सुभाष धूलिया
ईरान भी अब दुनिया का एक सबसे अस्थिर क्षेत्र बनने की राह पर अग्रसर है। नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर ईरान के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है और अमेरिका, उसके सहयोगी और इजराइल किसी भी कीमत पर ईरान के मौजूदा नाभिकीय कार्यक्रम को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। ईरान पर बार-बार आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने अनेक नाभिकीय प्रतिष्टानों को अंतर्राष्ट्रीय आणविक ऊर्जा एजेंसी की निगरानी से अलग रखे हुए है और इनके इस्तेमाल से नाभिकीय हथियार विकसित करने का इरादा रखता है। इस मसले पर ईरान हमेशा ही यही कहता आया है कि उसका नाभिकीय कार्यक्रम ऊर्जा उत्पादन तक ही सीमित है और नाभिकीय हथियार बनाने का उसका कोई इरादा नहीं है। दरअसल ईरान यूरेनियम संवर्धन की जिस क्षमता को हासिल कर रहा है उसका इस्तेमाल नाभिकीय हथियार विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है।
हाल ही में जब ये पता चला की ईरान गुप्त रूप से एक अन्य नाभिकीय संयंत्र कायम कर रहा है आणविक ऊर्जा एजेंसी के सब्र का बाँध टूट गया। एजेंसी के प्रबन्धक बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास कर ईरान की भर्त्सना की है। 35 सदस्यीय बोर्ड ने 25-3 के बहुमत से ये प्रस्ताव पारित किया जिसमें वेनेजुएला, क्यूबा और मलेशिया का प्रस्ताव के विरोध में वोट देना तय था। भारत पहले ही ईरान के खिलाफ वोट डाल चुका है और भारत एक जिम्मेदार नाभिकीय शक्ति का दर्जा हासिल करने के लिए ऐसे किसी भी प्रयास का समर्थन नहीं करेगा जिससे किसी भी रूप में नाभिकीय हथियारों का प्रसार होता है। इसके अलावा भारत और अमेरिका के बीच हुए नाभिकीय समझौते से भी भारत की नीति में बदलाव आया है।
लेकिन इस बार ईरान को समर्थन देने वाले रूस और चीन ने भी ईरान के भर्त्सना प्रस्ताव का समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी तो काफी समय से ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने की वकालत करते रहे हैं लेकिन रूस और चीन इसके पक्ष में नहीं थे । इन दोनों देशों के ईरान में सामरिक और आर्थिक हित भी दांव पर लगे हैं। इसी वजह से सुरक्षा परिषद के माध्यम से कड़े प्रतिबंध लगाने का रास्ता नहीं निकल पा रहा था।
आणविक ऊर्जा एजेंसी के भर्त्सना प्रस्ताव के बाद भी ईरान के रुख में कोई नरमी नहीं आई और अपने नाभिकीय कार्यक्रम विकसित करने के अधिकार से कोई भी समझौता करने से इंकार कर दिया है। इन हालातों में एक नया परिदृश्य पैदा हो गया है और यह संभावना प्रबल हो गयी है कि सुरक्षा परिषद ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित कर देगी। इस तरह के प्रतिबंध लगाने से ईरान के अर्थतंत्र को विनाशकारी परिणाम झेलने होंगे। ईरान दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है लेकिन तेल और गैस संसाधनों को परिष्कृत करने की क्षमता न होने के कारण उसे 40 प्रतिशत गैसोलीन का आयात करना पड़ता है। इसलिए अगर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो इसके परिणाम ईरान समेत पूरी दुनिया को झलने पड़ेंगे।
मौजूदा नेतृत्व के चलते ईरान के कट्टर रुख में किसी परिवर्तन के उम्मीद नहीं की जा सकती और ऐसे में सामरिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण देश एक गहरे संकट में पड़ने जा रहा है । ईरान भले ही खुले तौर पर यही कहता है कि वह नाभिकीय हथियार विकसित करने का कोई इरादा नहीं रखता पर परोक्ष रूप से इसमें यह संदेश भी निहित है कि अगर उसे नाभिकीय हथियार विकसित करने से रोका जा रहा है तो फिर इजराइल के नाभिकीय हथियारों को लेकर भी यही दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाया जाता ? ईरान का यह भी कहना है 1991 में खाड़ी युद्द समाप्त करने के संयुक्त राष्ट के उस प्रस्ताव का क्या होगा जिसमें मध्यपूर्व को नाभिकीय हथियारों और इन्हें दागने में समर्थ मिसाइलों से मुक्त रखने का आह्वान किया गया था जिसमें अमेरिका भी शामिल था। लेकिन लेकिन ईरान के ये तर्क कितने ही वाजिब क्यों न हों अमेरिका, उसके सहयोगी और इजराइल नाभिकीय ईरान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
रूस के रुख में परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण यही है कि वह ईरान में ऐसा युद्द नहीं चाहता जिससे इस भूभाग के सामरिक और आर्थिक समीकरण तहस-नहस हो जाएं। ईरान के इरादों पर अंकुश लगाए रखने के लिए रूस ने उसे विमानभेदी मिसाइलें देने से इंकार कर दिया था और एक नाभिकीय संयंत्र लगाने के समझौते का भी पालन नहीं किया है। रूस का मानना है कि ईरान को इस तरह की मदद देने से वह नरम पड़ने की बजाय आक्रमण का सामना करने की और ही उन्मुख होगा। इसके अलावा रूस यूरोप में अमेरिका की मिसाइल शील्ड को अपने लिए बड़ा खतरा मानता था लेकिन अमेरिका ने यूरोप से इसे हटाकर रूस को अपने साथ लाने की महत्वपूर्ण पहल की थी। रूस के रुख में परिवर्तन के बाद चीन के लिए भी ईरान का समर्थन जारी रखना मुश्किल होता गया। हालांकि चीन के ईरान में ऊर्जा संसाधनों को लेकर काफी बड़े आर्थिक हित दांव पर लगे हैं और वह ईरान में बड़े पैमाने पर विनिवेश करने जा रहा है।
राष्ट्रपति ओबामा ने भले ही 1979 से चल रहे ईरान के बहिष्कार को समाप्त कर बातचीत का रास्ता अपनाया लेकिन सैनिक विकल्प का रास्ता भी खुला रखा है। इस बीच अमेरिका और इजराइल ने ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त युद्ध अभ्यास भी किए हैं। इस दृष्टि देखें तो ईरान के प्रति अमेरिका की बुनियादी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
रूस और चीन के रुख में परिवर्तन से सुरक्षा परिषद के माध्यम से ईरान पर कड़े लगाने का मार्ग प्रशस्त होता नजर आ रहा है। कड़े प्रतिबंध लगने के बाद संकटग्रस्त ईरान और कौन सा रास्ता अपनाने को मजबूर होगा ? पहले ही इसकी सरहदों से लगे इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की सेनाएं युद्ध लड़ रही हैं। इस तरह संकटग्रस्त और असुरक्षित होने के बाद ईरान अपनी बची-खुची क्षमता से नाभिकीय हथियार विकसित करने का रास्ता अपना सकता है। ऐसे में ये टकराव यहीं खत्म नहीं होने जा रहा है बल्कि इसमें एक बड़े संकट और अलग तरह के टकराव की संभावनाएं इसमें निहित हैं।
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nice
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