैठ गया और कुछ नहीं बोला।
क्या पता कुछ दिनों बाद यहां के लोगों में भी प्रांतीय टीमों के लेकर इसी तरह की दीवार खड़ी हो जाए। है भगवान पहले से जाति-धर्म की इतनी दीवारें हैं। अब और नहीं। दर्शकों के बीच अगर यह दीवार खड़ी हो गई तो क्या पता सचिन तेंदुलकर के छक्के पर मुंबई वाला ही ताली बजाए और दिल्ली वाला खामोश बैठा रहे। या मुंबई वाले के ज्यादा उछलने पर उसे दूसरे टीम के समर्थक पीट भी दें।
अगर ऐसा हुआ तो वो दिन शायद इस खेल और उसकी आत्मा के लिए सबसे शर्मनाक दिन होगा।

भूपेंद्र सिंह

Friday, April 11, 2008

जब चिरऊ महाराज ने नेहरु के खिलाफ चुनाव लड़ी--

'मेरे समकालीन' जो यह लेख और चरित्रमाला लिखने की योजना है, तो सवाल है- 'मेरे समकालीन' कौन? क्या सिर्फ़ लेखक? डाक्टर के समकालीन डाक्टर और चमार के समकालीन चमार। इसी तरह लेखक के समकालीन क्या सिर्फ़ लेखक? नहीं। जिस पानवाले के ठेले पर मैं लगातार २५-३० वर्ष रोज बैठता रहा हूं, वह पानवाला मित्र भी मेरा समकालीन है। अपने मुहल्ले का वह रिक्शावाला जो मुझे २५-३० साल ढोता रहा है, वह भी मेरा समकालीन है। जिस नाई से ३० साल दाढ़ी बनवाता रहा, बाल कटवाता रहा और घंटो गपशप करता रहा, वह भी मेरा समकालीन हैं। मेरे 'घर' में काम करनेवाले ढीमर को मैं, लंबे दौरों पर जाता, तो घर की एक चाबी दे जाता। वह मेरी डाक संभालकर रखता। घर साफ़ करता। लोगों को मेरी तरफ़ से जवाब देता, वह भी मेरा समकालीन है। हम सब साथ- साथ बढ़े हैं। सहयोगी रहे हैं। एक-दूसरे की मदद की है। साथ ही विकास किया है।
ऐसे ही अपने एक् समकालीन् 'चिरऊ महाराज' के बारे में लिखा परसाईजी का संस्मरण यहां प्रस्तुत है। यह् लेख परसाईजी की पुस्तक जाने-पहचाने लोग में संकलित है।]
खूब स्थूल, मगर कसा शरीर। थुलथुला नहीं। निपट काला रंग। लंबी झर्राटेदार मूछें। बड़ी-बड़ी चमकदार आंखे। मोटे ओंठ। बड़ी मोटी नाक। कुल मिलाकर बहुत दबंग, मगर डरावने नहीं। ऎसे नहीं कि बिना 'मेकप' के रामलीला में कुंभकर्ण की भूमिका कर लें। इतना बड़ा डील-डौल और कहलाते थे 'चिरऊ महाराज'। बचपन में ही इतने स्थूल थे कि मजाक में उन्हें चिड़वा (चिरऊ) कहने लगे थे। ब्राहमण थे तो आगे 'महाराज' लगा।
कुरता-धोती पहने, कंधे पर गमछा डाले यह आदमी दूध के पांच बड़े-बड़े कनस्तर लिए मोटर स्टेंड पर इमली के झाड़ के नीचे खड़ा रहता था। लगभग तीस किलोमीटर दूर अपने गांव से यह आदमी ये दोध के कनस्तर लेकर आता था। दोपहर तक दूध खत्म हो जाता। उसके ग्राहक बंधे हुए थे। कुछ होटल बंधे हुए थे। कुछ परिवारों को दूध बंधा था। कुछ फ़ुटकर ग्राहक ले जाते। साख इस आदमी की इतनी थी कि उसके दूध में एक बूंद भी मिलावट नहीं होती न गैरवाजिब दाम लेता- कि दूध खरीदनेवालों की भीड़ लग जाती। इस आदमी को किसी होटल या घर दूध देने नहीं जाना पड़ता था एक ही जगह रखे-रखे बिक जाता था। यह क्रम पंद्रह साल तक तो मैंने रोज देखा है। पाटन में, जहां वे दूध इकट्ठा करते, नापते नहीं थे। पूछते-कितना है? वह कहता- पांच लिटर। वे पैसे दे देते और दूध डलवा
लेते। न किसी से झगड़ाम न विवाद, न झंझट। यह आदमी बोलता बहुत कम था। बीच में रूपराम के पान के ठेले पर जाकर बैठ जाता और पान-तमाखू खाता। कुछ देर बतियाता। सिर्फ़ रूपराम से ही उसकी निजी घरू बातें होती थीं। मैं जब रूपराम के ठेले पर होता, तो यह आदमी एकमात्र सीट पर नहीं बैठता। कहता-पंडित जी, आप बैठिए। मैं इधर नीचे चबूतरे पर बैठ जाता हूं। मैं कहता-नहीं चिरऊ महाहज, आप बैठिए। आप मुझसे बड़े हैं। चिरऊ महाराज कहते- पंडित जी, उमर में बड़ा हूं, पर ज्ञान में आप बहुत बड़े है। हम तो गंवार आदमी हैं।
वे बैठते। कहते- पंडित जी, जमाना बहुत खराब आ गया। यह है कलियुग। बेटे ही बाप की बात नहीं मानते। ईमानदारी रही नहीं है। मैं दूध में पानी बिलकुलनही मिलाता, तो लोग कहते हैं- चिरऊ महाराज बेवकूफ़ आदमी है। मेरे लड़के तक मुझे बेवकूफ़ समझते हैं। मैं कहता हूं. हम तो बेटा, बिभाएंगे। हम गोस्वामीकी रामायणजी पढ़े हैं। हमारे मरने पर तुम जब मालिक होओ, तब चाहे जो करना। हमारी दाल-रोटी चल रही है। हम ब्राहमण है। ब्राहमण सुदामा ने घरवाली सेकहा था, 'औरन को धन चाहिए बावरी, बाम्हन को धन केवल भिच्छा।'
चिरऊ महाराज के रोबदाब, दबंगपन, ईमानदारी, साफ़गोई की इतनी प्रतिष्ठा और आतंक कि कोई उनसे गलत बहस नहीं करता था। कोई करता तो वे कहते- भैया,तुम्हारी ऊटपटांग बात सुनने के लिए यह करमफ़ूटा चिरऊ ही बचा है। दूसरे लोग हैं, उनको सुनाओ।
चिरऊ महाराज पांच बड़े कनस्तर दूध लाते थे और एक छोटा। पर बेचते सिर्फ़ पांच कनस्तर थे। छठे छोटे कनस्तर का दूध गरीब बच्चों को पिला देते।उन्हें देखते ही आसपास के बच्चे दौड़कर आते- चलो, चिरऊ महाराज आ गए। दूध पीएंगे। बच्चे आते जाते और चिरऊ महाराज छोटे गिलास से उन्हें दूध पिलाते जाते। कहते थे- यही हमरा थोड़ा-बहुत पुण्य है। नहीं तो क्या धरा है जिंदगी में। पांच कनस्तर खाली हो जाते और कोई ग्राहक आकर कहता- इस कनस्तर में तो दूध है। यही दे दीजिए। वे कहते- भैया, वह बेचने का नहीं है। बच्चों को मुफ़्त पिलाने के लिए है। क्यों गरीब बच्चों के मुंह का दूध छीनते हो।
चिरऊ महाराज घर से नाश्ता करके दूध पीकर आते थे। दोपहर को मद्रासी होटल में जाते, साथ में एक-दो आदमी और होते। वहां न दोसा खाते, न इडली। मांगदेखकर मद्रास होटल के मालिक त्यागराज आलूबंडा भी बनाने लगे थे। चिरऊ महाराज एक प्लेट भरकर सांभर रखवाते टेबिल पर और आलूबंडो का ढेर। सांभर के
साथ ५-६ आलूबंडे उनका 'लंच' था। मोटर स्टेंड पर होटल भी थे, जहां सब्जी, रोटी, दाल खा सकते थे। पर वे आलूबंडे का ही लंच करते। खाकर पेट हाथ फ़ेरते। पान-तमाखू खाते और होटल की एक बेंच पर सो जाते। शाम आते उठते और खाली कनस्तर बस में रखकर गांव लौट जाते।
परोपकारी आदमी थे। जो काफ़ी दूध रोज गरीब बच्चों को मुफ़्त पिलाए, उसकी संवेदनशीलता का अंदाज लगाया जा सकता है। वे वैद्य भी थे। इलाज मुफ़्त करतेथे। कुछ दवाइयां खुद बनाते थे और कुछ दुकानों से खरीदते थे। वे छोटे रोग ठीक कर लेते थे। अपने गांव में या आसपास के गांवो में किसी के बीमार होने की खबर मिलती, तो चिरऊ महाराज दवाइयों का बक्सा लेकर पहुंच जाते। धोखा नहीं देते थे। कुछ अनाड़ी तो यह भी दावा करते हैं कि कैंसर ठीक कर दूंगा। मगर चिरऊ महाराज मरीज की हालत देखते। ज्यादा बीमार होता, तो कह देते,- यह रोग अपने बस का नहीं है। दवा हम दे देते हैं। पर इसे मेडिकल कालेज ले जाओ। काफ़ी जैसा उनका दवाइयों पर खर्च होता था।
चिरऊ महाराज विशेष पढ़े-लिखे नहीं थे। अनुभवी बहुत थे। वे 'रामचरितमानस' का रोज पाठ करते थे। रामभक्त थे। वे मानते थे कि कभी राम-राज था, जिसमेंकोई दीन, दुखी और रोगी नहीं था। वे मानते थे कि वैसा राम-राज फ़िर आ सकता है, अगर हम पाप छोड़ दे। सबसे बड़ा पाप है, देश में गोहत्या होना। गोहत्याबंद हो जाय तो राम-राज आ सकता है।
'रामचरितमानस' के प्रति प्रेम, राम के प्रति भक्ति और गौमाता के प्रति श्रद्धा उन्हें स्वामी करपात्री के संगठन 'रामराज-परिषद' में ले गई। वैसे चिरऊ महाराज न राजनीति समझते थे, न राजनीति का काम करते थे। वे सांप्रदायिक बिल्कुल नहीं थे। मानवतावादी थे। पर जब 'रामराज-परिषद' में शामिल हो गए, तो उसकी राजनीति भी करने लगे।
आम चुनाव आए। स्वामी करपात्री न उन्हें आदेश दिया कि वे फ़ूलपुर से जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ़ चुनाव लड़े। सारे मोटर स्टेंड में इसकी चर्चा होती रही।लोगों ने समझाया कि आप नेहरू के खिलाफ़ मत लड़ो। फ़िर वहां डाक्टर लोहिया लड़ रहे हैं। आप फ़जीहत में मत पड़ो। पर चिरऊ महाराज ने कहा- लड़ना तो पड़ेगा। स्वामी जी का आदेश है।
मैंने पूछा- स्वामीजी ने रूपए कितने दिए है?
उन्होंने बताया- हजार रूपए।
मैंने कहा- लोकसभा का चुनाव और हजार रूपए। इतने में तो पोस्टर भी नहीं बनेंगे। चिरऊ महाराज ने कहा- कुछ पास के भी लग जाएंगे। पर लड़ेगे जरूर। मामूली
आदमी के खिलाफ़ चुनाव क्या लड़ना। नेहरू के खिलाफ़ लड़ेगे तो दुनिया में नाम होगा। और हार-जीत का ऎसा है कि हानि, लाभ, जीवन, मरन, जस-अपजस विधि हाथ…' सियावर रामचंद्र की जय।
चिरऊ महाराज बदल गए। लगभग मौन रहनेवाले बहुत बोलने लगे। 'रामचरितमानस' उन्हें याद था ही। बात-बात में मानस के उद्धरण देते। वे पूरे नेता हो गए।कपड़े नए और साफ़ पहनने लगे। मगर दूध के पीपे रोज की तरह ही लाते।
वे उम्मीदवारी का फ़र्म भरने इलाहाबाद गए। साथ में मोटर स्टेंड के दो लोग गए। स्टेशन पर उन्हें मालाएं पहनाई गई। बहुत लोग उन्हें पहुंचाने गए थे। चिरऊ महाराज की जय बोली गई। वे गदगद हो गए। बोले- भैया, हम तो धर्म की लड़ाई लड़ने जा रहे है। भगवान राम का आदेश है। और हम हैं हनुमान- जो राउर अनुसासन पावौं, कंदुक इव ब्रम्हाण्ड उठावौ। राम का प्रताप ऎसा है- बिनु पग चलै सुनै बिनु काना, कर बिनु करै कर्म विधि नाना।
इलाहाबाद का हाल साथ गए लोगों ने बताया। इलाहाबाद में बड़ी चर्चा थी कि ये कौन 'चिरऊ महाराज' है जो जवाहरलाल के खिलाफ़ चुनाव लड़ रहे है। नाम था उनका- रामनारायण उरमलिया, पर वे 'चिरऊ महाराज' के नाम से ही जाने जाते थे। पोस्टरों में भी नाम के आगे 'चिरऊ महाराज' छपा था।
फ़ार्म भरके निकले तो पत्रकारों ने घेर लिया। तरह-तरह के सवाल करने लगे। विदेशी पत्रकार भी बहुत थे। इन्होंने कहा- हमें अंगरेजी नहीं आती। जो बात करना हैं हिंदी में करो। बात ये है, हमें जवाहरलाल से कोई शिकायत नही हैं। वे गौहत्या बंद करवा दें तो हम बैठ जाएंगे।
अब 'चिरऊ महाराज' का अंग्रेजी व विदेशी पत्रकारों ने अर्थ निकाला कि ये चिरऊ नाम के देशी राज्य के महाराज हैं। गोडवंश के मालूम होते है। रानी दुर्गावती के वंश में आते होंगे। अंग्रेजी अखबारों ने प्रचार किया- Prince of Chirau State contests against Jawaharlal Nehru, Demanads ban on cow-slaughtler.
इनकी देखा-देखी हमारे क्षेत्र के बाहर के अखबारों ने भी लिखा- चिरऊ राज्य के महाराज पंडित नेहरू के खिलाफ़ लड़ रहे है।
हम लोग मजा ले रहे थे कि हमारे चिरऊ महाराज दुनिया में 'Prince of Chirau State' के नाम से विख्यात हो गए।
लोहिया को उनके बारे में सबकुछ मालूम हो गया था। लोहिया ने पूछा- जवाहरलाल से आपको क्या शिकायत है? महाराज ने जवाब दिया- हमें एक ही शिकायत है कि उनके राज में गौहत्या होती है। वे गौहत्या बंद करवा दें तो हम नहीं लड़ेंगे। आपसे कहेंगें कि आप भी बैठ जाओ। एक बात है, लोहिया जी! अगर आप बैठ जाओ तो हम जवाहरलाल को हरा देंगे। लोहिया ने ठहाका लगाया- महाराज, दूध पीओ।
कुछ लोगों ने समझाअ कि यह बौड़म किसम का आदमी है। इससे नेहरू का चरित्र-हनन कराया जा सकता है। एक सांप्रदायिक दल के लोग आए। उनके नेता नेकहा- आप तो महाराज रामभक्त है। राम मर्यादा-पुरूषोत्तम थे। एक पत्नीव्रतधारी थे। राजा को ऎसा ही होना चाहिए। एक ये राजा है जवाहरलाल, जो चरित्रहीन हैं। इनके औरतों से संबंध हैं। आप इसका पर्दाफ़ाश करो। आप ही इतनी हिम्मत कर सकते है। पोस्टर हम छपा देंगे। आप लिखकर दे दो। चिरऊ महाराज समझ गए। उस नेता से कहा-भैया, क्या तुम्हारी औरत भी जवाहरलाल से फ़ंसी है?
वह बोले- यह क्या बकते है?
महाराज ने कहा- बकता नहीं, कहता हूं। तुम क्या मुझे बौड़म समझते हो। समरथ को नहिं दोस गुसाई- यह तुलसीदास ने कहा है। नेहरू समर्थ हैं। और तुम?
चिरऊ महाराज ने चुनाव-प्रचार 'रामचरितमानस' का पाठ करके ही किया। वे जमकर बैठ गए, और जगह-जगह 'रामचरितमानस' का पाठ करके प्रचार करते।डीलडौल और व्यक्तित्व के कारण और Prince Chirau State होने के कारण लोग इकट्ठे भी होते। पर कोई उन्हें गंभीरता से लेता नहीं था।
एक श्रूंगवेरपुर है गंगा के किनारे। उस जगह केवटों की बहुत आबादी है। चिरऊ महाराज वहीं राम के सरयू पार करने के केवट-प्रसंग का पाठ करते रहे-

मांगी नाव न केवट आनाकहई तुम्हार मरम में जानाचरण कमल रज कहैं सब कहईमानस करनि भूरि कछु अहईछुवत सिला भई नारी सुहाईपाहन तें न काठ कठिनाईतरनिहि मुनि घरनी हुई जाईबाट परई मोरि नाव उड़ाईएहि प्रतिपालऊं सब परिवारूनहीं जानऊं कछु अजर कबारूजो प्रभु पार अवस कर चहहूमोहि पद पदम पखारन कहहूसुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।विहंसे करूना ऎना, चितहू जानकी लखन तन॥
बोल सियावर रामचन्द्र की जय।
चिरऊ महाराज को केवटों के काफ़ी मत मिल गए। कुल दस एक हजार मत उन्हें मिले। हारकर लौटे तो फ़िर वही जिंदगी- धोती-कुरता पहने डब्बों से सबेरे से दूध बेच रहे है।
बहुत दिनों तक बाहर के लोग इस Prince of Chirau State को देखने आते रहे, जो मोटर स्टैंड पर दिन-भर खड़े-खड़े दूध बेचते थे।
कुछ साल पहले चिरऊ महाराज की म्रत्यु हो गई। किसी ने जाना नहीं कि उन्हें कठिन बीमारी है। कोई हल्ला नहीं हुआ। किसी को खास कष्ट नहीं दिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी जस की तस धर दीन्हीं चदरिया!
-हरिशंकर् परसाई

Friday, April 4, 2008

नेपाल में गणतंत्र या 'गनतंत्र'...

माओवादी नेताओं के बयानों पर जाएं तो इससे नए नेपाल की कल्पना काफी चिंता पैदा करने वाली है. लगता है कि कहीं नेपाल जहां हाल तक राजतंत्र था गणतंत्र के रास्ते पर चलते-चलते कहीं गनतंत्र का शिकार न बन जाए.

नेपाल में संविधान सभा के चुनाव में अब कुछ ही दिन रह गए हैं लेकिन उस पर मंडरा रहे संशय के बादल अभी तक पूरी तरह से छंटे नहीं हैं. नेपाल में शांति स्थापना के लिए हो रहे इन चुनावों से क्या देश में शांति और स्थिरता का दौर आएगा, इसकी संभावनाएं कम ही लगती हैं.

पहले तो इसी पर शक है कि संविधान सभा के लिए 10 अपैल को होने वाले चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हो पाएंगे. यदि हो भी गए तो परिणाम के बाद माओवादियों का क्या रुख होगा, क्योंकि माओवादी तो हर कीमत पर सत्तासीन होने पर आमादा हैं.

वह तो एक नया नेपाल बनाना चाहते हैं. यदि माओवादी नेताओं के बयानों पर जाएं तो इस नए नेपाल की कल्पना काफी चिंता पैदा करने वाली है. इनके बयानो से लगता है कि कहीं नेपाल जहां हाल तक राजतंत्र था गणतंत्र के रास्ते पर चलते-चलते कहीं गनतंत्र का शिकार न बन जाए.

नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग तथा काठमांडू सिथत संयुक्त राष्ट्र मिशन ने माओवादी लड़ाको द्वारा संयुक्त राष्ट्र शिविरों से बाहर निकलकर चुनाव प्रचार में जाने को शांति समझौते तथा चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करार देते हुए उस पर गहरी चिंता व्यक्त की है. ये लड़ाके अपनी कमांडो वर्दी में प्रचंड की चुनाव सभाओं की कमान संभाल रहे हैं.

आयोग ने मिशन के प्रमुख इयान मार्टिन से सफाई मांगी कि ये लड़ाके शिविर के बाहर कैसे जा रहे हैं. मार्टिन ने इस मामले को प्रचंड के साथ उठाया है. नेपाली कांग्रेस भी इससे काफी खफा है. माओवादियों की इस हरकत से नाराज मुख्य चुनाव आयुक्त डा. भोजराज पोखरेल ने तो चेतावनी दे दी है कि अगर आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन इसी तरह जारी रहा तो उन्हें संविधान सभा के चुनाव रद्द करने पर बाध्य होना पड़ सकता है.

राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब चल रही है. पिछले साल आर्थिक विकास की दर ढाई प्रतिशत रही और महंगाई आसमान छू रही है. इसके साथ ही वहां के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षति पहुंचाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. नेपाल में यह पहली बार हुआ है कि अल्पसंख्यकों के पूजा स्थल पर बम फेकें गए.

यह सब तो यही बता रहा है कि नेपाल जिस रास्ते पर जा रहा है वह केवल अराजकता की ओर ही जाता है. नेपाल के लोग अभी तक माओवादियों द्वारा चलाए गए हिंसा के दौर को भुला नहीं पाए हैं, जिसमें करीब तेरह हजार लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.

सबसे ज्यादा चिंताजनक माओवादियों के नेता प्रचंड का वह बयान है जिसमें उन्होनें मतदाताओं को एक तरह से खुली धमकी दी है कि वे या तो उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता सौंप दे, नहीं तो वे खून-खराबे के जरिए इसे हासिल करेंगे. इस बयान से प्रचंड की सोच का पता चल जाता है कि उनका लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में कोई विश्वाश नहीं है.

माओवादियों के मुखपत्र "जनदिशा" ने उनके इस बयान को उद्धृत करते हुए कहा है कि माओवादी जनशक्ति की मदद से एक नया नेपाल बनाना चाहते हैं. प्रचंड चुनावी सभाओं में चेतावनी दे रहे हैं कि जनता उन्हें नेपाल गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति के रूप में मान चुकी है और अगर ऐसा नहीं होता है तो देश में खून-खराबा होगा.
माओवादियों के अन्य नेता इसे दूसरी क्रांति का नाम देते हैं. प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला सहित सात दलों के गठबंधन के किसी भी नेता ने इसकी निंदा नहीं की है. यह माओवादियों का भय ही है कि गठबंधन उनके गलत बयानों पर भी किसी टिप्पणी से बचता है.

लेकिन इस सबके बावजूद माओवादी अपनी जीत के प्रति अभी भी आश्वस्त नहीं हैं. वहां से आ रही खबरों के अनुसार उसका कैडर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में मतदाताओं को डराने और धमकाने में लगा हुआ है. प्रचंड के बयान के बाद वैसे भी उन चुनावों की कोई मर्यादा बचती नहीं है.

यही नहीं माओवादी तो प्रचंड को अभी से देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में पेश करने लगे हैं जबकि ये चुनाव संविधान सभा के हैं जिसे देश के लिए एक नया संविधान बनाना है और उसके साथ यह तय करना कि देश किस तरह की सत्ता व्यवस्था को स्वीकार करे.

माओवादी पहली बार गंभीरता से अपनी राजनीतिक ताकत को आंक रहें हैं और उनके ये बयान लोकतंत्र तथा चुनाव प्रणाली को लेकर उनकी प्रतिबद्धता पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगा देते हैं.


राजीव पांडे